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क्‍यों जरूरी है क्रांति-ज्‍योति सावित्रीबाई फुले को स्‍मरण करना

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राज वाल्मीकि

शिक्षा मनुष्‍य में ऐसे गुणों का विकास करे जो उसे बेहतर इंसान बनाए। देश का बेहतरीन नागरिक बनाए। एक ऐसा नागरिक जो अपने संवैधानिक अधिकारों के साथ-साथ अपने संवैधानिक कर्तव्‍यों को जाने और उसका पालन करे। शिक्षा हमें वैज्ञानिक व तर्कपूर्ण सोच वाला इंसान बनाए ताकि अंधविश्‍वासों और सामाजिक कुरीतियों-रूढ़ि‍यों से बचा जा सके।

लड़के-लड़कियों और स्‍त्री-पुरुष में भेदभाव न करे। ऐसी शिक्षा के बारे में जब हम बात करते हैं तो अनायास ही प्रथम शिक्षिका क्रांति-ज्‍योति सावित्री बाई फुले का स्‍मरण हो आता है।

उन्‍होंने विपरीत और विषम परिस्थितयों में लड़कियों को पढ़ाने का नया कदम उठाया। लड़कियों के लिए शिक्षा का जो द्वार खोला उसी का परिणाम है कि आज हमारी बच्चियां शिक्षित हो रही हैं। पढ़-लिख कर न केवल वे अपना और अपने परिवार के आने वाली पीढ़ी का जीवन सुधार रही हैं बल्कि देश के विकास में भी अपना महत्‍वपूर्ण योगदान दे रही हैं।

पर दुखद यह है कि जिस शिक्षा को सावित्री बाई फुले महात्‍मा ज्‍योतिबा फुले, अंबेडकर तथा महात्‍मा गांधी जिस अंतिम व्‍यक्ति तक पहुंचाना चाहते थे, जिसकी पीढ़ि‍यां शिक्षा से वंचित रहीं वहां तक पूरी तरह शिक्षा की पहुंच आज तक नहीं हो पाई है।

आज भी आदिवासियों और अन्‍य अनेक हाशिए के देहात क्षेत्रों में शिक्षा की पहुंच नहीं हो पाई है। हास्‍यास्‍पद यह है कि कई ऐसे गांव भी हैं सरकार जिनके घरों पर यह लिखवा देती है कि इस घर-परिवार में सब साक्षर हैं पूछने पर वही कहते हैं कि हमें पढ़ना-लिखना नहीं आता।

कड़वी सच्‍चाई यह है कि आजकल खबरों में आता है कि सरकार कई स्‍कूलों को एक ही स्‍कूल में मर्ज या समाहित कर रही है। अनेक स्‍कूल बंद किए जा रहे हैं। दूसरी ओर सरकार सर्व शिक्षा अभियान चला कर सबको शिक्षित कर रही है।

यह ऐसा ही जैसे सरकार एक ओर कहती है कि देश के लोग आत्‍मनिर्भर हो रहे हैं। उन्‍हें रोजगार मिल रहा है। देश आर्थिक रूप से प्रगति कर रहा है दूसरी ओर यह भी कि देश में इतनी गरीबी और बरोजगारी है कि सरकार देश के अस्‍सी करोड़ लोगों को पांच किलो अनाज देकर उनका पेट भर रही है।

सरकार समय-समय पर नई शिक्षा नीति बनाती रहती है। सरकार ने राष्‍ट्रीय शिक्षा नीति 2020 (National Education Policy 2020) बनाई। इस नीति की काफी आलोचना हुई। यह नीति एक ओर अमीरों को और बेहतर शिक्षा प्रदान करने का प्रावधान कर रही है। दूसरी ओर शिक्षा को इतनी महंगी कर रही है कि गरीब अफोर्ड नहीं कर पा रहे हैं।

सरकार ने अनुसूचित जाति और अनुसूचित जनजाति के लिए प्री-मैट्रिक और पोस्‍ट मैट्रिक स्‍कॉलरशिप शुरु की थी, वह या तो बंद की जा रही हैं या इन स्‍कीमों का बजट कम किया जा रहा है। इसके अंतर्गत मिलने वाली धनराशि का छात्रों को समय पर भुगतान भी नहीं किया जा रहा है। जिससे वे शिक्षा पाने में विफल हो रहे हैं।

साफ है कि सरकार की मंशा वास्‍तव में वंचित और हाशिए के तबके को शिक्षित करने की नहीं है। शिक्षित होकर दलित और हाशिए का वर्ग अपने अधिकारों के प्रति सजग हो जाता है। वह अपने मानवीय अधिकारों के साथ सम्‍मान से जीना चाहता है जो वर्चस्‍वशाली वर्ग को मंजूर नहीं है।

पढ़-लिख कर यह लोग अपने लिए बनी योजनाओं के कार्यान्‍वयन की मांग भी सरकार से करने लगते हैं जो कि सरकारी महकमों को स्‍वीकार्य नहीं है। मंशा यही कि न लोग पढ़ पाएंगे और न जागरूक हो पाएंगे, न हमारी बराबरी कर पाएंगे, न अपने अधिकारों के लिए संघर्ष कर पाएंगे। न रहेगा बांस और न बजेगी बांसुरी।

इतना ही नहीं सरकार शिक्षा का भगवाकरण भी कर रही है। कहीं-कहीं तो मनुस्‍मृति के कुछ अंश सिलेबस में पढ़ाए जा रहे हैं। इस देश की सभ्‍यता और संस्‍कृति को आगे बढ़ाने में दलितों और मुसलमानों का भी योगदान रहा है। पर धीरे-धीरे दलितों और मुसलमानों के नायकों को धीरे-धीरे इतिहास से हटाया जा रहा है। 

तात्‍पर्य यह है कि आज भारतीय समाज के जो हालात हैं उससे साफ़ है कि यह समाज फिर मनुस्मृति की ओर लौट रहा है। जिसका सावित्री बाई आजीवन विरोध करती रहीं। कवि, पत्रकार और शायर मुकुल सरल अपनी कविता की पंक्तियों में कहते हैं :

दिनों-दिन हो रहे हैं और जाहिल

न जाने क्‍या पढ़ाया जा रहा है।

सावित्री बाई फुले, एक ऐसी नेता, जिन्होंने लड़कियों को उस जमाने में शिक्षित करने का बीड़ा उठाया, जब हमारी लड़कियां और महिलाएं कथित परम्पराओं की बेड़ियों में जकड़ी हुई थीं। और आज जो लड़कियां शिक्षित हो रही हैं उसका श्रेय भी सावित्री बाई फुले तथा उनके जीवन साथी ज्योतिबा फुले और उनकी सहयोगी फातिमा शेख को जाता है।

सावित्री बाई ने लड़कियों की शिक्षा के लिए, उनके मानव अधिकारों के लिए जितना संघर्ष किया उसकी तुलना नहीं हो सकती पर विडंबना देखिए कि उनके जन्मदिन को “शिक्षक दिवस” के रूप में नहीं मनाया जाता जबकि वह इसकी सही मायने में हकदार हैं।

सावित्री बाई को क्रांतिज्योति की उपाधि दी जाती है। यह सही भी है। उन्होंने अपने सामाजिक कार्यों से समाज में क्रांति ला दी थी। फुले दम्पति ने विषम परिस्थियों से जूझते हुए समाज सुधार के काम किए। उन्होंने गर्भवती विधवा महिलाओं की प्रसूति का प्रबंध किया।

तत्कालीन समाज जिन्हें कुलटा कह कर उनका उपहास किया करता था, उससे उन्हें बचाते हुए इज्जत और गरिमा से जीने के लिए प्रोत्साहित किया। इसके लिए समाज से उन्हें क्या-क्या न सुनना पड़ा। उन्हें अपमानित होना पड़ा। फिर भी उन्होंने हिम्मत नहीं हारी और निरंतर समाज हित में काम करते रहीं।

सावित्री बाई ने मात्र 17 साल की उम्र से शिक्षिका की भूमिका निभाई। उन्‍होंने अनेक समाज सुधार के काम किए।

मनुवादी संस्कृति के कारण उन दिनों लड़कियों-स्त्रियों के लिए शिक्षा का निषेध था। सामाजिक मान्यताओं के अनुसार स्त्रियों की शिक्षा पाप कर्म माना जाता था। ऐसे में स्त्री शिक्षा की वकालत करना और उन्हें पढ़ाने की पहल करना एक दुष्कर कार्य था। पर फुले दम्पति के पास धारा के विरुद्ध जाने का साहस था।

हमें साबित्री बाई फुले की सहयोगी फातिमा शेख के सामाजिक योगदान को भी नहीं भूलना चाहिए। संकट के उन दिनों में फातिमा शेख ने फुले दम्पति को सहारा दिया। आश्रय दिया। और सावित्री बाई के साथ-साथ स्वयं भी शिक्षिका की भूमिका निभाई।

वे अंत तक उनके कंधे से कंधा मिलाकर उनका साथ देती रहीं। इस तरह शिक्षा की इस क्रांति में सावित्री बाई के साथ-साथ ज्योतिबा फुले और फातिमा शेख ने भी महत्वपूर्ण भूमिका निभाई। सावित्री बाई के साथ उनके योगदान को भी सदैव याद किया जाना चाहिए।

सावित्री बाई का जन्म 3 जनवरी 1831 को नायगांव में (वर्तमान में महाराष्ट्र के सतारा जिले में ) एक किसान परिवार में हुआ था। उनके पिता का नाम खन्दोजी नेवसे और माता का नाम लक्ष्मी था। सावित्री बाई फुले का विवाह 1840 में ज्योतिबा फुले से हुआ था।

1852 में उन्होंने बालिकाओं के लिए एक विद्यालय की स्थापना की। सावित्रीबाई फुले भारत की पहली बालिका विद्यालय की पहली प्रिंसिपल और पहली कन्या स्कूल की संस्थापक थीं। उन्हें महिलाओं और दलित जातियों को शिक्षित करने के प्रयासों के लिए जाना जाता है।

ज्योतिराव, जो बाद में ज्योतिबा के नाम से जाने गए सावित्रीबाई के जीवन साथी ही नहीं बल्कि संरक्षक, गुरु और समर्थक थे। सावित्रीबाई ने अपने जीवन को एक मिशन की तरह जीया जिसका उद्देश्य था विधवा विवाह करवाना, छुआछूत मिटाना, महिलाओं की मुक्ति और दलित महिलाओं को शिक्षित करना।

सावित्री बाई समाज सेविका के साथ-साथ एक कवि भी थीं। उन्हें मराठी काव्य का अग्रदूत माना जाता है। उन्होंने अपनी कविताओं के माध्यम से लोगों को जागरूक करने का प्रयास किया। उन्हें शिक्षा का महत्व समझाया। स्त्री अधिकारों की वकालत की। लैंगिक समानता का मुद्दा उठाया। वे स्त्रियों को समाज में बराबरी का दर्जा दिलाने के लिए आजीवन संघर्ष करती रहीं।

आज आवश्‍यकता इस बात की है कि सावित्री बाई फुले से प्रेरणा लेते हुए हम अपने बच्‍चों को उच्‍च शिक्षित करें और उन्‍हें सावित्री बाई की तरह समाज सुधार का नेतृत्‍व करने और दलित और वंचित समुदाय के बच्‍चों को शिक्षित करने के लिए प्रेरित करें। यही सावित्रीबाई फुले की लिए सच्‍ची आदरांजलि होगी।

उन्‍हें उनकी ही कविता की कुछ पंक्तियों से याद करते हुए अपनी बात समाप्‍त करता हूं :

जाओ जाकर शिक्षा पाओ

बनो परिश्रमी और स्‍वनिर्भर

काम करो और धन कमाओ

बुद्धि का तुम करो विकास

धर्म शास्‍त्रों को दो त्‍याग

जाओतोड़ो जाति की बेड़ी

जाओ, जाकर शिक्षा पाओ

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