कुमार विजय
संसद भवन की नई इमारत अपनी शुरुआत के साथ ही एक एतिहासिक फैसले की गवाह बनती दिख रही है। संसद और विधानसभा में महिला आरक्षण का विधेयक बिना किसी विरोध के पास हो गया है। इस विधेयक के तहत लोकसभा और विधानसभा में 33% महिला आरक्षण पर कैबिनेट की मुहर लग चुकी है। लोकसभा में जिस सहजता से यह विधेयक पास हुआ है उससे तय है कि शेष सदनों में भी यह प्रस्ताव पास हो जाएगा। यह भारतीय राजनीति में महिला हिस्सेदारी के पक्ष में एक बड़ा कदम होने जा रहा है। अब तक की पहल का स्वागत किया जाना चाहिए। इस स्वागत के साथ संसद से यह सवाल भी किया जाना चाहिए कि क्या आरक्षण के भीतर भी आरक्षण की स्थिति साफ की जाएगी या फिर सिर्फ आरक्षण महज विशिष्ट वर्ग की महिलाओं तक ही सीमित रहेगा? यह इसलिए भी जरूरी है क्योंकि आरक्षण के जिस विधेयक को अब मंजूरी मिली है वह पिछले 27 साल से राजनीतिक गतिरोध का शिकार होता रहा है।
सन 1996 में 12 सितंबर को एचडी देवगौड़ा की सरकार ने 81वें संविधान संशोधन विधेयक के रूप में महिला आरक्षण विधेयक को ससंद में पेश किया था। केंद्र में उस समय यूनाइटेड फ्रंट की सरकार थी। यूनाइटेड फ्रंट में 13 पार्टियों का गठबंधन था और सरकार में शामिल जनता दल तथा अन्य कुछेक पार्टियों के नेता महिला आरक्षण के पक्ष में नहीं थे। इस विरोध की वजह से इस विधेयक को सीपीआई की गीता मुखर्जी की अगुवाई वाली संयुक्त समिति के समक्ष भेजा गया।
मार्च 2010 में यह बिल राज्यसभा में पारित होने के बावजूद लोकसभा में पारित न हो पाने की वजह से लैप्स हो गया था। फिलहाल अभी संसद में यह बिल अनुमोदित हो गया है और उम्मीद जताई जा रही है कि राज्यसभा में भी यह प्रस्ताव पास हो जाएगा, जिसकी ठोस वजह यह है कि इस बार इस प्रस्ताव को सत्तारूढ़ गठबंधन एनडीए का जितना समर्थन प्राप्त है उतना ही समर्थन विपक्षी पार्टियों का भी मिल रहा है। फिलहाल अभी तक यह स्थिति साफ नहीं हुई है कि महिला आरक्षण विधेयक पास होने के बाद लागू कब से होगा। क्या आगामी लोकसभा चुनाव में लोकसभा में 33% महिलाओं की भागीदारी सुनिश्चित हो पाएगी। फिलहाल इन बातों का उत्तर मिलने में अभी समय है।
आरक्षण लागू होने की स्थिति में उत्तर प्रदेश में कितना बदलेगी लोकसभा और विधानसभा की स्थिति
उत्तर प्रदेश में लोकसभा की 80 और विधानसभा की 403 सीटें हैं। 33 फीसदी महिला आरक्षण लागू होने की स्थिति में उत्तर प्रदेश में लोकसभा की 26 सीट और विधानसभा की 132 सीट पर महिलाओं पर महिलाओं का कब्जा हो जाएगा। यह निश्चित रूप से एक बड़े बदलाव का आधार बनेगा और राजनीतिक तथा सामाजिक रूप से महिलाओं को ताकतवर बनाएगा। अभी तक मिली जानकारी के अनुरूप यह आरक्षण रोटेशन पद्धति के अनुसार लागू होगा। मौजूदा समय की बात करें तो लोकसभा में महिला सांसदों की संख्या 15 फीसदी से कम और राज्यों की विधानसभाओं में 10 फीसदी से कम हिस्सेदारी है। यूपी विधानसभा में कुल तात्कालिक तौर पर अलग अलग दलों से मात्र 48 महिला विधायक प्रतिनिधित्व कर रही हैं। यह कुल 403 सीटों पर 48 विधायक का अर्थ यह है कि अभी महज 12 फीसदी हिस्सेदारी ही महिलाओं के हिस्से में है। इसी तरह विधान परिषद में मात्र 6 फीसदी हिस्सेदारी ही महिलाओं के हिस्से में है। ऐसे ही लोकसभा में अभी कुल 11 महिला सांसद हैं जो सभी 80 सीटों का 14 फीसदी ही है।
27 साल के संघर्ष के बाद खिला महिलाओं की उम्मीद का फूल
12 सितंबर 1996 को पहली बार पेश होने के बाद यह विधेयक आरक्षण की स्थिति को पूरी तरह से स्पष्ट न कर पाने की वजह से यह विधेयक पुनर्विचार और संशोधन के लिए वापस हो गया था। 16 मई 1997 में लोकसभा में एक बार फिर महिला आरक्षण विधेयक को लाया गया लेकिन सत्तारूढ़ गठबंधन के भीतर ही वापस इसके विरोध में कुछ पार्टियां खड़ी हो गई। विधेयक पर बोलते हुये सत्तारूढ़ गठबंधन के समर्थक ने तीखी टिप्पणी करते हुये कहा था कि ‘इस बिल से सिर्फ पर-कटी औरतों को ही फायदा पहुंचेगा, परकटी शहरी महिलाएं हमारी ग्रामीण महिलाओं का प्रतिनिधित्व कैसे करेंगी’। इस बयान की संसद से लेकर सड़क तक जमकर आलोचना हुई थी पर शरद यादव ने बिना उसकी परवाह किए यह मांग की थी यह आरक्षण तब तक स्वीकार नहीं किया जाना चाहिए जब तक कि आरक्षण के भीतर आरक्षण की स्थिति स्पष्ट नहीं की जाती है। तमाम विरोध की वजह से यूनाइटेड फ्रंट की सरकार इस बिल को पास नहीं कर पाई। बाद में अटल बिहारी बाजपेई के शासनकाल में एनडीए सरकार ने 1998 से 2004 के बीच कई बार महिला आरक्षण विधेयक को पारित कराने का प्रयास किया पर उन्हें भी सफलता नहीं मिल सकी।
वर्ष 1998 में 13 जुलाई को इस बिल को लेकर जमकर हंगामा हुआ। तात्कालिक कानून मंत्री एम थंबी दुरई द्वारा इस विधेयक को सदन के पटल पर पेश करने की कोशिश के दौरान समाजवादी पार्टी और राष्ट्रीय जनता दल के सांसदों ने इस विधेयक के खिलाफ जमकर नारेबाजी की। उनकी मांग भी स्पष्ट थी कि विधेयक को तब तक मंजूर नहीं किया जा सकता जब तक कि इस आरक्षण में जातीय आरक्षण के अनुपात को शामिल नहीं किया जाता। इस प्रस्ताव पर हंगामे के दौरान राष्ट्रीय जनता दल के सांसद सुरेंद्र प्रसाद यादव ने लोकसभा के स्पीकर जी एम सी बालयोगी से बिल की कॉपी छीन कर फाड़ दिया था।
फिलहाल लंबे समय से जारी गतिरोध अब दूर होता दिख रहा है। भाजपा ने अपने चुनावी एजेंडे में 33%आरक्षण की बात कही थी। बाद में कांग्रेस नेता सोनिया गाँधी ने वर्ष 2017 में तथा राहुल गांधी ने सान 2018 में प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी को चिट्ठी लिखकर महिला आरक्षण विधेयक पर अपना समर्थन व्यक्त किया था। समाजवादी पार्टी और राजद के विरोध का ध्यान रखते हुये नए बिल में इस बात का आश्वासन दिया गया है कि आरक्षण के भीतर भी आरक्षण की व्यवस्था लागू की जाएगी। कैबिनेट से पारित 33 फीसद महिला आरक्षण बिल में एससी, एसटी, एंग्लो इंडियन के लिए आरक्षण का प्रस्ताव शामिल है और इसमें प्रस्ताव रखा गया है कि आरक्षण में रोटेशन प्रक्रिया का पालन किया जाए। जिसकी वजह से विधेयक के खिलाफ जाने वाली अब कोई आवाज नहीं दिख रही है। हालांकि छह पन्नों के विधेयक में कहा गया है कि लोकसभा और विधानसभाओं में एक तिहाई सीटें महिलाओं के लिए आरक्षित होंगी और सीधे चुनाव से भरी जाएंगी। साथ ही, कोटा राज्यसभा या राज्य विधान परिषदों पर लागू नहीं होगा। कोटा के भीतर एक तिहाई सीटें अनुसूचित जाति और अनुसूचित जनजाति के लिए होंगी। विधेयक में ओबीसी (अन्य पिछड़ा वर्ग) के लिए आरक्षण शामिल नहीं है, क्योंकि विधायिका के लिए ऐसा कोई प्रावधान मौजूद नहीं है। यही वह मांग थी जिसे लेकर समाजवादी पार्टी और राष्ट्रीय जनता दल (आरजेडी) जैसी पार्टियां दशकों तक महिला कोटा बिल का विरोध करती रहीं।
आरक्षण के भीतर आरक्षण लागू हुआ तो निःसन्देह यह एक बड़ा कदम होगा। इससे सामाजिक न्याय की लड़ाई में महिलाओं की भागीदारी भी सुनिश्चित होगी। लेकिन पिछड़ी जाति इस आरक्षण के भीतर फिलहाल अपना हक़ नहीं तलाश पाएगी। बावजूद आधी आबादी को आरक्षण के तहत हिस्सेदारी मिलना भारत की राजनीतिक, आर्थिक और सामाजिक स्थिति में बड़ा बदलाव लाने वाला कदम साबित होगा।