नई दिल्ली: पिछले कुछ सालों से राज्यपाल और राज्य सरकार के बीच तनातनी के मामले बढ़े हैं। इनमें सुप्रीम कोर्ट को हस्तक्षेप तक करना पड़ा है। खासतौर से इस तरह की स्थिति उन राज्यों में देखने को मिली है जहां भारतीय जनता पार्टी (बीजेपी) की सरकार नहीं है। इन राज्यों में राज्य सरकार और राज्यपाल के बीच नोकझोंक सार्वजनिक होती रही है। फिर मामला पंजाब का हो या केरल, तेलंगाना, महाराष्ट्र और तमिलनाडु का। इनके विवाद की जड़ में राज्य विधानसभा से पारित विधेयकों को राज्यपाल की ओर से पारित न किया जाना या इन्हें रोक कर रखना रहा है। सुप्रीम कोर्ट पहले भी राज्यपालों के रुख पर अपनी प्रतिक्रिया दे चुका है। हालांकि, विधानसभा से पारित बिलों को मंजूरी देने पर पंजाब सरकार और राज्यपाल के बीच जारी गतिरोध में शुक्रवार को उसने जैसी नाराजगी जताई, वैसा पहले कभी देखने को नहीं मिला। उसने मामले में जो टिप्पणी और आदेश दिया वह दूसरे राज्यों के लिए भी नसीहत है। यह पूरा मामला आखिर क्या है? सुप्रीम कोर्ट ने शुक्रवार को क्या कहा? इसका अन्य राज्यों पर क्या असर पड़ेगा? आइए, इसे समझने की कोशिश करते हैं।
सुप्रीम कोर्ट ने क्या कहा है?
सुप्रीम कोर्ट ने विधानसभा से पारित विधेयकों को मंजूरी देने पर पंजाब सरकार और राज्यपाल के बीच जारी खींचतान को गंभीर चिंता का विषय बताया है। उसने कहा कि राज्य में जो हो रहा है उससे वह खुश नहीं है। भारत के प्रधान न्यायाधीश डी.वाई. चंद्रचूड़, न्यायमूर्ति जे.बी. पारदीवाला और न्यायमूर्ति मनोज मिश्रा की पीठ ने पंजाब सरकार और राज्यपाल दोनों से कहा है कि देश स्थापित परंपराओं और परिपाटियों से चल रहा है। उनका पालन करने की जरूरत है। सुप्रीम कोर्ट की ज्यादा नाराजगी राज्यपालों के रवैये से है। पीठ ने राज्य विधानसभा से पारित विधेयकों पर सहमति नहीं देने के लिए पंजाब के राज्यपाल से नाखुशी जाहिर की। यह भी कह दिया कि ‘आप आग से खेल रहे हैं।’ साथ ही पीठ ने विधानसभा सत्र को असंवैधानिक करार देने की उनकी शक्ति पर सवाल उठाया। छह नवंबर को कोर्ट ने कहा था कि राज्य के राज्यपालों को इस सच से अनजान नहीं रहना चाहिए कि वे जनता के निर्वाचित प्रतिनिधि नहीं हैं। इसके पहले तेलंगाना राज्य में इसी से मिलते-जुलते मामले में सुप्रीम कोर्ट कह चुका है कि राज्यपाल की सहमति के लिए भेजे गए बिलों को जितनी जल्दी हो सके वापस कर दिया जाना चाहिए। उन्हें रोकना नहीं चाहिए। राज्यपाल की शिथिलता के कारण राज्य विधानसभाओं को अनिश्चित काल तक इंतजार करना पड़ता है।
क्या है पूरा मामला?
जिन-जिन राज्यों में बीजेपी सरकार नहीं है, वहां-वहां बीते सालों में सरकारों और राज्यपालों के बीच गंभीर तनातनी देखने को मिली है। इन राज्यों में सरकारें शिकायत करती रही हैं कि बिलों को मंजूरी देने में देरी की जाती है। पंजाब के मामले में भी वही बात है। राज्य में आम आदमी पार्टी (AAP) की सरकार है। सरकार ने राज्यपाल बनवारीलाल पुरोहित पर विधेयकों को मंजूरी देने में देरी का आरोप लगाया है। इसी सिलसिले में उसने शीर्ष अदालत का रुख किया था। अपनी अर्जी में राज्य सरकार ने आरोप लगाया कि राज्यपाल की असंवैधानिक निष्क्रियता ने पूरे प्रशासन को ठप्प कर दिया। राज्यपाल अनिश्चितकाल तक विधेयकों को रोक नहीं सकते। उनके पास संविधान के अनुच्छेद 200 के तहत सीमित शक्तियां हैं। ये किसी विधेयक पर सहमति देने या रोकने या राष्ट्रपति के विचार के लिए विधेयक को रखने की राजभवन की शक्ति से संबंधित हैं। पंजाब के राज्यपाल का आम आदमी पार्टी सरकार के साथ लंबे समय से विवाद चल रहा है।
क्या राज्यों में सरकार vs राज्यपाल की तनातनी थमेगी?
सुप्रीम कोर्ट के सख्त लहजे को सिर्फ पंजाब के संदर्भ तक सीमित करके देखना गलती होगी। शीर्ष न्यायालय ने पंजाब के राज्यपाल के जरिये ऐसे दूसरे राज्यों के राज्यपालों को भी मैसेज दिया है जहां बीजेपी की सरकारें नहीं हैं। फर्क सिर्फ यह है कि पहले सुप्रीम कोर्ट ने पहले सुझाव की तरह अपनी बात कही थी। लेकिन, पंजाब के मामले में उसने बेहद सख्ती से यह चीज बोली। संविधान के अनुच्छेद 200 का जिक्र करते हुए सुप्रीम कोर्ट पहले कह चुका है कि विधानसभसाओं की ओर से पारित विधेयकों को उन्हें सहमति के लिए भेजने पर राज्यपालों को देरी नहीं करनी चाहिए। जितना जल्दी हो सके उन्हें वापस किया जाना चाहिए। इन्हें अपने पास लंबित रखने का तुक नहीं बनता है।
क्या कहता है अनुच्छेद 200?
अनुच्छेद 200 राज्य की विधानसभा से पारित विधेयक को सहमति के लिए गवर्नर के पास भेजने की प्रक्रिया से जुड़ा है। राज्यपाल ऐसे विधेयक को या तो सहमति दे सकते हैं या फिर रोक सकते हैं। उनके पास बिल को राष्ट्रपति के पास विचार के लिए उसे भेजने का विकल्प भी है। हाल में राज्यपाल और राज्य सरकार के बीच तनातनी के कई उदाहरण हैं। मसलन, तमिलनाडु के राज्यपाल ने नीट से छूट वाले बिल को काफी विलंब के बाद राष्ट्रपति को भेजा था। यहां तक केरल के राज्यपाल आरिफ मोहम्मद खान ने खुलकर ऐलान किया था कि वह लोकायुक्त संधोधन विधेयक और केरल विश्वविद्यालय संशोधन विधेयक को मंजूरी नहीं देंगे। इस कारण अजीबों-गरीब स्थिति पैदा हो गई थी।