लाल बहादुर सिंह
रोज़गार के सवाल को 2014 के बाद से भाजपा और प्रधानमंत्री मोदी भूल कर भी याद नहीं करना चाहते, यह तो समझ में आता है, परन्तु तमाम प्रमुख विपक्षी दल भी इस सवाल को गम्भीरता से एड्रेस नहीं कर रहे हैं। आखिर इसके पीछे क्या रहस्य है?
जबकि यह एक ऐसा दौर है जब वैश्विक मंदी के पैर पसारने की खबरें धीरे धीरे मीडिया में छाती जा रही हैं। आये दिन तमाम कम्पनियों से कर्मचारियों की छंटनी की खबरें आ रही हैं। भारत पर आसन्न मंदी का कोई असर न पड़ने के मोदी जी के मंत्रियों के बड़बोले दावों को विशेषज्ञों ने खारिज कर दिया है। तमाम sectors में हमारा निर्यात गिरता जा रहा है, रुपये की गिरती कीमत ने हालात को और मुश्किल बना दिया है। इससे न सिर्फ भुगतान संतुलन की स्थिति गम्भीर हो रही है, वरन हमारे रोजगार के अवसरों पर भी बेहद प्रतिकूल असर पड़ेगा। भारत में तो बेरोजगारी पहले से ही 45 साल के चरम पर है। आर्टिफिसियल इंटेलिजेंस ( AI ) जैसे युगान्तकारी तकनीकी बदलावों से रोजगार के मोर्चे पर आशंकाएं और गहराती जा रही हैं।
कुल मिलाकर सारे संकेत बता रहे हैं कि बेरोजगारी की स्थिति भयावह होती जा रही है और यह राष्ट्रीय जीवन का सर्वप्रमुख सवाल बन गया है। पूरी पीढ़ी का भविष्य दांव पर है। आत्महत्या की दिल दहला देने वाली खबरें, कई बार मासूम बच्चों, पूरे परिवार के साथ, अब आम होती जा रही हैं। लेबर फोर्स पार्टिसिपेशन रेट ( LFPR ) लगातार गिर रहा है जो दिखाता है कि रोजगार की संभावना को लेकर लोग कितने निराश हैं कि वे अब उसकी तलाश भी नहीं कर रहे हैं।
लेकिन इतने गहन संकट के बावजूद चुनाव के समय भी इस पर कोई बड़ी बहस न खड़ा होना गहरी चिंता और आश्चर्य का विषय है।जाहिर है 5 साल बाद अबकी बार भाजपा-राज की हर मोर्चे पर नाकामी के खिलाफ गुस्सा और निराशा और गहरी थी, जिसमें कोविड के दौर में हुई मौतों का मातम भी शामिल था।
इसकी अभिव्यक्ति जनता के पॉपुलर मूड में भी हुई: एबीपी न्यूज- सी वोटर के सबसे ताजा सर्वे में जिस मुद्दे को सर्वाधिक लोगों ने ( 37.5% ) चुनाव का मुख्य मुद्दा बताया वह बेरोजगारी का सवाल था। इसके बावजूद विपक्ष ने इसे इस चुनाव में प्रमुख मुद्दा नहीं बनाया। केजरीवाल जहाँ नोट पर लक्ष्मी-गणेश की फ़ोटो छापने अथवा बुजुर्गों को अयोध्या की मुफ्त तीर्थयात्रा जैसे शिगूफों से भाजपा से प्रतियोगिता करते नज़र आ रहे हैं या फिर दिल्ली मॉडल पर फ्री बिजली-पानी आदि के वायदे कर रहे हैं। वहीं, मुख्य विपक्ष कांग्रेस परम्परागत ढंग से चुनाव लड़ती नज़र आ रही है। वह जनता द्वारा सबसे बड़ा मुद्दा बताए जा रहे रोजगार के सवाल को बड़े राजनीतिक सवाल के रूप में खड़ा कर चुनाव नहीं लड़ रही है।
आप पार्टी और कांग्रेस दोनों ने प्रदेश में खाली पड़े सरकारी पदों को भरने और 10 लाख नौकरियों की बात formal ढंग से कर दी। वचने किं दरिद्रता, भाजपा ने इसके जवाब में अगले 5 साल में 20 लाख रोजगार का वायदा कर दिया।
(वैसे मोदी जी के रेलमंत्री ने तो अभी हाल ही में बयान दिया कि उनकी सरकार हर महीने 16 लाख रोजगार दे रही है !)
पर रोजगार सृजन के सवाल को प्रमुख मुद्दा बनाते हुए उसे गम्भीरता से किसी ने एड्रेस नहीं किया। आखिर क्यों?
जबकि इसके विशुद्ध चुनावी फायदे भी बिल्कुल स्पष्ट हैं। राष्ट्रीय राजनीति में अतीत में 3 ऐसे अवसर याद आते हैं जब रोजगार मुद्दा बना था और युवाओं की भूमिका प्रमुखता से उभरी थी -1977, जब आपातकाल का अंत हुआ था और इंदिरा गांधी की सत्ता चली गयी थी, -1989, जब वीपी सिंह का धूमकेतु की तरह उदय हुआ और सरकार बदल गयी थी -2014, जब मोदी ने रोजगार को बड़ा मुद्दा बनाया और युवाओं के भारी समर्थन से सत्ता हासिल की। इसी तरह 2 वर्ष पूर्व बिहार विधानसभा के चुनाव में विपक्षी गठबंधन के नेता तेजस्वी यादव ने 10 लाख नौकरियों का सवाल जब उठाया तो एक जबरदस्त लहर पैदा हो गयी थी और विपक्ष जीत के नजदीक पहुंच गया था।
जाहिर है, जब जब यह प्रमुख सवाल बना है और नेता/दल युवाओं का विश्वास जीतने में सफल हुए, यह चुनाव का निर्णायक मुद्दा बन गया। लेकिन आज जब यह संकट अपने सबसे विकराल रूप में खड़ा है तब इसे राजनीतिक मुद्दा न बनाना या तो राजनीतिक दिवालियापन है या राजनीतिक इच्छाशक्ति का अभाव।
इस सवाल पर मोदी जी के वायदों (जुमलों!) और डिलीवरी के बीच की खाई इतनी गहरी है और उनका ट्रैक रिकॉर्ड इतना खराब, कि, रोजगार के सवाल पर भाजपा के किसी वायदे को अब शायद ही कोई गम्भीरता से ले। पर विपक्ष इसे अपेक्षित महत्व क्यों नहीं दे रहा है?
भाजपा तो बेरोजगारी की चुनौती का सामना करने की स्थिति में नहीं ही है, कहीं ऐसा तो नहीं कि विपक्ष के पास भी इस सवाल पर offer करने के लिए कुछ खास नहीं है?
क्या विपक्ष के पास “सबके लिए रोजगार” का कोई रोडमैप है?
यह तय है कि रोजगार के सवाल को गम्भीरतापूर्वक address करने के लिए आर्थिक मोर्चे पर सरकार को अपनी दिशा और प्राथमिकता सम्बन्धी बड़े नीतिगत बदलाव करने होंगे। जाहिर है इन बदलावों से ताकतवर सामाजिक शक्तियों-वैश्विक पूँजी, कारपोरेट तथा भारत के super rich तबकों-के हितों को चोट पहुंचेगी।
क्या राजनीतिक दल इन ताकतवर हितों को नाराज नहीं करना चाहते?
क्या इसीलिए वे रोजगार के सवाल पर या तो चुप रहते हैं या औपचारिक बयानबाजी से आगे किसी गम्भीर विमर्श की ओर नहीं बढ़ते। यह अनायास नहीं है कि सुप्रसिद्ध अर्थशास्त्री प्रो. अरुण कुमार द्वारा हाल ही में रोजगार के सवाल पर पेश विस्तृत रिपोर्ट पर किसी प्रमुख दल ने engage करना उचित नहीं समझा।
इस रिपोर्ट में उन्होंने ठोस तथ्यों और तर्कों के साथ यह स्थापित किया है कि सबके लिए रोजगार न सिर्फ वांछित है, ताकि भारत सही मायने में सभ्य, लोकतान्त्रिक राष्ट्र बने, बल्कि यह पूरी तरह सम्भव और अपरिहार्य ( feasible और indispensable ) है। वे कहते हैं, ” इसके लिए संसाधनों की कमी का तर्क invalid है, क्योंकि यह स्व-वित्तपोषित होगा। बढ़ते रोजगार से उत्पादन बढ़ेगा और मांग बढ़ेगी।”
वे याद दिलाते हैं, “बाजार न सिर्फ पूर्ण रोजगार की गारंटी नहीं करता, बल्कि वह चाहता है कि बेरोजगारी बनी रहे ताकि श्रम/श्रमिक की ताकत कमजोर रहे।”
जाहिर है जो राजनीतिक दल बाजार की ताकतवर शक्तियों के हितों से बंधे हैं, उनके लिए रोजगार को बड़ा सवाल बनाना और हल करना सम्भव नहीं है।
जरूरत है छात्र-युवा-बेरोजगार, श्रमिक रोजगार के सवाल को बड़े जनान्दोलन का मुद्दा बनाएं और विपक्षी दलों को इसे 2024 के चुनाव के प्रमुख एजेंडा के रूप में स्वीकार करने के लिए बाध्य करें। जिस तरह आम जनता के दिलो-दिमाग में साम्प्रदायिक नफरत घोली जा रही है, यह तय है कि रोजगार समेत जीवन के मूलभूत प्रश्नों के एजेंडा बने बिना संघ-भाजपा की विभाजनकारी राजनीति को शिकस्त देना असम्भव है। सबको जोड़ने तथा नफरत के खिलाफ मोहब्बत की अपील आवश्यक तो है, लेकिन पर्याप्त नहीं।