अग्नि आलोक
script async src="https://pagead2.googlesyndication.com/pagead/js/adsbygoogle.js?client=ca-pub-1446391598414083" crossorigin="anonymous">

आखिर क्षेत्रीय दलों से संतुलन में कांग्रेस नाकाम क्यों?

Share

मंजरी चतुर्वेदी 

पिछले कुछ अरसे से लगातार विपक्षी खेमे से नाराजगी, असंतोष और बयानबाजी सामने आ रही है, जो यह दिखाती है कि विपक्षी एकजुटता का दावा करने वाला I.N.D.I.A. कमजोर हो रहा है। गठबंधन में क्षेत्रीय दलों की सामने आ रही नाराजगी और असंतोष के केंद्र में कांग्रेस पार्टी है। दरअसल, विपक्षी खेमे का सबसे बड़ा घटक होने के नाते अलग-अलग राज्यों में कांग्रेस को ही क्षेत्रीय दलों से सीटों पर तालमेल करना था, लेकिन अभी तक यह काम पूरा नहीं हो पाया है।

अभी तक सीट शेयरिंग की तस्वीर नहीं हो पाई साफ
उल्लेखनीय है कि गत 19 दिसंबर को दिल्ली में हुई बैठक में आम सहमति से तय हुआ था कि गठबंधन 31 दिसंबर तक राज्यों में तालमेल में सीट शेयरिंग की तस्वीर साफ कर लेगा। वहीं, जनवरी के अंत तक विपक्ष संयुक्त रूप से देश भर में प्रचार शुरू कर देगा। हालांकि अभी तक ये दोनों ही काम पूरे नहीं हो पाए हैं। क्षेत्रीय दल इसके लिए कांग्रेस को जिम्मेदार बता रहे हैं। पिछले दिनों जिस तरह से कांग्रेस के सिर पर ठीकरा फोड़ते हुए जेडीयू गठबंधन से दूर हुई और उसके बाद लगातार कांग्रेस के रवैये को लेकर ममता बनर्जी की नाराजगी सामने आ रही है, वह कांग्रेस के प्रति क्षेत्रीय दलों की नाराजगी जाहिर करती है। इनके अलावा, यूपी में एसपी के साथ और दिल्ली-पंजाब में AAP के साथ भी कांग्रेस सीट साझेदारी का काम पूरा नहीं कर पाई है।

क्षेत्रीय दल भी दिखा रहे नाराजगी
कांग्रेस को लेकर क्षेत्रीय दलों के इस रवैये के पीछे कहीं न कहीं हाल ही में हुए पांच राज्यों के चुनाव और उनके नतीजे भी जिम्मेदार माने जा रहे हैं। पांच राज्यों के चुनावों के दौरान ही जेडीयू जैसे दलों ने कांग्रेस की चुनावी व्यस्तता को लेकर अपना असंतोष दिखाना शुरू कर दिया था। क्षेत्रीय दलों का मानना था कि कांग्रेस के चुनावी व्यस्तता के चलते विपक्षी गठबंधन का काम आगे नहीं बढ़ पा रहा है। वहीं हिंदी पट्टी के तीन बड़े राज्यों मध्य प्रदेश, राजस्थान और छत्तीसगढ़ में कांग्रेस की हार ने क्षेत्रीय दलों को कांग्रेस पर हावी होने और दबाव बनाने का मौका दे दिया। अगर इन तीन बड़े राज्यों में से दो में भी कांग्रेस जीत जाती तो उसकी बारगेनिंग पावर बढ़ी हुई होती।

क्या कांग्रेस के पास रणनीति का अभाव है?
क्षेत्रीय दलों का मानना है कि कांग्रेस के पास कोई स्पष्ट रणनीति नहीं है। मसलन, राहुल गांधी सहित कांग्रेस का शीर्ष नेतृत्व लगातार कहता रहा है कि गठबंधन में सभी दलों को निजी हितों से ऊपर उठकर काम करना होगा। लेकिन सीट शेयरिंग में यह नीति कांग्रेस की ओर से नजर नहीं आ रही है। कांग्रेस की ओर से कहा जाता है कि यह गठबंधन राष्ट्रीय स्तर पर होना है, जहां विधानसभाओं के चुनावी समीकरण काम नहीं करेंगे, लेकिन सीटों के बंटवारे के वक्त कांग्रेस की प्रदेश इकाइयों की तरफ से आते दबाव की वजह से तालमेल में दिक्कत हो रही है।

क्या चुनाव को लेकर कांग्रेस गंभीर नहीं है?
घटक दलों का मानना है कि 2024 के चुनाव को लेकर कांग्रेस गंभीर नहीं है। कांग्रेस की कमी है कि वह पांच साल तक जमीन पर जिंदा ही नहीं दिखती। इससे उलट बीजेपी जीते या हारे, लेकिन वह जमीन पर लगातार सक्रिय रहती है। बंगाल में असेंबली में हारने के बावजूद बीजेपी लगातार सत्तारूढ़ दल टीएमसी से मोर्चा लेती रही। वहीं, विपक्षी गठबंधन का प्रमुख दल होने के नाते कांग्रेस को जो गंभीरता दिखानी चाहिए, वह नजर नहीं आ रही। चुनावी तालमेल की प्राथमिकताओं के बीच ‘भारत जोड़ो न्याय यात्रा’ को की गंभीरता पर भी सवाल उठ रहे हैं।

क्या हैसियत से ज्यादा मांग रही है कांग्रेस?
तालमेल में दिक्कत के पीछे एक बड़ी वजह कांग्रेस की हैसियत से ज्यादा चाहत मानी जा रही है। जिन राज्यों में कांग्रेस की जमीनी वजूद खास नहीं है, वहां भी सीटों के बंटवारे में कांग्रेस अपने लिए ज्यादा सीटें चाह रही है। मसलन यूपी में कांग्रेस साल 2009 के नतीजे के मुताबिक, सीटें मांग रही है, जबकि एसपी की ओर से उसे 11 सीटें देने की पेशकश हो चुकी है। इसी तरह से बिहार में भी कांग्रेस के ज्यादा सीटें लेने से विधानसभा चुनाव में महागठबंधन को नुकसान पहुंचा था। सबसे बड़ा राजनीतिक दल होने के बावजूद अगर आरजेडी सत्ता में आने से चूक गई तो उसके पीछे कहीं न कहीं कांग्रेस का ज्यादा सीटों का लोभ माना जाता है। कांग्रेस को एक बात समझनी होगी कि अगर वह बिना खास जमीनी पकड़ के ज्यादा सीटों पर चुनाव लड़ती और हार जाती है, तो इसका सीधा फायदा बीजेपी को होता है।

क्या लालफीताशाही रवैया जिम्मेदार है?
सीटों के बंटवारे को लेकर हो रही देरी के पीछे एक बड़ी वजह कांग्रेस के सिस्टम में मौजूद लालफीताशाही रवैया माना जाता है। कांग्रेस के भीतर फैसला लेने के कई स्तर हैं। जहां क्षेत्रीय दलों में शीर्ष नेतृत्व फैसला लेने और रणनीति तय करने का काम करता है, उसके विपरीत कांग्रेस में यह काम कई स्तरों पर होता है। मौजूदा तालमेल की प्रक्रिया को देखा जाए तो कांग्रेस हाईकमान द्वारा बनाई गई लोकसभा चुनाव गठबंधन समिति ने पहले कई हफ्तों प्रदेश इकाइयों के साथ कवायद की और उसके बाद यह समिति अलग-अलग राज्यों में क्षेत्रीय दलों के साथ मंथन कर रही है। जबकि इन सभी जगह पर तालमेल का आखिरी फैसला हाईकमान को लेना है। ऐसे में इतने अलग-अलग स्तर पर होने वाले मंथनों और फैसलों के चलते कई बार क्षेत्रीय दल अपना धैर्य खो देते हैं। कुछ समय पहले वेस्ट बंगाल में ममता बनर्जी ने यह कहते हुए कांग्रेस की गठबंधन समिति से बात करने से साफ इनकार कर दिया था कि वह सिर्फ कांग्रेस के टॉप लीडरशिप से बात करेंगी।

अस्तित्व की लड़ाई तो नहीं बड़ी वजह?
तालमेल में आ रही दिक्कतों के पीछे एक बड़ी वजह कांग्रेस की प्रदेश इकाइयों और क्षेत्रीय दलों के सामने अपनी अस्तित्व की लड़ाई प्रमुख है। ज्यादातर क्षेत्रीय दलों का वर्चस्व एक या दो राज्यों तक सीमित है। जहां वे दल अपनी पकड़ मजबूत रखते हैं, वहां वे कांग्रेस को ज्यादा सीटें देने के लिए तैयार नहीं हैं। फिर चाहे वह यूपी में अखिलेश यादव हों या वेस्ट बंगाल में ममता बनर्जी अथवा दिल्ली और पंजाब में अरविंद केजरीवाल की पार्टी। दरअसल, ज्यादातर क्षेत्रीय दल कांग्रेस के वोट बैंक पर ही अपना जमीनी आधार बना पाए हैं, ऐसे में इन लोगों के सामने एक खतरा यह भी है कि अगर इन राज्यों में कांग्रेस मजबूत होती है तो इसका खामियाजा क्षेत्रीय दलों को ही उठाना पड़ेगा। दूसरी ओर यही सवाल कांग्रेस के सामने भी है। कांग्रेस की प्रदेश इकाइयों को लगता है कि अगर तालमेल के नाम पर राज्यों में कांग्रेस इसी तरह से अपने घटक दलों के लिए त्याग करती रही, तो धीरे-धीरे उसका जमीनी आधार खत्म होने लगेगा और सत्ता में वापसी मुश्किल होगी। यूपी, बिहार, बंगाल के बाद दिल्ली और पंजाब इसका एक बड़ा उदाहरण है।

इतिहास के गुमान में जी रही है कांग्रेस : एक्सपर्ट
क्षेत्रीय दलों के साथ बातचीत में सबसे बड़ी दिक़्क़त है कि कांग्रेस अपना और उन दलों का रोल नहीं तय कर पा रही। अमूमन गठबंधन में एक दल अहम होता है, जैसे यूपीए में कांग्रेस थी या NDA में बीजेपी। लेकिन अभी हालात दूसरे हैं, यहां सभी दल बराबर हैं। जैसे टीएमसी, डीएमके आदि दल। इसके अलावा, जिन राज्यों में कांग्रेस की बीजेपी से लड़ाई है, वहां कांग्रेस मजबूत नहीं है, जबकि क्षेत्रीय दल बीजेपी को रोकने में लगे हैं। ऐसे में कांग्रेस में आत्मविश्वास की भी कमी है। वहीं कांग्रेस की अपनी राजनीति भी जिम्मेदार है। खरगे चाहते हैं कि गठबंधन हो, लेकिन एक धड़ा अपनी शर्तों पर तालमेल चाहता है। वह राहुल को आगे बढाने में लगा है। कांग्रेस की दिक्कत ये है कि वह अभी भी इतिहास के गुमान में जी रही है।

Recent posts

script async src="https://pagead2.googlesyndication.com/pagead/js/adsbygoogle.js?client=ca-pub-1446391598414083" crossorigin="anonymous">

Follow us

Don't be shy, get in touch. We love meeting interesting people and making new friends.

प्रमुख खबरें

चर्चित खबरें