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इतनी दूरी क्यों है किताबों और स्त्रियों के बीच

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सुजाता
स्त्रियों का लिखने-पढ़ने का संसार विकसित हुए बहुत दिन नहीं हुए। यह सवा सौ साल पुरानी ही बात है कि राससुंदरी देवी छिप-छिपाकर अक्षर ज्ञान हासिल करने की कोशिश कर रही थीं। जिस रसोई में वह सारा दिन खटा करती थीं, वहीं रामायण रखी जाती थी। पति उसे उठा ले जाते थे, पढ़ते थे फिर वापस वहीं रख देते थे। क्या है यह किताब, इसमें लिखा हर अक्षर राससुंदरी देवी के लिए अनजाना, अनचीन्हा क्यों है? आखिर उन्होंने घरवालों से छिपकर बच्चों की किताबों से लिखना-पढ़ना सीखा, वह भी तब, जब यह अंधविश्वास प्रचलित था कि पढ़ने वाली स्त्रियों के पति मर जाते हैं।

पढ़ने की प्रिविलेज
मचलाऊ लिखना सीख कर उन्होंने अपनी आत्मकथा आमार जीबोन (1876) लिखी। इसमें वह बताती हैं कि लड़की होने की वजह से उन्हें न पढ़ने दिया गया और न ही अपनी मां के अंतिम समय में उनके पास जाकर अपना मानवीय कर्तव्य पूरा करने दिया गया। वह लिखती हैं, ‘जब मेरा पहला बच्चा जन्मा, मैं अठारह की थी। और जब आखिरी बच्चा जन्मा तब इकतालीस की। सिर्फ भगवान जानता है कि इन 23 सालों में मैं किस हालात से गुजरी हूं। किसी को भी इसका अनुमान नहीं हो सकता।’ आज हम शिक्षित और सुविधाओं की दृष्टि से बहुत हद तक बेहतर जीवन जीने वाली स्त्रियां क्या इस टीस का अंदाजा लगा सकती हैं? और जब राससुंदरी देवी इस बात पर थोड़ा संतोष व्यक्त करती हैं कि कम से कम अब माता-पिता लड़कियों को पढ़ा रहे हैं तो क्या आज हम अपने प्रिविलेज के बारे में सोच रहे हैं कि कायदे से इसका क्या करना चाहिए?

तो कौन समझेगा
रूसी कवि मरीना स्विताएवा अकेली ही तीन बच्चों को पाल रही थीं। एक बच्ची लगातार बीमार रहती थी, दूसरी को आर्थिक संकट के चलते अनाथालय भेजना पड़ा, जहां उसकी मौत हो गई। ऐसे में मरीना को महीनों कलम छूने को भी न मिलती थी, कविता लिखना दूर की बात। लिखने के लंबे-लंबे अंतराल उन्हें तड़पा देते थे। इस तड़प को हम स्त्रियां आज नहीं समझेंगी तो कौन समझेगा! कौन समझेगा कि शिक्षा की अलख जगाने के लिए सावित्रीबाई फुले को समाज का जो विरोध झेलना पड़ा, वह कैसा रहा होगा! कहते हैं सावित्रीबाई पढ़ाने निकलती थीं तो रूढ़िवादी लोग रास्ते में उन पर गोबर और कीचड़ फेंकते थे। स्कूल पहुंचकर वह साड़ी बदलतीं, फिर पढ़ातीं।

पुरखिनों का संघर्ष
पंडिता रमाबाई ने हिंदू विधवाओं के लिए शारदा सदन नाम से बोर्डिंग स्कूल खोला ताकि जिन बाल-विधवाओं को उनका परिवार मुफ्त का गुलाम या मुसीबत समझता है, समाज लानतें देता है, उन्हें शिक्षा की रोशनी दी जा सके। इसके लिए उन्हें पुणे के प्रबुद्ध, ताकतवर ब्राह्मण नेताओं और प्रगतिशील समाज सुधारकों का भी विरोध झेलना पड़ा। ऐसी तमाम पुरखिनों का संघर्ष सिर्फ इसलिए था कि स्त्री-जाति सदा सदा के लिए अज्ञान के अंधेरों में न भटकती रहे। उनका जीना-मरना हमेशा सिर्फ दूसरों के लिए न हो। उनका एक व्यक्तित्व हो, समझदारी हो, अपने स्वतंत्र विचार हों और उनका जीवन भी राष्ट्र और समाज के निर्माण में उपयोगी हो।

सिरहाने नहीं किताब
दिल्ली में विश्व पुस्तक मेला चल रहा है, जो कोविड के दो साल बाद आया है। हिंदी और भारतीय भाषाओं में, अंग्रेजी और अन्य विदेशी भाषाओं का विविध लेखन उपलब्ध है। स्त्री-विमर्श पर ढेरों किताबें हैं। लेकिन इन मेलों से अपने लिए किताबें ले जाने वाली स्त्री-पाठक कितनी हैं? बच्चों की उंगली पकड़े कुछ स्त्रियां बाल-साहित्य खरीद रही हैं। क्या वे अपने सिरहाने रखने के लिए किताबें भी खरीद रही हैं, जिनकी चंद पंक्तियां पढ़कर वे सोएं?

एक फिल्म में दृश्य था कि डायरी लिखती स्त्री आहट से जब चौंकती है, पति पूछता है- औरत का निजी क्या होता है? यह सवाल उन सब स्त्रियों से है, जिनकी पिछली पीढ़ियों की स्त्रियों ने इसलिए संघर्ष किए कि किसी औरत का पढ़ना-लिखना सहज हो जाए, किसी की आंख को खटके नहीं। यह हम पर है कि इस धरोहर को कैसे संजोएं। सिर्फ नौकरी या अच्छी शादी के लिए पढ़ें या ज्ञान और विचार की तड़प के लिए भी!

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