अग्नि आलोक
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कायरता का ही एक रूप है दुष्टता 

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           राजेंद्र शुक्ला, मुंबई

      रोग होने पर इलाज करने की अपेक्षा उसे होने देने के कारणों की रोकथाम करना अधिक बुद्धिमत्तापूर्ण है। शत्रु जब दरवाजे पर ही आ पहुँचे उसके बजाय उसे आक्रमण के लिए पैर बढाने से रोक देना अधिक सरल है। 

      दुष्टता को यदि यह जानकारी रहे कि घात चलाना न तो सरल है और न लाभदायक, तो उसकी आकाँक्षा एवं तैयारी ही रुक सकती है। जब सतर्कता की कमी और प्रतिरोध में भीरुता दिखाई पड़ती है, तो आक्रान्ता की हिम्मत बढ़ती है और वह अपने दाँव-पेंच चलाने तथा ताने – बाने बुनने में लग जाता है। सारी स्थिति विपरीत हो और उसे लगे कि अवरोध मौजूद है तथा प्रतिरोधों का सामना करना पड़ेगा तो फिर असुरता की हिम्मत टूटती है।  

      दुष्टता वस्तुतः पहले दरजे की कायरता का ही नाम है। उसमें जो आतंक दीखता है, वह प्रतिरोध के अभाव से ही पनपता है। घर के बच्चे भी जाग पड़ें, तो बलवान चोर के पैर उखड़ते देर नहीं लगती अनाचार पनपने न पाए, इसके लिए आवश्यक है कि सर्व सतर्कता का वातावरण बनाए रखा जाए और व्यक्तिगत साहस एवं सामूहिक सहयोग से इतनी प्रबलता बनाए रखी जाए, जो अनीति को देखते ही उबल पड़े।  

      दुष्टता का भवन कच्ची नींव पर खड़ा होता है। प्रत्यक्ष आक्रमण तो वह तभी करती है, जब सफलता के संबंध में उसे पूरा भरोसा होता है; अन्यथा जरा-सा खटका होते ही सिर पर पैर रखकर उसे भागते ही देखा जाता है। उसका सारा इन्द्रजाल तो छद्म पर ही खड़ा और गढ़ा होता है। भोले-भावुक लोगों को विरोध से विरक्त और रोकथाम में उदास रहने के लिए तरह-तरह के दार्शनिक प्रतिपादन प्रस्तुत किए जाते हैं।

       सन्त एवं परमहंस कितने उदार होते हैं और दुराचारियों पर भी कितनी दया करते तथा क्षमा दिखाते हैं। इसके लिए सन्त द्वारा पानी से बिच्छू बार-बार बाहर निकालने, काटने, फिर बाहर निकालने के उदाहरण को बार-बार दोहराते हैं। 

      ईसा ने किसी दुराचारिणी को पत्थर मारने से इसलिए रोका था कि जिसने वैसा न किया हो, वही पत्थर मारे। यह उच्चस्तर आदर्श उन्हीं महात्माओं की महिमा को बढ़ा सकते हैं, लोकनीति नहीं बन सकते। यदि वैसा होने लगे तो फिर अपराधियों को खुली छूट मिल जाएगी और वे क्षमा की दुहाई देकर दिन-दूनी रात चौगुनी दुष्टता पर उतारू होते रहेंगे। इस ढाल के नीचे अपनी सुरक्षा करते हुए दूसरे हाथ से निश्चिततापूर्वक तलवार चलाते रहेंगे।

      क्षमा एवं उदारता निस्सन्देह श्रेष्ठ प्रवृत्तियाँ हैं, किन्तु उन्हें भी अविवेकपूर्वक कहीं भी, किसी भी स्तर पर प्रयोग में लाना गलत है। क्षमा इसलिए स्तुत्य है कि उसके कारण भूल से गलत मार्ग पर पड़े व्यक्ति को सुधार का अवसर मिल जाता है। व्यक्ति अज्ञानवश अनीति करने लगता है। जब उसे समझ आती है, तो वह उससे विरत होना चाहता है।

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