मिर्जा ग़ालिब का मशहूर शेर है-
दिल-ए-नादां तुझे हुआ क्या है
आखिर इस दर्द की दवा क्या है
दर्द की दवा क्या है? इस पर बाद में बात करेंगे। अभी जरूरी है दवा के दर्द पर चर्चा करना। एक प्रिंसिपल साहिबा का फोन आया। कहने लगीं कि यह तो बड़ी गलत बात हुई कि डॉक्टरों को जेनरिक दवा लिखने की हिदायत का फैसला ही वापस ले लिया गया। उन्होंने अपने पति की दवाओं का उदाहरण देते हुए बताया कि जो दवाएं उन्हें जन औषधि केंद्र में दो हजार की मिलती हैं, वही बाहर छह-सात हजार की पड़ती हैं और अगर डॉक्टर ने उसी कंपाउंड की कोई ब्रैंडेड दवा लिख दी तो बिल आठ-नौ हजार रुपये तक पहुंच जाता है।
हाल ही में नैशनल मेडिकल कमिशन ने डॉक्टरों के जेनरिक दवा ही लिखने की अनिवार्यता से जुड़े अपने फैसले पर रोक लगा दी है। यह फैसला इंडियन मेडिकल असोसिएशन और इंडियन फार्मास्यूटिकल अलायंस की चिंताओं के मद्देनजर हुआ। काफी डॉक्टरों को यह लग रहा था कि जेनरिक दवाओं की गुणवत्ता अच्छी नहीं होती। दिलचस्प बात यह है कि देश दुनिया की बड़ी-बड़ी फार्मा कंपनियां ही ब्रैंडेड दवा भी बनाती हैं और जेनरिक भी। दोनों ही दवाओं में एक जैसे कंपाउंड होते हैं और बनाने का तरीका भी एक ही होता है। सारे के सारे क्वॉलिटी स्टैंडर्ड भी एक जैसे ही होते हैं और उनकी निगरानी के तंत्र भी। फिर आखिर जेनरिक दवाओं की गुणवत्ता पर सवाल क्यों। आखिर इतने किंतु, परंतु क्यों हो रहे हैं।
थोड़ा और समझने के लिए सरकार के उस फैसले की बात करते हैं, जिसे फिलहाल रोक दिया गया है। इस फैसले में कहा गया था कि डॉक्टर सिर्फ जेनरिक दवाएं ही लिखेंगे। ऐसा न करने पर लाइसेंस को कुछ समय तक सस्पेंड करने जैसी सजा भी दी जा सकती है। साथ ही, फार्मा कंपनियों से गिफ्ट लेने और उनकी ओर से प्रायोजित सम्मेलनों में भाग लेने पर भी रोक लगा दी गई थी। इस फैसले की जरूरत इसलिए पड़ी थी, क्योंकि फार्मा कंपनियों और डॉक्टरों के बीच होनेवाली डील्स को लेकर काफी शिकायतें थीं। पर्चे लिखने और कट कमिशन की बात बहुत आम थी। असल में जो जेनरिक दवा आप को दो रुपये की पड़ती है, वही ब्रैंडेड दवा अठारह-बीस रुपये तक की हो सकती है। ब्रैंडेड और जेनरिक के बीच के मोटे फर्क को यूं समझा जा सकता है कि जिन दवाओं की पेटेंट अवधि बीत जाती है, उनके फॉर्म्युले और उसी कंपाउंड की दवा कोई भी बना सकता है। वो सस्ती होती हैं। बड़ी-बड़ी कंपनियां अपनी ब्रैंडेड और जेनरिक दवाएं दोनों ही बनाती हैं। अब समझने वाली बात यह है कि फार्मा कंपनियों और डॉक्टरों को इससे दिक्कत क्या है?
मसला दवा इंडस्ट्री की कुछ विसंगतियों की वजह से उलझा हुआ है। सबसे बड़ी समस्या जेनरिक दवाओं की एमआरपी ब्रैंडेड दवाओं जैसी ही छपी होती है। यानी दवा दो रुपये की होती है, लेकिन उस पर चौदह से बीस रुपये के बीच कुछ भी हो सकता है। थोक कारोबारियों को जेनरिक दवा एमआरपी पर नहीं, बल्कि असली दाम यानी दो रुपये में ही मिलती है। इसका फायदा कंपनियों को कम, थोक कारोबारियों और केमिस्टों को ज्यादा होता है। जन औषधि केंद्रों में लोगों को दवा इसीलिए सस्ती मिलती है, क्योंकि वहां सही दामों पर मिलती है न कि एमआरपी पर। पहले सरकार को यही शिकायतें मिली थीं कि डॉक्टर ब्रैंडेड दवाएं इसलिए लिखते हैं, ताकि इससे कंपनियों को फायदा हो। इसके बदले में कंपनियां उन्हें तरह-तरह से उपकृत करती हैं।
नैशनल मेडिकल कमिशन ने पहले ब्रैंडेड लिखने पर रोक लगाकर जेनरिक की अनिवार्यता की थी। इससे यकीनन आम लोगों को बहुत फायदा होता और दवाएं सस्ती होतीं। अब फिर वही पुरानी स्थिति आ गई है। सरकार को समझना होगा कि सस्ती और अच्छी दवाएं इस देश के गरीबों की जरूरत है। दवाओं से जुड़ी दुविधाओं के इस वक्त पर जौन एलिया का यह शेर और बात खत्म कि-
दलीलों से दवा का काम लेना सख्त मुश्किल है
मगर इस ग़म की खातिर ये हुनर भी सीखना होगा