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सामंतवादी सोच की भेंट चढ़ा महिला आरक्षण कानून

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मीरा दत्त

महिला आरक्षण बिल 19 सितम्बर 2023 को नये संसद भवन (यानी सेन्ट्रल विस्टा) में पहला बिल के रूप में पारित हो गया. इसके बाद ये राज्य सभा में भी भारी मतों से पारित हो गया. इस कानून को भारी भरकम नाम ‘नारी शक्ति वंदन अधिनियम’ दिया गया. ये संविधान के 128 वे संशोधन के उपरान्त बना है. भाजपा की केन्द्रीय सरकार की आनन-फानन में आपातकालीन संकट की तरह बुलाई गई विशेष बैठक के मकसद को लेकर कई तरह के के कयास लगाए जा रहे थे. किसी को भी इसके कारण का अंदाजा नहीं था क्योंकि भाजपा सरकार ऐसे ही गपचुप तरीके से कानून बनाती रही है. जैसे कोरोना काल में तीन काला कृषि कानून लेकर आई.

अभी जब देश की करीब सभी विपक्षी पार्टियां लोक सभा चुनाव में गठबंधन को लेकर मुम्बई में बैठक कर रही थी, तब इस बिल को संसद में पेश किया गया ताकि भाजपा अपने पर आयी राजनीतिक संकट को टाल सके. हाल ही में सरकार द्वारा की गई खर्च पर काग यानी भारत सरकार के महालेखाकार के ऑडिट रिर्पोट में घोटालों का खुलासा किया गया था. मणिपुर में संकटपूर्ण स्थिति अभी भी कायम है. ऐसे में महिला आरक्षण बिल लोगों का ध्यान भटकाने के लिए एक सुविचारित उपाय जैसा था और वैसा ही हुआ.

बिल के लोक सभा में पारित होते ही यह बिल तमाम तरह की आलोचनाओं से घिर गया. कुछ लोगों ने तो यहां तक कहा कि महिलाओं की इतनी चिन्ता थी तो इस बिल को सरकार अब तक के 9 वर्षों के कार्यकाल में पहले क्यों नहीं लाई. जनता का यह भी कहना था कि यदि वाकई में महिलाओं को साल 2024 से आरक्षण मिल जाता तो जनता अपनी खुशी जाहिर करने के लिए सड़कों पर आकर जश्न मनाती.

यह आरक्षण अधिनियम एक तिलिस्म जैसा है, जिसे भेदा नहीं जा सकता है. यानी इसे जमीन पर उतारना ही एक बहुत कठिन काम है. महिलाओं को राज्यों के विधान सभाओं और लोकसभा में 33% आरक्षण का सुवअसर लिखित रूप से मिला है, परंतु यह (‘नारी शक्ति वंदन अधिनियम’) कब से प्रभावी होगा, इस पर कोई खुलासा नहीं है. इसके लागू किये जाने का समय कुछ अनिश्चित शर्तों के साथ आया है. कहने को तो महिला आरक्षण अधिनियम का नाम नारी शक्ति वंदन अधिनियम है लेकिन इसके अकाट्य शर्तों के कारण यह एक धोखा मात्र बनकर रह गया है. आईये देखते हैं, शर्तें क्या हैं.

‘संविधान (एक सौ अट्ठाइसवें संशोधन) अधिनियम, 2023 के प्रारंभ होने के बाद ली गई पहली जनगणना के प्रासंगिक आंकड़े प्रकाशित होने के बाद इस उद्देश्य के लिए परिसीमन की कवायद शुरू की जायेगी.’

मौजूदा कानून के अनुसार, अगला परिसीमन अभ्यास पहली जनगणना के बाद ही किया जा सकता है, जो 2026 के बाद की जाएगी. इसका प्रभावी अर्थ यह है कि विधेयक को कम से कम 2027 तक लागू नहीं किया जा सकता है.

(2002 में संशोधित संविधान का अनुच्छेद 82 कहता है कि परिसीमन प्रक्रिया 2026 के बाद हुई पहली जनगणना के आधार पर की जा सकती है. मूल रूप से, 2026 के बाद पहली जनगणना 2031 में की जानी थी, जिसके बाद परिसीमन किया जाएगा. जनगणना आखिरी बार 2021 में होनी थी, लेकिन सरकार ने बताया है कि कोविड के कारण इसमें देरी हुई, इसलिए अगली गिनती 2027 में हो सकती है.)

‘महिला कोटा बिल कानून बनने के बाद 15 साल तक लागू रहेगा, लेकिन इसकी अवधि बढ़ाई जा सकती है. महत्त्वपूर्ण बात यह है कि महिलाओं के लिए आरक्षित सीटों को प्रत्येक परिसीमन अभ्यास के बाद घुमाया जाएगा.’

छह पन्नों के विधेयक में कहा गया है कि लोकसभा और राज्य विधानसभाओं में एक तिहाई सीटें महिलाओं के लिए आरक्षित होंगी और सीधे चुनाव से भरी जाएंगी. साथ ही, कोटा राज्यसभा या राज्य विधान परिषदों पर लागू नहीं होगा. इसमें अनुसूचित जाति/अनुसूचित जनजाति के लिए एक-तिहाई सीटें आरक्षित करना और ‘यथासंभव’ कुल सीटों में से एक-तिहाई सामान्य श्रेणी के लिए आरक्षित करना शामिल होगा.

विधेयक में कहा गया है कि इसके लागू होने के 15 साल बाद इसका प्रभाव समाप्त हो जाएगा. संसद के लिए इस आरक्षण कालब्बोलुआब यह है कि अभी ये मालूम नहीं है कि ‘नारी शक्ति वंदन’ अधिनियम कब लागू होगा. चुंकि, जनगणना कब होगी इस विषय पर आज तक चुप्पी है. परिसीमन होगी जब जनगणना से आंकड़े मिल जायेंगे. भाजपा सरकार एवं प्रधानमंत्री की बातें बड़ी-बड़ी हैं लेकिन नतीजा वही ढाक के तीन पात.

ऐसे में सवाल उठता है बड़ी-बड़ी भारी भरकम बातों अर्थात ‘देवी’, ‘शक्ति वंदन’, ‘भगवान ने मुझे इसे आगे बढ़ाने का अवसर दिया है,’ आदि का पाखंड करने की जरूरत क्यों पड़ी ? इसका जवाब है इससे जनता को कुछ दिन और उलझा कर रखा जा सकता है. उल्टेे बिल पारित करने के दौरान संसद और राज्य सभा की बैठक पर जनता का करोड़ों रूपये खर्च बेकार चला गया.

‘महिला आरक्षण बिल पर काफी देर तक चर्चा हुई. अटल बिहारी वाजपेयी के शासनकाल में कई बार महिला आरक्षण बिल पेश किया गया लेकिन बिल पास कराने के लिए पर्याप्त बहुमत नहीं था और इस वजह से सपना अधूरा रह गया. आज, भगवान ने मुझे इसे आगे बढ़ाने का अवसर दिया है’, यह प्रधानमंत्री मोदी ने लोकसभा में कहा. इन सारे शब्दों का प्रयोग क्या महिलाओं के साथ छलावा नहीं है ?

महिला आरक्षण बिल संसद के पटल पर सर्वप्रथम 1996 में रखा गया था. 27 साल बाद भी वह वही पितृसत्तात्मक मानसिकता की भेंट चढ़ गया. भाजपा हो या कोई अन्य पार्टी नियत यही रहती है कि महिलाओं के हाथ सत्ता न आये, नहीं तो ये अपने-अपने पार्टी में भी महिलाओं को सीट दे सकते थे. बल्कि कई नेताओं के खानदान पीढ़ी-दर-पीढ़ी बिना आरक्षण के राज कर रहे हैं. भाजपा में सबसे अधिक भाई-भतीजावाद है. कई नेताओं के पुत्र फिलहाल शासन में हैं.

भाजपा से उम्मीद ही क्या की जा सकती है, जो बिलकीस बानो के 11 बलात्कारियों, मधुमिता शुक्ला के बलात्कारी-हत्यारे अमरमणि त्रिपाठी जैसे जधन्य अपराधियों का सजा माफ करवाती है. अब हालत ऐसी है कि महिलायें और लड़कियां गायब हो रही हैं. खुद गृहमंत्रलय द्वारा राज्यसभा में पेश किये गये आंकड़ों के अनुसार, 2019 से 2021 तक के तीन साल के अवधि के दौरान 13.13 लाख महिलायें एवं लड़कियां लापता हो गई है.

यह काल नोटबंदी के बाद और कोरोना काल का बेकारी और गरीबी का है, जिसका कुपरिणाम महिलाओं ने ज्यादा झेला. ग्लोबल हंगर इंडेक्स रिपोर्ट के अनुसार भी भारत 125 देशों के गिनती में गरीबी को लेकर 2023 में 111वें स्थान पर पहुंच गया है, जो कि 2015 से लगातार नीचे गिर रहा है.

वर्तमान में, भारत में संसद और विधानमंडलों में महिलाओं की संख्या केवल 14 प्रतिशत है, जो विश्व औसत से बहुत कम है. बल्कि हमारे पड़ोसी देशों पाकिस्तान, बांग्लादेश और नेपाल से भी कम है. दुनिया के कई देशों में महिलाओं के लिए संसद में 50 प्रतिशत के आरक्षण का प्रावधान है. इसमें फ्रांस और दक्षिण कोरिया शामिल है. नेपाल और अर्जेंटीना ने तो 1990 के दशक में आरक्षण का प्रयास शुरू कर दिया था. विकसित देश अमेरिका एवं यूनाईटेड किंगडम बिना महिला आरक्षण के 29 और 35 फीसदी महिलाओं का प्रतिनिधित्व करता है.

इस अधिनियम में अनुसूचित जाति, अनुसूचित जनजाति के लिए आरक्षण का प्रावधान है. दिलचस्प बात ये है कि इसमेें ओबीसी यानी अन्य पिछड़े जाति और पसमांदा महिलाओं के लिए आरक्षण का प्रावधान नहीं है. इस पर खुद भाजपा नेत्री उमा भारती ने कानून बनने के पहले ही अगाह किया था सरकार को. कांग्रेस अब इस अधिनियम का विरोध इसी बिन्दू एवं 2024 चुनाव से इसे लागू करने के मुद्दे पर कर रही है.

जबकि सप्रंग के समय महिला आरक्षण बिल में ओबीसी आरक्षण नहीं था, जिस कारण सपा और राजद एवं बहुजन पार्टी आदि ने विरोध किया था लेकिन इस बार उन्होंने समर्थन किया. ऐसा लगता है कि किसी पार्टी की महिला आरक्षण के प्रति नियत साफ नहीं है. अतः भारतीय महिलाओं का आरक्षण का संघर्ष अभी भी लम्बा चलेगा.

  • लेखिका पटना से प्रकाशित ‘तलाश’ मैगजीन की सम्पादक हैं.
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