देवी प्रसाद
उम्मीदों के ‘विजय रथ’ पर सवार अखिलेश यादव चल पड़े हैं. यह बिना सोचे कि क्या होगा अगर मंजिल कदम चूमने से इनकार कर देगी लेकिन यह तो तय है कि वे एक बेहतरीन सफ़र की यादें जरूर साथ लेकर जायेंगे. कभी ‘एमवाई’ (मुस्लिम + यादव) सूत्र पर चलने वाली समाजवादी पार्टी के राष्ट्रीय अध्यक्ष अखिलेश यादव आज भाजपा की तीव्र आक्रामकता के कारण अल्पसंख्यक मुसलमानों के हितों पर बोलने से कतरा रहें हैं. विकास की गंगा बहाने के वादे के साथ-साथ, कभी वह विष्णु नगर बसाने की बात करते हैं, तो कभी पूर्वांचल एक्सप्रेस-वे के किनारे 108 फीट ऊंची परशुराम की मूर्ति लगवाने की बात करते हैं.
सामाजिक चिंतक जुबैर आलम के अनुसार, ‘मुस्लिम विरोध के लिए प्रसिद्ध हिन्दू यूवा वाहिनी के नेता सुनील सिंह आदि को पार्टी में शामिल कर रहे हैं ताकि बहुमत को खुश किया जा सके. समाजवादी पार्टी के संस्थापक मुलायम सिंह यादव इस (विकासवादी) फ्रेम में अनफ़िट थे. इसीलिए विकासवादी कहे जाने के बजाय मुल्ला मुलायम कहे गए. अखिलेश यादव को अपनी पिता की छवि से मुक्ति पाने की जल्दी है. इसलिये वह पुराने सांचों को तोड़ रहे हैं.
दलित-बहुजन मतदाता इस बार किसके साथ खड़े हैं ?
मान्यवर काशीराम और मुलायम सिंह यादव के जन-आंदोलन के बाद से ही सामाजिक न्याय की तलाश में अधिकांश दलित-बहुजन मतदाताओं ने कभी समाजवादी पार्टी का साथ दिया, तो कभी बहुजन समाज पार्टी के साथ जाना पसंद किया. लेकिन ‘अच्छे दिन’ की लालसा के साथ 2014 के लोकसभा के चुनाव के समय से गैर-यादव पिछड़ी जातियां और गैर-जाटव अनुसूचित जातियों के बहुसंख्यक मतदाताओं ने भाजपा का दामन थाम लिया है. अब जातीय जनगणना, आरक्षण, विकास, मंहगाई और ‘उचित सम्मान’ के नाम पर अखिलेश यादव दलित-बहुजन समाज को सफलतापूर्वक अपनी तरफ़ आकर्षित करते नजर आ रहे हैं, जिसकी एक बानगी विजय यात्रा में उमड़ती भीड़ में देखा जा सकता है.
कौन कहता है कि आसमां में सुराख नहीं हो सकता, एक पत्थर तो तबीयत से उछालो यारों! समाजवादी पार्टी के राष्ट्रीय अध्यक्ष, हिंदी साहित्य के मशहूर कवि दुष्यंत कुमार की इन पंक्तियों को चरितार्थ करते नजर आ रहे हैं. पार्टी के इस युवा चेहरे के लिए चुनौतियां उस समय शुरू हुई, जब समाजवादी पार्टी के संरक्षक मुलायम सिंह यादव ने उन्हें पार्टी से निष्कासित कर दिया था. एक समय ऐसा भी आया जब वे कार्यकर्ताओं को संबोधित करते हुए अखिलेश यादव आंसू बहाते हुए नजर आये थे.
पार्टी में पारिवारिक कलह का वह दौर अब जा चुका है तथा अब दुःख के काले बादल छंट चुके हैं और चाचा शिवपाल यादव भी साइकिल की नई रफ्तार देखकर पुराने राजनीतिक द्वंद को भूलकर विजय रथ पर सवार हो गए हैं, जिसके कारण उत्तर प्रदेश में राजनीतिक सरगर्मियां और तेज हो गई हैं.
ऐसे में सवाल उठता है कि अखिलेश यादव की नई सोशल इंजीनियरिंग की काट खोज पाना, क्या भाजपा के लिए बहुत आसान होगा? आजकल चुनावी सभाओं में अखिलेश यादव जाति जनगणना करवाने की बात करते नजर आतें हैं, जिस पर कांग्रेस और बीजेपी जैसे बड़े राजनीतिक दल चुप्पी साधे हुए हैं. बीजेपी का सहयोगी दल (निषाद पार्टी) के कार्यकर्त्ता भी वर्तमान सरकार से असंतुष्ट नजर आ रहे हैं, क्योंकि उनकी बहुप्रतीक्षित मांग है कि मल्लाह समुदाय को अनुसूचित जाति की सूची में डाला जाए. ऐसे में अखिलेश यादव ही उनके लिए एक अंतिम विकल्प है.
जातीय जनगणना का मुद्दा
अखिलेश यादव अक्सर चुनावी सभाओं में यह कहते नजर आते हैं कि ‘जिस जाति की जितनी भागीदारी है, उसे उतना ज्यादा सम्मान मिलेगा’. हालांकि, जाति जनगणना करवाने के चुनावी वादों से कई लोग शंका जाहिर करते हैं, क्योंकि वर्ष 1990 के दशक से ही उत्तर प्रदेश में पिछड़े वर्ग से आने वाले रहनुमाओं की सरकारें बनती आई हैं, लेकिन किसी ने भी जातीय जनगणना को लेकर कोई पहल नही की. इसलिए आज बहुजन समाज के मन में यह प्रश्न उठना लाजमी है कि क्या अखिलेश यादव मान्यवर कांशीराम के बताए सामाजिक न्याय के रास्ते ‘जिसकी जितनी संख्या भारी, उसकी उतनी हिस्सेदारी’ पर चलने को उत्सुक हैं या गैर-यादव पिछड़ी जातियों मौर्य, कुशवाहा, केवट, कोईरी, गड़ेरिया, नाई, कुर्मी, निषाद, कश्यप, बिंद, केवट, राजभर, आदि को लुभाने की यह एक चुनावी कोई नई चुनावी कवायद है.
छोटी पार्टियों के महासमागम के पीछे आर्थिक हित
अखिलेश यादव कहते हैं ‘सब आएं, सबको स्थान और सबको सम्मान’ मिलेगा. जहां एक तरफ़, पश्चिमी उत्तर प्रदेश के कासगंज, फिरोजाबाद, और आगरा में प्रभाव रखने वाला महान दल, जाट समाज में पैठ रखने वाला जयंत चौधरी का राष्ट्रीय लोकदल अखिलेश यादव के सोशल इंजीनियरिंग की पाठशाला को मजबूती प्रदान कर रहा है. वहीं दूसरी तरफ़, ओमप्रकाश राजभर की सुहेलदेव भारतीय समाज पार्टी, डा. संजय सिंह चौहान की जनवादी (सोशलिस्ट) पार्टी, कृष्णा पटेल की अपना दल (कमेरावादी), पॉलिटिकल जस्टिस पार्टी के राजेश सिद्धार्थ, लेबर एस पार्टी के राम प्रकाश बघेल, अखिल भारतीय किसान सेना के राष्ट्रीय अध्यक्ष राम राज सिंह पटेल, जैसे तमाम नेताओं और संगठनों के साथ अखिलेश यादव जातीय समीकरणों और उनके हितों को ध्यान में रखते हुए कदम बढ़ा रहे हैं.
निषाद समाज का प्रमुख व्यवसाय नाव चलाना तथा नदियों से बालू निकलना हुआ करता था. योगी सरकार के खनन विभाग ने उस पर रोक लगा दी, जिसके कारण निषाद जातियों का रोजगार छिन गया. इस जाति की बहुप्रतीक्षित मांग सरकारी नौकरियों में अनुसूचित जाति के कोटे के अंदर आरक्षण पर योगी सरकार ने कोई सार्थक कदम नहीं उठाया. हालांकि, बीते दिनों 17 दिसंबर को गृहमंत्री अमित शाह ने लखनऊ में बीजेपी और निषाद पार्टी की संयुक्त रैली में निषाद समाज की समस्याओं के समाधान की घोषणा की थी. मगर अमित शाह ने इस ज्वलंत मुद्दे पर कुछ नही बोले, ऐसे में इस जाति के कई संगठनों ने विरोध प्रदर्शन भी किया.
संयुक्त पिछड़ा वर्ग छात्र संगठन के संस्थापक मुलायम यादव कहते हैं, ‘अगर जाति के आधार पर समान भागीदारी सुनिश्चित करना कोई सरकार करना चाहती है, तो उसे वर्ष 1931 में हुई जनगणना ही एक मात्र सहारा होती है. इसलिए सामाजिक न्याय की संकल्पना को वास्तविक रूप देने के लिए दक्षिण भारत के राज्यों की तरह उत्तर प्रदेश में भी जनगणना होनी ही चाहिए.’ कई अन्य ओबीसी संगठनों के सदस्यों की राय कमोबेश एक जैसी है. उनका तर्क है कि कांग्रेस और भाजपा जैसी बड़ी राजनीतिक पार्टियों को सवर्ण जातियों का वोट बैंक खिसकने का डर बना रहता है, इसलिए वे इस मुद्दे पर चुप्पी साधने में ही अपनी भलाई समझती हैं. हैदराबाद विश्वविद्यालय में शोध छात्र तथा ओबीसी संगठन के प्रतिनिधि किरण कुमार गौण का मानना है कि ‘अगर अखिलेश यादव सत्ता में आने के बाद जाति आधारित जनगणना करवातें हैं तो सरकारी नौकरियों और शिक्षण संस्थानों में तमिलनाडु की तर्ज पर अन्य पिछड़ा जातियों के लिए नौकरियों तथा शिक्षण संस्थानों में कोटा बढाना पड़ सकता है.’
जनता से संवाद
अखिलेश यादव के विजय यात्रा में युवाओं की भीड़ अधिक नजर आती है, जिनसे संवाद करना भी वे बखूबी सीख चुके हैं. युवाओं पर फूल बरसाते हुए कहते हैं कि ‘बड़ों का हाथ, युवा का साथ है, नई हवा है – नई सपा है’. अधिकांश चुनावी पंडितों का मानना है कि उत्तर प्रदेश का आगामी विधान सभा (2022) चुनाव का ध्रुवीकरण समाजवादी पार्टी बनाम भारतीय जनता पार्टी के बीच हो चुका है. कांगेस और बहुजन समाज पार्टी जैसी बड़ी राष्ट्रीय राजनीतिक पार्टियां आज तीसरे स्थान पर जगह बनाने के लिए संघर्ष करती प्रतीत हो रही हैं. इस सफलता के पीछे अखिलेश यादव की नई रणनीति को नजरंदाज नहीं किया जा सकता है. आज अखिलेश यादव यह जान चुके हैं की ‘काम बोलता है’ जैसे पुराने नारे के भरोसे आगामी विधानसभा चुनाव (2022) को फतह करना आसान नहीं होगा. इसलिए पिछड़ी जातियों के नेताओं के साथ-साथ सत्ता पक्ष के असंतुष्ट नेताओं के लिए भी लिए अपना राजनीतिक दरवाजा खोल रखा है.
जहां एक तरफ़, अखिलेश यादव के नेतृत्व में बहुजन समाज पार्टी के आधे से अधिक विधायक समाजवादी पार्टी में जा चुके हैं तथा दलित मतदाताओं में पैठ रखने वाले योगेश वर्मा इंद्रजीत सरोज, मिठाई लाल भारती, त्रिभुवन दत्त आदि स्थानीय नेताओं को समाजवादी पार्टी में शामिल भी किया गया. वहीं दूसरी तरफ़, पूर्वी उत्तर प्रदेश के ब्राह्मण समुदाय में गहरी पैठ रखने वाले गणेश पाण्डेय, माता प्रसाद पाण्डेय, शिवाकांत ओझा आदि लोकप्रिय नेताओं को भी साईकिल पर सवार होने का मौका दिया गया. आज भाजपा से असंतुष्ट ये स्थानीय नेता चुनावी जनसभाओं में बीजेपी द्वारा ब्राह्मण समाज पर की गई ज्यादतियों को याद दिलाना नहीं भूलते तथा अखिलेश यादव को ब्राह्मणों का सच्चा साथी बताते हैं.
परिणाम
‘सबको समाजवादी पार्टी में उचित सम्मान दिया जायेगा’ जैसे राजनीतिक स्लोगनों से आज अखिलेश यादव उत्तर प्रदेश में सामाजिक न्याय की राजनीति को एक नई धार देते नजर आते हैं तथा कागज़ी व तथा कथित पिछड़े नेताओं से सजग रहने की सलाह देते हैं. प्रधानमंत्री भी स्वीकार कर चुके हैं कि ‘लाल टोपी’ (समाजवादी पार्टी) का बढ़ता जनाधार भाजपा के लिए एक ‘रेड सिग्नल’ है. अगर मोदी सरकार सत्ता में पुनः वापसी करना चाहती है तो उसे उत्तर प्रदेश को फतह करना ही होगा. नरेंद्र मोदी के दर्जनों दौरे इस बात का संकेत दे रहे हैं कि योगी सरकार शिक्षा, रोजगार, स्वास्थ जैसे महत्वपूर्ण मुद्दों पर असफ़ल रही है. कभी गोरखपुर के सरकारी अस्पताल में हुए मासूम बच्चों की मौत अख़बारों की मुख्य हेडिंग बनी तो कभी गंगा में तैरती लाशें. कई राज्यस्तरीय परीक्षाओं में पेपर लीक की घटनाएं भी हुई तथा उत्तर प्रदेश में पिछड़े वर्ग को मिलने वाले आरक्षण के साथ छेड़छाड़ किया गया. जिसका परिणाम यह हुआ कि उत्तर प्रदेश के पंचायत चुनावों में समाजवादी पार्टी को भारी जीत मिली, जिसे योगी सरकार सिर्फ डैमेज कंट्रोल करने में लगी रही.
पिछले पांच वर्षों में कांग्रेस और बहुजन समाज पार्टी भी काफ़ी निष्क्रिय दिखी. इसलिए इन राजनीतिक दलों द्वारा किए जा रहे लोकलुभाव वादे भी जनता को रास नजर नहीं आ रहे हैं तथा उनका वोट बैंक भी खिसकता नजर आ रहा है. जिस पर तंज कसते हुए अखिलेश यादव कहते हैं कि ‘गठबंधन का लाभ अब मिलना शुरू हुआ है’. जहां एक तरफ़, ओमप्रकाश राजभर को पूर्वी उत्तर प्रदेश में परचम लहराने की जिम्मेदारी सौपी गई है. वहीं दूसरी तरफ़, पश्चिमी उत्तर प्रदेश में किसानों के आक्रोश को भुनाने के लिए राष्ट्रीय लोक दल के राष्ट्रीय अध्यक्ष जयंत चौधरी तथा हाल ही में शामिल हुए शिवपाल यादव को महत्वपूर्ण जिम्मेदारी सौंपी गई है.
समाजवादी पार्टी प्रमुख अखिलेश यादव चुनावों सभाओं में यह भी याद दिलाते नज़र आते हैं कि उनकी पिछली सरकार में 18 लाख युवाओं को लैपटॉप दिए गए, लड़कियों को कन्या विद्याधन दिए तथा किसानों को आर्थिक तौर पर मजबूती प्रदान की गई. वे भाजपा को ही अपना प्रमुख राजनीतिक प्रतिद्वंदी मानते हैं, इसलिए योगी सरकार की नीतियों पर भी प्रखर होकर बात करते नजर आते हैं. जहां एक तरफ़, अखिलेश यादव गोरखपुर, हाथरस और उन्नाव की घटनाओं को याद दिलाना नही भूलते. वहीं दूसरी तरफ़, कोरोना महामारी में लचर पड़े स्वास्थ तंत्र पर तंज कसते हुए, गंगा में तैरती हुई लाशों की भी याद दिलाते हैं.
(लेखक हैदराबाद विश्वविद्यालय के समाजशास्त्र विभाग में शोधरत हैं.)