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मिथक और साहित्य में महिलाएं

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प्रो. उमा चक्रवर्ती

{साहित्य समाज का दर्पण ही नहीं होता, बल्कि प्रेमचंद के शब्दों में यह समाज को राह दिखाने वाली मशाल भी होता है। लेकिन यह बात न केवल प्रगतिशील मूल्यों के लिए सच है बल्कि प्रतिगामी मूल्यों के लिए भी उतनी ही सच है। सीता की कथा हमारे देश में सर्वाधिक सुनी-सुनाई और मंचित की जाने वाली कथाओं में से एक है। भारतीय जनमानस को रूपाकार देने और स्त्री की एक ‘आदर्श’ छवि गढ़ने में इस कथा की महत्वपूर्ण भूमिका रही है। अनेक मिथकों में आए हुए, एक-दूसरे से असम्बद्ध, स्फुट प्रसंगों को जोड़कर एक अत्यन्त प्रभावी महाकाव्य के सुसंगठित कथानक तक इसके विकास के सांस्कृतिक मन्तव्य की पड़ताल करता हुआ प्रो. उमा चक्रवर्ती का यह आलेख प्रस्तुत है। एक बेहतर समाज के निर्माण के लिए सकारात्मक मूल्यों के प्रचार-प्रसार और स्थापना की दिशा में हमारी चित्तभूमि में जड़ जमाए हुए मिथकों से टकराने के मार्ग में दरपेश चुनौतियों की पड़ताल हमारे सांस्कृतिक संघर्ष का एक अहम हिस्सा बनने वाली है।}

भारत के पंरपरागत शास्त्रीय साहित्य के स्त्री-अस्मिता सम्बन्धी मिथकों के क्रम में मुख्यतः स्त्री और पुरुष के सम्बन्ध पति-पत्नी के रूप में केंद्रित किये गये हैं। भारत में जहां ‘अच्छी स्त्री’ अच्छी पत्नी की पर्यायवाची है, वहां स्त्री-सुलभ पहचान के निर्माण में यह काफी प्रासंगिक हो जाता है। यह स्त्रियों से सम्बन्धित सर्वाधिक लोकप्रिय और जाने-माने मिथकों में झलकता है, उदाहरण के लिए सावित्री और सत्यवान की कहानी, नल और दमयन्ती तथा सबसे ऊपर राम और सीता के आख्यान में। अन्य भी, द्रौपदी, गान्धारी अरुन्धती और यहां तक कि अहल्या भी अपने पतियों के संदर्भ में ही देखी गयी।

अतः शास्त्रीय पौराणिक कथाओं में इस नमूने की ज़बरदस्त प्रबलता रही, जिसमें मां और बच्चे के सम्बन्धों के रूपक मुश्किल से आ पाये, बावजूद इसके कि भारत में मातृत्व स्त्री-सुलभ पहचान के लिए महत्वपूर्ण कारक माना जाता है। मां और बच्चे के सम्बन्ध का क्लासिकल मिथकों में केवल एक ही प्रसिद्ध दृष्टान्त हमें मिलता है, वह है- कृष्ण और यशोदा का प्रसंग, जोकि भारत के संगीत, नाटक और साहित्य में बेहद लोकप्रिय रहा, फिर भी मां की जगह कृष्ण ही केन्द्र बिन्दु रहे।

कर्ण और कुन्ती की कथा मां और बेटे का एक आरम्भिक प्रसंग है, लेकिन वास्तव में यह कभी विकसित नहीं हुआ और ‘महाभारत’ के घटनाक्रम में ये काफ़ी गौण और ग़ैरज़रूरी रूप में ही रहे। मां और बेटे के बारे में कोई भी प्रभावकारी मिथक नहीं है, परिणामस्वरूप एक ऐसी स्त्रियोचित पहचान बनी, जिसमें किसी भी स्त्री के लिए उसकी सर्वोत्कृष्ट अभिलाषा अपने पति की ईश्वर के समान सेवा करना और पतिव्रता बने रहना था।

प्रमुख मिथकों ने दृढ़ता के साथ इस संदेश को संप्रेषित किया कि महिलाओं को पवित्र और निष्ठावान होना चाहिए और यदि वे पर्याप्त मात्रा में ये विशेषताएं अपने भीतर रखती हैं, तो उनका यह सदाचार हर मुसीबत में उनकी रक्षा करेगा। पतिव्रता पत्नी का यह प्रशंसनीय समर्पण उसके भीतर एक शक्ति उत्पन्न करता है, जो उसके पति को काल के गाल से भी निकाल सकता है या वह सूर्य की खगोलीय परिक्रमा को भी रोक सकता है। इसका प्रमाण दमयन्ती की कहानी है, जो पांच एक जैसे पुरुषों में से अपने भावी पति नल को पहचान लेती है। ऐसे ही सावित्री के सदाचार और त्याग ने सिद्ध किया कि वह अपनी इच्छा से पति के पीछे-पीछे मृत्युलोक तक जा सकती है, और अन्त में उसे उसके पति सत्यवान का जीवन दोबारा लौटाकर सम्मानित किया गया।

पतिव्रता की ख़ास शक्ति और पत्नी के समर्पण के दूसरे प्रभावशाली उदाहरणों में अरुन्धती का प्रसंग भी है। पातिव्रत पर आधारित पर अपने भीतर की पवित्र शक्ति के कारण उसने सतीत्व को नष्ट करने वालों को छोटे बच्चों में बदल दिया और अपने आप को दूषित होने से बचाया। केवल बेचारी अहल्या इन्द्रदेव द्वारा किये छल को नहीं पहचान पायी, जिसने उसके सतीत्व को नष्ट करने के लिए उसके पति का रूप धारण कर लिया था। अरुन्धती के समान वस्तुतः अहल्या पर्याप्त पवित्र नहीं थी। अतः वह अपने पति और पति का रूप धारण किये व्यक्ति के बीच अन्तर को नहीं समझ पायी। अहल्या की कहानी खासतौर पर महत्वपूर्ण है, क्योंकि कथा के अनुसार उसे पत्थर में बदल जाने की सजा मिली, यद्यपि वह स्वयं शारीरिक अत्याचार की बड़ी शिकार थी।

दूसरी ओर इस उदाहरण के खलनायक ने दूसरे देवताओं को अपनी ओर मिलाकर उनकी सहायता से गौतम ऋषि के श्राप को महत्वहीन कर दिया और आसानी से अपना पिंड छुड़ा लिया। यह कथानक समकालीन भारत में बलात्कार को लेकर समाज के रवैये की वास्तविक स्थिति के अनुरूप ही है। पवित्रता के प्रसंग पर इतनी सनक की एक व्याख्या यह हो सकती है कि अहल्या की कहानी का उदाहरण हमें बताता है कि पैराणिक और शास्त्रीय पाठ पुरुषों के संरक्षित क्षेत्र हैं और इन मिथकों और पाठों के माध्यम से वे वैसी आदर्श स्त्री की रूढ़िवादी छवि को प्रदर्शित करते हैं, जैसा वे उसे देखते हैं।

प्राचीन भारतीय साहित्य के दो प्रमुख ग्रन्थों ‘महाभारत’ और ‘रामायण’ में महिलाओं के कई चित्रण हैं, और ख़ासतौर पर ‘महाभारत’ की महिलाएं ‘रामायण’ की रूढ़िबद्ध छवि की महिलाओं से ज्यादा जटिल और ज़्यादा रोचक हैं। कुन्ती और द्रौपदी मज़बूत महिलाएं, हैं जिनके व्यक्तित्व के कई पहलू हैं। आगे, ‘महाभारत’ की महिलाएं न पवित्र हैं, न ही दब्बू। कुन्ती अपने विवाह से बाहर सूर्य, यम, वायु और इन्द्र के माध्यम से पुत्रों को जन्म देती हैं और ‘महाभारत’ आख्यान के आरम्भिक भाग में वंश अधिकांशतः नियोग प्रथा द्वारा ही विस्तार पाता है। फिर भी, यह जानकारी हो कि नियोग स्वीकार्य था, पर अवैध सम्बन्ध नहीं, इसलिए जायज़ पति की प्राप्ति से पहले प्राप्त हुए पुत्र कर्ण को कुन्ती को त्यागना पड़ा। आगे, जब तक कर्ण मर नहीं गया, तब तक कुन्ती उसकी पहचान को खोल नहीं सकीं, यहां तक कि अपने पुत्रों के सामने भी नहीं। कथानक बताता है कि वास्तव में कुन्ती ने अपने जायज पुत्रों के हितों की रक्षा के लिए कर्ण का बलिदान कर दिया।

द्रौपदी की दन्तकथा भी काफी महत्वपूर्ण है। यह एक पुरुष के प्रति निष्ठा की छवि से बिल्कुल विपरीत है, जोकि शास्त्रीय परंपराओं में महिलाओं के आदर्शीकरण का प्रधान पक्ष है। द्रौपदी की कथा मुख्यतः दिखाती है कि भारतीय समाज के प्रारम्भिक चरण में भ्रातृ बहुपति-प्रथा सामान्य थी। जो भी हो, कुन्ती और द्रौपदी दोनों ही की कहानी ‘महाभारत’ को चमक प्रदान करती हैं। यह खासतौर पर द्रौपदी की विचित्र वैवाहिक व्यवस्था के लिए सत्य है, जो कि पांडवों द्वारा दिये वचन, कि पांचों भाई हर वस्तु बांटेंगे, के अनोखे परिणामस्वरूप बनी।

कुन्ती और द्रौपदी शास्त्रीय पाठों में स्त्री की महत्वपूर्ण छवियां हैं, क्योंकि इन्होंने अपने पुरुषों के साथ एक गतिशील भूमिका अदा की और बहुधा पांडवों के विरोध में युद्ध करने के लिए शब्दों के माध्यम से प्रेरित किया। द्रौपदी चुप नहीं बैठी बल्कि उसने अपने अपमान के दंडस्वरूप पांडवों की भर्त्सना की। कौरवों की सभा में जब उस पर अपना हक जमाने के लिए उसे खींचकर लाया गया, तब भी वह निर्भीक ही रही। उसने राज-सभा में बैठे सभी वरिष्ठों से गुलाम की कानूनी स्थिति के बारे में पूछा कि जब युधिष्ठिर उसे दांव पर लगाने से पहले स्वयं को ही हार चुके हैं, तो वह पहले से ही उस पर अधिकार खो चुके हैं। फिर वह बहस करती है कि उसे दांव पर लगाना ग़ैरक़ानूनी है। कौरवों द्वारा अपमानित होने के बाद वह पांडवों को उनके बन्धन से मुक्त करने की व्यवस्था करती है और पांडवों को अपनी अवमानना और अपमान को लगातार याद दिलाये रखने के लिए अपने बालों को कभी नहीं बांधती।

किन्तु ‘महाभारत’ में महिलाएं जिस छवि के साथ प्रस्तुत होती हैं, उसमें वे एक द्वितीयक छवि में ही रहीं और ‘महाभारत’ की महिलाओं के तेज और सक्रियता के बावजूद उनमें से कोई भी आदर्श भारतीय महिला नहीं बन पायीं। इस सत्यता के साथ इसे व्याख्यायित किया जा सकता है कि ‘महाभारत’ का निर्माण सम्पूर्णता में नहीं हुआ, जबकि दूसरी ओर ‘रामायण’ में सीता के रूप में भारतीय स्त्री की छवि का निर्माण पूरे महाकाव्य में शुरू से आखिर तक किया गया है। ‘रामायण’ की कथावस्तु और विषय-वस्तु सम्बन्धी निरन्तरता के कारण यह पति-पत्नी के सम्बन्ध में एक बड़ी विचारधारात्मक शक्ति है। यह भी कहा जा सकता है कि ‘रामायण’ की पूरी संरचना वास्तव में एक सचेत प्रक्रिया के तहत बुनी गयी है, जिससे पवित्र और सहनशील महिला की प्रभावकारी रूढ़िवादी छवि निर्मित की जा सके, जोकि सीता का मिथक प्रस्तुत करता है।

हिन्दू समाज में स्त्री-पुरुष दोनों के लिए आदर्श महिला का पारम्परिक रूपक सीता का ही दिया जाता है, जिसने ‘रामायण’ में पत्नी के त्याग के सार-तत्व का प्रदर्शन किया। कोई व्यक्ति बचपन से ही धार्मिक और ग़ैर-धार्मिक अवसरों पर न जाने कितनी बार सीता की कथा को सुनता है और उनके द्वारा प्रतीकात्मक आदर्श, स्त्री-सुलभ पहचान-हर दिन के रूपकों और उपमानों के द्वारा जो उनके नाम से जुड़ी है- को अपने भीतर आत्मसात करता है। जब यह अपने पूरे रूप में विकसित होता है, तो सीता का मिथक सतीत्व, पवित्रता और एकनिष्ठ विश्वसनीयता को प्रस्तुत करता है, जो राम की थोड़ी या सम्पूर्ण अस्वीकृति के बाद भी नष्ट नहीं होता।

एक ऐतिहासिक परिदृश्य में सीता की कथा के विकास का विश्लेषण सतीत्व के महत्त्व और इस धारणा को उद्घाटित करता है कि आदर्श विवाह का आधार पत्नी का समर्पण ही हो सकता है। ये इस साधारण कथा के कुछ पहलू हैं, जो इससे जुड़े हैं। शताब्दियों बाद भी, कहानी में जो जरूरी जानकारियां जोड़ी गयी हैं, उनका एक ठोस प्रभाव स्त्री-सुलभ पहचान को आकार देने में है। यदि हम इस विकास को ऐतिहासिक परिदृश्य से जोड़कर देखें या उस सामाजिक या सांस्कृतिक उत्पत्ति को देखें, जिसमें कि कथानक अपना रूप बदलते हैं, तो हम उस सचेत प्रक्रिया को समझने की अन्तर्दष्टि पा सकते है, जिसमें कि स्त्री-सुलभ पहचान को प्रशिक्षित किया जाता है।

‘रामायण’ का सबसे प्राचीन वर्णन ‘दशरथ जातक’ में मिलता है। ‘महाभारत’ के ‘शान्ति पर्व’ में राम के बारे में एक साधारण कथा है। ‘महाभारत’ के इस वर्णन के अनुसार राम एक महान सन्यासी के रूप में वर्णित हैं, जो 14 वर्षों तक जंगल में रहे। इसमें उनके पिता, भाइयों और यहां तक कि उनकी पत्नी सीता तक का कोई जि़क्र नहीं है। उसके बाद राम ने दस हजार वर्ष तक अयोध्या पर शासन किया। ‘दशरथ जातक’ में राम की कहानी बहुत विस्तृत है, पर यह ‘महाभारत’ के प्रारम्भिक वर्णन के अनुरूप ही है।

‘दशरथ जातक’ में राम, सीता और लक्ष्मण का वर्णन दशरथ की बड़ी पत्नी के बच्चों के रूप में किया गया है। उनकी छोटी पत्नी ने मांग रखी कि उसके बेटे भरत कुमार को राजा बनाया जाए। तब से दशरथ अपने बच्चों की सुरक्षा को लेकर चिंतित हो गये और उन्हें घरेलू षडयंत्रों से बचाने के लिए 12 वर्ष के लिए बाहर भेज दिया। कुछ समय बाद राजा दशरथ की मृत्यु हो गयी लेकिन भरत ने सिंहासन का उत्तराधिकारी बनने से इन्कार कर दिया और राम को वापस लाने उनकी कुटिया की ओर चल पड़े। राम ने नियत समय से पूर्व आने से इन्कार कर दिया, पर सीता और लक्ष्मण से लौट जाने को कहा।

छठी शती ईसवी की गद्य-टीका ‘जातक अथकवन्न’ में हमें कुछ और तथ्य मिलते हैं, जिनके अनुसार भरत के आग्रह पर राम ने अपनी चरण पादुकाएं उन्हें दे दीं, जो उनके वापस आने तक सिंहासन पर उनका प्रतिनिधित्व करेंगी। नियत अवधि पूरी होने पर राम वापस आये और राज सिंहासन पर बैठे तथा सीता उनकी प्रमुख रानी बनीं। मुख्यतः यह कहानी निर्वासन की प्रतिज्ञा, जंगल में तपस्या द्वारा प्रतिज्ञा पूरी करना, घर वापस आना और राजत्व स्वीकार करने की कहानी है। सुकुमार सेन के अनुसार राम के मिथक का यह प्राचीनतम रूप है। ‘महाभारत’ के शान्ति पर्व का वर्णन इससे जुड़ा हो सकता है। वे सुझाव देते हैं कि यह वर्णन ‘रामायण की बीज रूप’ है, आगे सेन एक दूसरे मिथक के अस्तित्व का संकेत करते हैं, जिसे वे ‘रावण मिथक’ कहते हैं और उनके अनुसार यह मूल रूप में राम की कथा से नहीं जुड़ा था।

‘रावण मिथक’ का प्राचीनतम रूप हमें जातक के चीनी अनुवाद में उपलब्ध होता है, जिसका समय 251 ईसवी है। इसका नायक एक राजा है, जो बोधिसत्व था और अपने चाचा द्वारा राज्य से बेदखल कर दिया गया था। वह अपनी पत्नी के साथ पहाड़ों पर जाने के लिए विवश कर दिया गया था, वहां उसने एक तपस्वी का शान्त जीवन जिया। एक दिन एक समुद्री दानव तपस्वी के रूप में आया और बोधिसत्य की पत्नी को उठाकर ले गया। बोधिसत्व ने वानरों की सेना के राजा को अपना दोस्त बनाया और वानरों की मदद से उसने अपनी पत्नी को मुक्त कराया। पत्नी ने अपनी पवित्रता को सिद्ध किया और पत्नी-पति एक हो गये। सेन तर्क देते है कि दो भिन्न मिथकों के योग से ‘वाल्मीकि रामायण’ की मूल कथा विकसित हुई है।

‘वाल्मीकि रामायण’ से ही राम की सम्पूर्ण कथा का विस्तार हुआ। इसमें राम की पुरानी गाथा और रावण के मिथक से ग्रहण कर एक महान महाकाव्य का सृजन किया गया, जिसमें राम के भीतर पुरुष-नायकत्व, शौर्य और सम्मान तथा सीता के भीतर नारी-सुलभ आत्म-त्याग, सदाचार, पातिव्रत् और पवित्रता पर बल दिया गया। ‘वाल्मीकि रामायण’ से सीता की नव-उत्पन्न छवि के विश्लेषण से सूचना मिलती है कि यह पाठ इन दो धारणाओं के प्रसार का प्रमुख माध्यम बना कि स्त्रियां पुरुषों की सम्पत्ति हैं और स्त्रियों की यौन-वफादारी उनके जीवन का महान सद्गुण है। जैसा कि हमने देखा है, प्राचीनतम वर्णन में सीता का अपहरण नहीं हुआ था और वह पीड़ित स्त्री-चरित्र भी नहीं थीं, जिसे अपनी पवित्रता सिद्ध करनी पड़ी हो।

मूलकथा के ‘वाल्मीकि रामायण’ के रूप में विस्तार के परिणामस्वरूप कहानी तीन घटनाओं पर घूमती रही, जिसमें से प्रत्येक ने स्त्री को रूढ़िबद्ध बनाकर कलंकित किया। पहली घटना है, राम के निर्वासन की कैकेयी की मांग, दूसरी है- शूर्पणखा का राम से प्रणय-निवेदन, उनके हाथों उसका अस्वीकार और तत्पश्चात् लक्ष्मण द्वारा उसका अंग-भंग करना, और तीसरी है- सीता द्वारा हिरण की मांग और लक्ष्मण द्वारा उन्हें कुटिया में छोड़कर जाने में अनिच्छा दिखाने पर सीता द्वारा अनुचित दोषारोपण करना। अंतिम घटना का परिणाम यह हुआ कि सीता असुरक्षित छूट गयी, जिससे उनका अपहरण हो गया।

वास्तव में ‘वाल्मीकि रामायण’ की कहानी प्रतिपादित करती है कि जीवन सुखद ढंग से चल सकता है, पर स्त्रियों के दुर्गुण या चंचल स्वभाव के कारण यह नहीं हो पाता। इसके अतिरिक्त, ‘रामायण’ कैकेयी और शूर्पणखा जैसी महत्वाकांक्षी और पहल करने वाली स्त्रियों को बुरा और घृणित बताकर स्त्रियों को नकारात्मक छवि भी प्रदान करती है।

‘वाल्मीकि रामायण’ में स्त्रीत्व के निरूपण का एक महत्वपूर्ण पहलू यह है कि यह आदिवासी समाज की स्त्री के विपरीत स्त्रियों की छवि के आर्य आद्य रूप का विकास है। इसका सम्बन्ध वाल्मीकि द्वारा समाजों के आर्थिक और सांस्कृतिक विकास के विभिन्न स्तरों के निरूपण से है, जैसे आर्यों या नर के विरूद्ध राक्षस और वानर। राक्षस और वानर आर्थिक विकास की निम्न अवस्था में हैं, परन्तु उनकी स्त्रियां शक्तिशाली स्वतन्त्र व्यक्तित्व वाली प्रतीत होती हैं, जबकि अयोध्या के समाज में स्त्रियां कारुणिक रूप से पुरुषों के अधीन प्रदर्शित होती हैं।

राक्षसों और वानरों को ‘वाल्मीकि रामायण’ में कृषि-पूर्व अवस्था में दिखाया गया है। वानर जंगल की भूमि और पर्वतों पर अपना अधिकार कर लेते हैं और यहां तक कि लंका में भी कृषि-कर्म के कोई स्पष्ट प्रमाण नहीं मिलते। वानरों के बीच समूह-विवाह के प्रमाण मिलते है: बाली और सुग्रीव का विवाह क्रमशः तारा और रूमा से हुआ है, पर वे अलग-अलग समय में दोनों स्त्रियों का साथ साझा करते हैं। यहां पवित्रता की कोई नैतिक वर्जना नहीं प्रतीत होती, जो स्त्रियों को पुरुषों के अधीन बनाने में प्रयुक्त होती रही है।

अंजना ने वायु के द्वारा हनुमान को गर्भ में धारण किया, जबकि उनके पति केसरी जीवित थे। बाली द्वारा रूमा के अपहरण के बावजूद सुग्रीव ने बिना शर्त रूमा को वापस अपनाया। यह राम द्वारा सीता को पुनः अपनाने की कठोर शर्तों से बिल्कुल विपरीत है। यह कहा गया है कि सीता के साथ राम के व्यवहार की कठोरता यौन-नैतिकता की कठोर संहिता की ओर गति को प्रतिबिम्बित करती है, जिसकी ‘रामायण’ प्रतीक है।

लंका संक्रमण से गुजर रहा समाज प्रतीत होता है। वह मातृवंशीय समाज से पिवृवंशीय समाज की ओर बढ़ रहा है। यद्यपि वंश का पता पिता से चलता है, पर लंका में स्त्रियों की सापेक्ष महत्ता और स्वतन्त्रता दर्शाती है कि उनकी भूमिका अभी भी शक्तिशाली है। शूर्पणखा अयोध्या की रानी से अधिक वैयक्तिकता प्रदर्शित करती है और जंगल में स्वच्छन्दता से घूमती है। यह केवल राक्षसों के मातृवंशीय स्वभाव के कारण ही था। रावण और उसके तीन भाइयों को राक्षसों के रूप में ही पहचाना जाता है, क्योंकि उनकी मां केकसी एक राक्षसी थी, जबकि उनके पितामह पुलत्स्य थे।

राक्षसों में भाई-बहन सम्बन्ध की मजबूती की प्रतीति शूर्पणखा द्वारा अपने भाइयों से अपने अपमानित करने वाले के अंग-भंग के प्रतिशोध के आह्वान से होती है। दूसरी तरफ, सीता एकदम अकेली हैं और उनके अपमान में उनके साथ कोई नहीं है। उनकी शरण-स्थली के रूप में तपस्वी का आश्रम वर्णित है। समग्रतः आर्यों के विकसित समाज और आदिवासियों के अविकसित समाज के बीच भेद यह संकेत करता है कि आर्थिक विकास और स्त्रियों की दशा के बीच विलोम सम्बन्ध है: समाज की उच्चतर आर्थिक विकास की दशा में स्त्रियों की स्थिति निम्नतर होती है, जैसी कि पितृसत्तात्मक समाज में है।

‘दशरथ जातक’ और ‘वाल्मीकि रामायण’ में राम के आख्यान में बड़ा अन्तर परिवार के एक महत्वपूर्ण पहलू की ओर इंगित करता है। मॉर्गन के अनुसार परिवार-संस्था के प्रारम्भिक रूप सगोत्रीय परिवार थे, जहां एक ही पीढ़ी के स्त्री-पुरुष भाई-बहन से निरपेक्ष स्वाभाविक रूप से पति-पत्नी होते थे। यह ‘दशरथ जातक’ के वर्णन में मिथक के बीज रूप में प्रतिबिंबित हो सकता है, जहां राम और सीता भाई और बहन हैं और साथ ही सीता राम की मुख्य पत्नी भी हैं। यह ऐसे समाज को प्रतिबिम्बित करता है जिसमें पुरुष स्त्रियों से उत्तराधिकार प्राप्त करते हैं। दूसरी ओर, वाल्मीकि द्वारा वर्णित अयोध्या का समाज विवाह के परवर्ती चरण का वर्णन करता है, जिसका उद्देश्य पिता की सम्पत्ति के स्वाभाविक उत्तराधिकार के लिए अविवादित पितृत्व वाली सन्तानों का प्रजनन करना है। पवित्रता और एक पुरुष के प्रति एकनिष्ठता पर बल देना ही सीता की कथा का मूल कारण रहा है।

मूल ‘वाल्मीकि रामायण’ में उत्तरकांड नहीं मिलता। उत्तरकांड ने राम-कथा को नया मोड़ दिया, जिसमें सीता का परित्याग, उनके दो जुड़वा बच्चों का जन्म, अश्वमेध-यज्ञ की तैयारी, लव और कुश की राम के पुत्रों के रूप में खोज और अन्त में सीता को बिना अग्नि-परीक्षा के दूसरी बार स्वीकार करने में राम का संकोच है। सीता द्वारा धरती माता से अपने निरन्तर अपमान से बचाव, अपनी पवित्रता और सतीत्व को निर्णायक रूप से सिद्ध करने की कारुणिक अभ्यर्थना में होता है। उसके बाद धरती फट जाती और सीता उसमें समाहित हो जाती हैं। पवित्रता और पातिव्रत-विषयक कथा की निरन्तरता सीता के अपमान और यातना के साथ जुड़ जाती है। वैसे ‘वाल्मीकि रामायण’ में यह विषय-वस्तु पहले से ही मौजूद था। इस विषय-वस्तु के विकास में ‘रघुवंश’ और ‘उत्तरकांड’ ने स्त्री की छवि में एक महत्वपूर्ण आयाम जोड़ा- स्त्री के साथ जब भी अन्याय होता है, वह उसका प्रतिकार नहीं करती, बल्कि अपनी यन्त्रणा का अन्त आत्मघाती कृत्य से करती है।

हाल ही में यह बताया गया है कि अपने बच्चों की वैधता को अखंड और अंतिम रूप से सिद्ध करने के लिए सीता का धरती में समाना आवश्यक था, क्योंकि इसके पहले वह अग्नि-परीक्षा दे चुकी थीं, उसके बाद भी उसकी पवित्रता पर कलंक लगाने वाली दुर्भावनाग्रस्त चर्चाएं बंद नहीं हुईं। इसलिए, वे कैसे विश्वास कर लेतीं कि दूसरी बार अग्नि-परीक्षा उनके विरूद्ध अफवाहों को बंद करने में सफल होगी और चूंकि राम भी उन्हें सार्वजनिक अग्नि-परीक्षा के बिना वापस नहीं ले जाते, तब सीता का धरती के गर्भ में समा जाने का कार्य रघु की राजवंश की परंपरा को निष्कलंक सिद्ध करने वाला रहा। चाहे जो हो, सीता का कृत्य आत्म-विनाशक ही है और यह बार-बार अपमान के प्रति आत्म-घात की स्त्री-प्रवृत्ति को और पुख्ता करता है।

सीता के आख्यान का अंतिम व सबसे महत्वपूर्ण विकास मध्यकाल में हुआ, जब इसमें आजकल लोकप्रिय शब्द ‘लक्ष्मण-रेखा’ जुड़ा। इस वर्णन में जब सीता ने लक्ष्मण को राम की सहायता के लिए जाने को कहा, तो लक्ष्मण ने सीता को अकेले छोड़कर जाने में अनिच्छा दिखायी, फिर भी लक्ष्मण ने जंगल में कुटिया के चारों ओर एक सुरक्षा-रेखा खींच दी और सीता को इसके भीतर ही रहने को कहा। यह एक जादुई रेखा थी, जो उन्हें किसी भी भौतिक खतरे से सुरक्षित रखती। यह सुरक्षात्मक देहरी ‘वाल्मीकि रामायण’ में नहीं है। पहली बार इसकी झलक ‘रामायण’ में लगभग 9वीं सदी में मिलती है। इसमें राम, सीता और लक्ष्मण जंगल में एक ऐसे क्षेत्र में अपना घर बनाते हुए वर्णित हैं, जो चारों तरफ से जादुई रेखा से घिरा हुआ है, जिसे कोई भी बाहरी लांघ नहीं सकता।

‘रामायण’ के एक मध्यकालीन वर्णन ‘गीतावली’ (जो तुलसीदास की रचना है) में जब लक्ष्मण सीता की सुरक्षा करने के लिए उपलब्ध नहीं थे, तब अकेली सीता की सुरक्षा करने के लिए लक्ष्मण ने रेखा खींची। लक्ष्मण ने सीता को चेताया कि किसी भी परिस्थिति में वे उससे बाहर न निकलें। तुलसीदास ने उस समय ‘रामायण’ पर आधारित कई ग्रन्थ लिखे, जब उनकी दृष्टि में हिन्दू समाज पर गहरा दबाव था और उसके सारे मूल्यों और प्रतिमानों के ध्वस्त होने का खतरा था।

असल में, तुलसीदास की रामायण में 16वीं सदी के भारत की आर्थिक और राजनीतिक दशा का तुलसीदास द्वारा विवेचन है। ऐसी स्थिति में, तुलसीदास यह सिद्धान्त प्रतिपादित कर रहे थे कि यदि महिलाएं अपने लिए निर्धारित परिधि के भीतर रहें, तो वे सुरक्षित रहेंगी, यदि वे उससे बाहर आती है, तो उनकी सुरक्षा कोई नहीं कर सकेगा। महत्वपूर्ण है कि अत्यधिक प्रचलित ‘रामचरित मानस’ में लक्ष्मण-रेखा प्रसंग उपस्थित है। यह केवल तुलसीदास की कम प्रसिद्ध रामायण में व्यक्त हुआ है, फिर भी वार्षिक राम-लीला नाटकों में प्रदर्शन से यह प्रसंग आश्चर्यजनक रूप से लोकप्रिय हुआ। अब यह राम-कथा का अनिर्वाय अंग बन चुका है और इसका संदेश प्रतिवर्ष राम-लीला के प्रदर्शन से दुहराया जाता है।

शास्त्रीय परपंरा में सीता की कथा के समय के साथ विकास के विश्लेषण से स्पष्टतः पता चलता है कि आदर्श विवाह के मूल विषय के साथ जुड़े क्रमिक वर्णन पुरुष के प्रति स्त्री की एकनिष्ठता और समर्पण पर आधारित हैं। प्रत्येक नया वर्णन आदर्श स्त्री की रूढ़ छवि को बल प्रदान करता है, जिसका मुख्य कार्य संकट की कठिन घड़ियों में आज्ञाकारी और पतिव्रता बने रहना है। यदि अपमान बहुत ज्यादा है, तो वह एक ‘सम्मानजनक मृत्यु’ का सहारा लेकर अपने दुखों का अन्त कर सकती है, पर उसके लिए सम्मानित जीवन का कोई प्रश्न ही नहीं है। फिर भी, यदि शास्त्रीय हिंदू परम्परा के बाहर कोई सीता की कथा को देखे, तो कुछ मुक्तिदायी वर्णन मिलते हैं, जिनकी तरफ लोगों का पर्याप्त ध्यान नहीं गया।

‘रामायण’ का जैन धर्मशास्त्र ‘पद्मपुराण आख्यान’ का अन्त निम्न ढंग से करता है- जब राम का जंगल में अपने पुत्रों की खोज और परित्याग के बाद सीता से पहली बार सामना हुआ, तो राम ने कहा कि सीता अग्नि-परीक्षा देकर अयोध्या वापस लौट सकती हैं। सीता अपमानजनक शर्त से विचलित हो जाती हैं और प्रकृति उनकी सहायता करती है। आग जादुई वर्षा से बुझ जाती है और बाढ़ आ जाती है। तब अयोध्या के लोग डूब रही अयोध्या को बचाने के लिए सीता से अनुनय-विनय करते हैं। सीता उनकी बात मान जाती हैं। लेकिन, शास्त्रीय परंपरा वाले वर्णन से भिन्न, जहां वे अपमान का अन्त आत्म-घाती कार्य से करती हैं, यहां वे राम और परिवार का परित्याग कर भिक्षुणी बन जाती हैं। भिक्षुणी जीवन में प्रवेश एकदम जैन रीति से करती हैं- अपने सिर के प्रत्येक बाल को नोंचकर।

ऐसा प्रतीत होता है कि यह आत्यन्तिक दर्द भी राम के साथ अपमानित अस्तित्व से अधिक काम्य है। सीता की कथा का एक लोक-वर्णन अधिक रोचक है। यहां सीता राम को अस्वीकार कर देती हैं और अपने पुत्रों को मातृवंशीय विरासत देने की सीमा तक जाती हैं। वे संत वाल्मीकि द्वारा राम के पास जाने के परामर्श पर तीव्र प्रतिक्रिया करती हुई कहती हैं- ‘‘गुरू आप प्रत्येक की स्थिति से वाकिफ हैं फिर आप ऐसा क्यों कह रहे हैं, जैसे आप कुछ जानते ही न हों?… जिस राम ने मुझे ऐसा दुख दिया, जिसने मुझे आग में डाला और मुझे घर से बाहर फेंक दिया, गुरू, मैं उसका चेहरा पुनः कैसे देख सकती हूं? मैं अयोध्या कभी नहीं जाऊंगी और भाग्य हमें दुबारा कभी न मिलवाए। अन्ततः जब वे धरती में समाहित होती हैं, तो यह प्रतिरोध और सम्मानित जीवन के अधिकार का दावा- दोनों है।

शास्त्रीय परंपरा और गैर-शास्त्रीय परंपराओं के वर्णन में सीता के मिथक की तुलना का यह उदाहरण है, जिसकी रूपरेखा में स्त्री-सुलभ पहचान का प्रधान वर्णन और स्त्री-सुलभ पहचान से जरा हटकर वर्णन में एक बेहतर अभिव्यक्ति के बीच एक वैषम्य मिलता है। ऐसा प्रतीत होता है कि यद्यपि सीता सामान्यतः पूर्व लिखित संवादों की ही आवृत्ति करती रहीं, पर कई बार वे अपनी दबी भावनाओं को खोलती भी हैं और इन भावनाओं पर कई बार ध्यान भी दिया जाता है। वंश और आदर्श स्त्री के अधीन रूप के संकुचित ढांचे में डालने का उनका विरोध गैर-शास्त्रीय परंपरा के अध्ययन से काफी सशक्त रूप से निकल कर आएगा।

मिथक और इतिहास में स्त्री का अध्ययन करना प्रचलित प्रस्तावों से एक भिन्न रास्ते को दर्शाता है। हम सीता के मिथक का वर्णन ‘रामायण’ के कई सारे खंडों के विश्लेषण के माध्यम से करते हैं और मिथक का विकास उसके बदलते सामाजिक आर्थिक वातावरण के परिदृश्य में निर्धारित करते हैं, जिसमें महिलाओं की पहचान आकार लेती है। स्पष्ट रूप से स्त्री-अध्ययन के लिए समय के द्वारा महिलाओं की एक सम्पूर्ण तस्वीर के लिए नये औज़ारों के निर्माण की अत्यंत आवश्यकता है।

{लेखक परिचयः प्रसिद्ध इतिहासकार प्रो. उमा चक्रवर्ती दिल्ली विश्वविद्यालय के मिरान्डा हाउस कॉलेज फॉर वीमेन में 1966 से 2008 तक इतिहास पढ़ाती रही हैं। उन्होंने इतिहास पर कई महत्वपूर्ण किताबें लिखी हैं। भारत में लिंग और जाति के मुद्दों पर उनके लेख हमेशा ध्यान आकृष्ट करते हैं। सम्पर्क सूत्रः जी-4, आनन्द निकेतन, बेनिटो जुआरेज़ मार्ग, नई दिल्ली-110021, ईमेल-umafam@gmail.com }

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