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*ध्यान दृष्टि : गुरू और मोक्ष जैसे शब्द बाजारू, सत्य वेस्या*

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     ~> अपने जीवन-युद्ध का महाभारत समझो 

~> बंधनमुक्त निष्काम कर्म से जुड़ो 

~> मुझे रोटी की भी फ़िक्र नहीं, समुद्रमंथन करो 

      डॉ. विकास मानव 

     आज सत्य वेश्या के समान है, जिसे चाहते सब हैं पर अपनाता कोई भी नहीं है। मोक्ष, गुरु कॄपा ये शब्द तो बिल्कुल ही बाजारू हो गये हैं। 

     एक बार कुछ वेदांती और महात्मा कहलाने वाले लोगों ने, मेरे किसी ध्यान शिविर में मोक्ष पर हमारा वक्तव्य सुन लिया. सप्ताहों तक इनके गले से भोजन नहीं उतरा. ऐसा लगता था जैसे इनकी अम्मा मर गई है। 

बहुत हुआ, लाखों जन्मों से भटक रहे हो, माया की ऐसी जकड़ कि दुख, रोग, पीड़ा, सबके वाबजूद विवश हो भोगने के लिये। 

   श्रेष्ठ गुरु वो है, जो इन हालात में आपके गले पर छुरी रखकर कहता है, “सब प्रकार के दुख, पीड़ा अभी इसी क्षण में खत्म किये देता हूँ.” ये हैं गुरुकृपा। 

   जो गुरु सोना बनवाते हैं, रशीद कट्टा लेकर चंदा वसूलने के लिए कहते हैं वो खुद ही संसार में अपनी भ्रामक जमीन तलाश कर रहे होते हैं। 

     जो आपकी पत्नी बहन बेटियों को षड्यंत्र से या बलात्कार से भोगते हैं वे गुरू नहीं गोरू (पशु) होते हैं. मुझे तो ऐसा नहीं करना पड़ता. जरूरत ही नहीं. जरूरत होती तो हर रात-दिन क्या, हर घंटे एक फीमेल बेड पर मिलती. इतनी अधिक लाइन में रहती हैं, वर्जिन गर्ल्स तक भी. कई पतियों द्वारा अपनी पत्नी के लिए और माताओं द्वारा अपनी पुत्री तक के लिए मेरा सम्भोग माँगा जाता है. चौंकिए मत, मिलिए और प्रमाण देखिए.

     ध्यानयोगतंत्र का सन्यासी हूं. गलत रास्ता दिखा ही नहीं सकता हूं. अध्यात्म में ध्यानतंत्र मेरा मौलिक रास्ता है। 

     पिछले पांच हजार साल में किस तरह से पतन हुआ है, मानवता का, ये सब अन्जाने में नहीं हुआ है. इसे विधिवत प्लान करके किया गया है। खूब नाव चली है, ढोंग और पाखंड की, समूल सनातन परंपरा का सर्वनाश कर दिया गया है। चहुंओर अंधकार ही अंधकार है, सब भगवान भरोसे चल रहा है। 

    अधेंरा कितना गहरा है, हर चौराहे पर लगी हुई गुरुओं की दुकान साबूत है इस बात का। गुरु शब्द का अर्थ है, प्रकाश पुंज, या फिर जो अंधेरे से उजाले में लाकर खड़ा कर दे। यदि आप रोगी नहीं हैं, तो डा. के पास भी नहीं जाते हैं।  चौराहों पर गुरुओं के पास लगी हुई भीड़ सब कुछ वयां करती है कि अंधकार कितना गहरा है ? 

    यदि आप अपने बच्चे को स्कूल भेजते हैं तो कुछ पैमाना तय होता है. यदि डा. के पास जाते हैं तो भी १० लोगों से पूछ कर जाते हैं, लेकिन जब आप खुद किसी कथित गुरु के पास जाते हैं तो कुछ तो पैमाना तय नहीं करते.

     तुम पापी नहीं हो, अपने अंदर के अपराध वोध को समाप्त करो। ये ही सबसे बड़ी वाधा है। तुम पापी हो इसका पता तुम्हें कब और कैसे हुआ?  जब तुम्हारे कथित गुरु और महात्माओं ने मंच पर बैठकर ये बताया कि तुम पापी हो।

     ये वही लोग है, जो तुम्हारी दी हुई रोटी खाते हैं. तुम्हारे दिये हुये पैसे से कपड़े पहनते है  इनके शरीर में खून का एक कतरा भी बनता है, तो तुम्हारे ही पसीने की कमाई से बनता है। पहले इस जकड़न और पकड़न से बाहर निकलो।

     अपराध बोध से ग्रसित व्यक्ति कुछ भी नहीं कर सकता है। ये वो लोग हैं जिन्होंने तुम्हारे जीवन को अंधेरे और पाप से भर दिया है। इन लोगों से किसी कृपा की उम्मीद कैसे लगाई जा सकती है। ये जो पहले से गुरु कर रखा है, ये सबसे बड़ा पत्थर है, तुम्हारे विकास के मार्ग का। 

     ये गोरू रूपी सभी गुरु सिर्फ और सिर्फ तुम्हारा उपयोग करते हैं, जिस दिन काम निकल जायेगा या फिर तुम से बेहतर मिल जायेगा तुम्हें भगाने में देरी नहीं लगायेंगे। 

   तुम्हें भय लगता है कि इन्हें हटायेंगे तो पाप लगेगा. हम इन्हें गटर में फेके देते हैं। हमे स्वर्ग में कोई रुचि नहीं।

*आपके जीवन का महाभारत :*

       जीव जब कर्मभोग के लिए धरती पर जन्म लेता है तो पहली चीख के साथ ही माया के महा समर मे उसका जीवन युद्ध शुरू हो जाता है। यह महायुद्ध ही उसका महाभारत है। 

     जन्म लेते ही उसको अपना महाभारत दिख जाता है। तभी तो बच्चा रोने चीखने लगता है। विभिन्न ऋषिकुलों में उसको विभिन्न नामों से बताया या पढ़ाया जाता था। किसी ने उसे जय कहा तो किसी ने विजय कहा; क्योंकि जीव को जीवन युद्ध में जीत हासिल करके इस जन्म में मोक्ष पाना है। लेकिन यह जीवन समर इतना भयानक है कि सबों ने उसे एक नाम दे दिया महाभारत। उस भरत (सबका भरण पोषण करने वाला, ईश्वर) का पुत्र होने के कारण सभी जीव, हर मनुष्य मात्र ही भारत है। 

     गीता में इसलिए अर्जुन को बार बार भारत कहा गया है। सारे भारत के जीवन का अपना अपना महासंग्राम होने के कारण ही यह महाभारत कहा गया है। 

 *अर्जुन कौन ?*

   मनुष्य के ज्ञान की आभा चतुर्दिक फैलती रहती है। यह इंद्रियों द्वारा अर्जित है। इसलिए यह बुद्धि अर्जुन है। वास्तव मे अर्जुन हमारा पुरुषार्थ है। कुन्ती से उत्पन्न होकर वह कुंत है। भाले की तरह नुकीला। जीवन के महाभारत अर्थात मायाओं के महासमर का सामना करने वाला महारथी हमारा पुरूषार्थ ही तो हैं। यह इंद्रियों द्वारा अर्जित है और हमारे इन्द्रियां हमारे शरीर से जुड़ी हैं। 

     पंच तत्व से बना हमारा शरीर ही पांडु है। इसलिए अर्जुन पाण्डव है। पांचों पाण्डवों में सबसे दिव्य, इंद्रियों द्वारा अर्जित चमकदार बुद्धि और ज्ञान का बल ही अर्जुन है जो हमारे पुरुषार्थ को स्वरूप प्रदान करता है। 

*कौन है कर्ण?*

     यह अर्जुन (पुरूषार्थ) से पहले पैदा हुआ है। इसका जन्म कामारर्जित है; गीता (3/37) में देखिए, और रजोगुण (हमारे पूर्व कर्म) के सम्पर्क से पैदा हुआ। काम अर्थात् कामना से ही कर्म की इच्छा और क्रिया होती है। यह संसार का वैरी है। यह हमारा प्रारब्ध है। कर्ण हमारा प्रारब्ध है क्योंकि इसने हमारे इंद्रियों से अर्जित चमकदार ज्ञान (अर्जुन) को पहले से ही आवृत कर रखा है (गीता 3/39)। यह अर्जुन का सब से प्रबल शत्रु है। यह पाण्डव नहीं है क्योंकि यह पांडु (शरीर) में नहीं है लेकिन हमारे चेतना (कुन्ती) में है। 

     इसलिए यह पाण्डव नहीं है लेकिन कौंतेय है। पूर्व जन्म के कर्म से जुड़े होने के कारण यह अर्जुन से पहले पैदा हुआ है। इसको कर्ण बोलते हैं क्योंकि किसी ने अपना प्रारब्ध देखा नहीं है। गुरुओं से, शास्त्रों से सुना है। इसके कारण हमारी चेतना ढंकी रहती है कारण की प्रारब्ध को भोगने के लिए ही हमारा जन्म हुआ। यह संचित कर्मों में सब से उग्र है कर्मफल प्रगट करने के लिए। यह (कर्ण) लगभग अजेय है। इस महारथी को रोकना मुश्किल है। 

*पुरुषार्थ और प्रारब्ध का युद्ध :

     आईए चलें महाभारत के मैदान में। कृष्ण (आत्मा) कर्ण (प्रारब्ध) के बल को समझता है। इसलिए हमेशा अर्जुन (पुरूषार्थ) से इस कर्ण (प्रारब्ध) से सतर्क रहने को कहता है। कृष्ण (आत्मा) और कुन्ती (चेतना) दोनों चाहते हैं कि कर्ण (प्रारब्ध) हटे तो जीवन में मयाओं का महासमर (महाभारत) टल जाए। लेकिन कर्ण (प्रारब्ध) कहां मानता है। 

     उसे तो हमारे पुरुषार्थ (अर्जुन) को चुनौती देनी ही देनी है। उसी को जीत के तो साधक को मोक्ष मार्ग पर चलना होगा। कर्ण सब से प्रबल शत्रु है अर्जुन का और सबसे ज्यादा खतरा भी इसी से है। जीवन के महाभारत में मनुष्य के पुरुषार्थ को सब से प्रबल चुनौती उसके अपने प्रारब्ध से ही होता है। पुरूषार्थ के हारने का खतरा सब से अधिक प्रारब्ध से ही रहता है। कर्ण और अर्जुन का युद्ध हमारे अपने ही प्रारब्ध और पुरुषार्थ का युद्ध है। 

      प्रारब्ध पर विजय पाना पुरुषार्थ के लिए आसान नहीं है। अगर अर्जुन इन्द्र (मन) का पुत्र है तो कर्ण भी सूर्य अर्थात सविता का पुत्र है। अर्जुन (पुरूषार्थ) के साथ उसका पिता इंद्र  (मन) तो है लेकिन कर्ण (प्रारब्ध) भी पूर्वतन के आत्मा (सूर्य) से कबच कुण्डल से रक्षित है। पुरूषार्थ (अर्जुन) का पिता इन्द्र (मन) छल से मतलब योजना बना के कवच कुण्डल ले तो लेता है किन्तु पूर्वकर्म का फल ही प्रारब्ध (कर्ण) का असली बल है जिसे किसी भी भांति काटा या रोका नहीं जा सकता है। 

     योगी को प्रारब्ध फल से बचने के लिए आत्मस्थ होकर आत्मा (श्री कृष्ण) के शरण मे जाना ही होगा। आत्मस्थ होकर आत्म यज्ञ करना ही पड़ेगा।

      कर्ण (प्रारब्ध) अजेय है। कर्म गति किसी विधि से भी रोकी नहीं जा सकती है। इसका वध करने के लिए कृष्ण (आत्मा) के शरण में जाकर, दसों इन्द्रियों को रथकर अर्थात दस रथ बन कर आत्मस्थ (कृष्णस्थ) होना पड़ेगा और आत्म कुण्ड में ज्ञान यज्ञ से इसकी आहुति देनी होगी (गीता 3/41)। तभी कर्म गति प्रारब्ध (कर्ण) के रथ का पहिया रुकेगा। कर्ण निहत्था होगा। केबल आत्म यज्ञ के ज्वालाओं के द्वारा ही कर्ण (प्रारब्ध) को नष्ट किया जा सकता है। 

      ज्योतिष शास्त्र से अगर जन्म कुण्डली में देखें तो हमरा पराक्रम तीसरे घर में है। पूर्व कर्मो का फल भाग्य बन के नौवें स्थान में स्थित है; पराक्रम के ठीक सामने। पराक्रम स्वभावतः स्थिर है लेकिन अवसर के तलाश में सचल है। इसकी मातृभूमि छठा स्थान है। भाग्य का क्रिया क्षेत्र या कर्म भूमि भी है छठा स्थान ही है। छठा स्थान संघर्ष है, युद्ध भूमि है। इस प्रकार प्रारब्ध एक तरह से पराक्रम को घर में घुस के चुनौती देता है। उसको अपना क्षेत्र बोलता है। 

      महाभारत के कथा में भी अर्जुन ने कभी भी कर्ण के साथ दुर्व्यवहार नहीं किया लेकिन कर्ण फिर भी केबल अर्जुन के ही पीछे पड़ा रहता है। प्रारब्ध अमिट है। इसको मिटाया नहीं जा सकता है। इसको मिटाने का एक ही मार्ग है तपस्या और भगवद प्राप्ति। पराक्रम का तब अपना ही विस्तार पांचवें भाव में हो जाता है जो तपोभूमि है, साधना स्थल है, भगवद प्राप्ति का स्थान है।

      हम कभी इस मर्म को समझते ही नहीं हैं कि कर्ण और अर्जुन का युद्ध हमारे अपने ही प्रारब्ध और पुरुषार्थ का युद्ध है। कथा है कि कर्ण ने कृष्ण से मांगा कि उसका प्राण वहां छूटे जहां कोई मरा न हो या जलाया गया न हो। तब कृष्ण ने उसे अपने हाथों मे थामकर घुटने पर रख लिया था। यह साधक के वीरावस्था का प्रतीक है जब उसे दृढ़ संकल्प और ज्ञान से आत्मकुंड में अपने पूर्व जन्म जनित संस्कारों को भस्म करना है। 

    प्रारब्ध को अपने ही तप बल से मिटाना है। है तो कठिन लेकिन मार्ग भी यही है। तब पराक्रम का तप ही प्रारब्ध का अन्त बन जाता।

*निष्काम कर्म का फल बंधन नहीं देता :*        

    जीवन में कर्म तो सभी करते हैं, पर कर्म को कुशलतापूर्वक करने की कला विरले ही जानते हैं। इस जगत में कोई व्यक्ति क्षण मात्र भी कर्म किए बिना नहीं रह सकता। यदि कोई शारीरिक रूप से कोई कर्म नहीं कर रहा है तो भी यह नहीं कहा जा सकता कि वह कर्म नहीं कर रहा है; क्योंकि शारीरिक रूप से कर्मशून्य, क्रियाशून्य दीखते हुए भी वह मानसिक रूप से किसी- न-किसी चिंतन, मनन, संकल्प, विचार में रत अवश्य ही होगा।

    इस प्रकार कर्म किए बिना तो कोई रह ही नहीं सकता और यदि कर्म हुए तो उनका कोई-न-कोई फल, परिणाम तो अवश्य प्राप्त होगा। शास्त्रों में ठीक ही कहा गया है कि न तो कर्म करने से बचा जा सकता है और न ही कर्मफल से। जहाँ कुछ कर्मफल मधुर होते हैं तो वहीं कुछ कटु भी। इतना तो तय है कि हमें हमारे कर्मानुसार अच्छे-बुरे, शुभ-अशुभ, सुखद-दुःखद फल प्राप्त होकर रहते हैं। मधुर फल हमें भाते हैं, सुखदायी लगते हैं, हमें अनुकूल लगते हैं तो प्रतिकूल फल हमें सदा दुःखदायी लगते हैं।

    भौतिक दृष्टि से हम कर्म एवं उसके फल के बारे में ऐसा ही सोचते हैं, पर योगियों की दृष्टि इससे सर्वथा भिन्न है। अध्यात्मवेत्ताओं, योगियों की दृष्टि में कर्मफल शुभ-अशुभ, अच्छे-बुरे हर रूप में दुःखदायी ही हैं; क्योंकि वे ही हमारे बंधन के कारण हैं। बंधन फिर शुभ के हों, अथवा अशुभ के, सुख के हों अथवा दुःख के, हर हाल में वे हमें बाँधने वाले ही होते हैं। जिस प्रकार. जंजीर सोने की हो अथवा लोहे की; हैं तो आखिर वे बंधन ही। एक पंछी सोने के पिंजरे में बंद हो अथवा लोहे के पिंजरे में, दोनों का बंधन दुःखद ही होता है; क्योंकि वे दोनों हमारी उन्मुक्तता, हमारी आजादी को बाँधने वाले होते हैं। जब तक हम शुभ अथवा अशुभ, अच्छे या फिर बुरे जिस किसी भी प्रकार के परिणामों से बँधे हैं, तब तक हमारी उन्मुक्तता, हमारी आजादी हमसे दूर ही रहेगी और जहाँ उन्मुक्तता नहीं, वहाँ आनंद कैसा ?

    सत्य यही है कि हम न तो कर्म से बच सकते हैं, न ही कर्मफल से। पर हाँ! हम उन कर्मफलों के बंधन से तो अवश्य ही बच सकते हैं और यही हमारे लिए महत्त्वपूर्ण भी है। इसीलिए योगेश्वर श्रीकृष्ण गीता- 2/50 में कर्मफल के बंधन से बचने का उपदेश देते हैं :

  बुद्धियुक्तो जहातीह उभे सुकृतदुष्कृते। 

     तस्माद्योगाय युज्यस्व योगः कर्मसु कौशलम्॥

    समबुद्धियुक्त पुरुष पुण्य और पाप, दोनों को इसी लोक में त्याग देता है अर्थात उनसे मुक्त हो जाता है। इसलिए तू समत्वरूप योग में लग जा; क्योंकि यह समत्वरूप योग ही कर्मों में कुशलता है अर्थात कर्मबंधन से छूटने का उपाय है।

    हमें यहाँ यह समझना है कि हमें कर्म करते समय उस कर्म-संपादन में अपना शत-प्रतिशत पुरुषार्थ लगाना है। हमें उस कर्म के कुशल संपादन पर ही केंद्रित रहना है, उससे प्राप्त होने वाले फलों पर नहीं; क्योंकि कर्म करते हुए यदि बार-बार उसके फलों का ही चिंतन बना रहा तो कर्म-संपादन में लगने वाली हमारी समस्त ऊर्जा बिखर-सी जाएगी और उस कर्म में हम अपना शत- प्रतिशत नहीं लगा पाएँगे। फल की चिंता नहीं करने से हमारी समस्त ऊर्जा तब कर्म-संपादन में शत-प्रतिशत नियोजित हो सकेगी। फल की चिंता करने से फल की प्राप्ति न तो शीघ्र होने वाली है और न ही परिणाम में अधिक। इतना ही नहीं यदि कर्मफल हमारे अनुकूल आया तब तो हमें अच्छा लगेगा, पर यदि फल हमारे प्रतिकूल आया तो हम पुनः ऐसे गिरेंगे जैसे- पंख कट जाने के बाद असीम आकाश में उड़ता हुआ पंछी भी धरती पर आ टपकता है, तब सचमुच हमारा सब कुछ समाप्त हो जाता है।

    इसके विपरीत यदि फल की चिंता करे बिना हमने कर्म किए तब उनका परिणाम चाहे कुछ भी हो, हम तब बीच समुद्र में खड़े विशाल स्तंभ की तरह तूफानों के बीच भी अजेय व अभेद्य बने रहेंगे; क्योंकि कर्मों का फल हमें स्पर्श कैसे कर सकेगा ? फल तो हमें उसकी चिंता न करने पर भी प्राप्त होंगे ही; पर तब हर्ष-विषाद, सुख-दुःख, शुभ-अशुभ, दोनों ही स्थिति में हम सम ही रहेंगे, एकरूप ही रहेंगे, उन्मुक्त ही रहेंगे, अनासक्त ही रहेंगे और आनंदित ही रहेंगे। हम दर्शकदीर्घा में बैठकर संसार का कौतुक – खेल तो तब भी देखेंगे, संसार में रहते हुए कर्म तो तब भी करेंगे, पर उस खेल में मिली जीत न तो हमें उत्तेजित व अतिहर्षित कर सकेगी और न ही हार हमें निराश कर सकेगी। हमें संसार में रहते हुए संसार के हर कर्म को योगदृष्टि से ही देखना व करना चाहिए। कर्मफल के प्रति आसक्ति, कर्मफल की चिंता आदि का त्याग करके ही कर्म करना चाहिए। इसे ही निष्काम कर्म कहते हैं और जहाँ निष्काम कर्म है, वहाँ कोई बंधन नहीं; क्योंकि वहाँ फलों के प्रति कोई आसक्ति नहीं है।

    इस नियम के अनुसार, यह स्पष्ट है कि जो भी कर्म हम फल की आशा से करते हैं, वे ही बंधनकारक हैं। हमारी आशा व आसक्ति ही तो यह बंधन है, पर निष्काम भाव से किए गए कर्म में आशा, अपेक्षा व कामना का कोई बंधन है नहीं, इसलिए ऐसे कर्म हमें बाँधते नहीं, वरन मुक्त करते हैं। तब सचमुच हमारी भौतिक प्रगति के साथ-साथ हमारी आध्यात्मिक प्रगति भी होने लगती है। आसक्ति के बंधन से मुक्त होते ही हम ईश्वर के अखंड राज्य में प्रवेश पाते हैं व जन्म-मरण के बंधन से भी सदा-सदा के लिए मुक्त हो जाते हैं। योग की इस महान महिमा के कारण ही योगेश्वर श्रीकृष्ण सिर्फ अर्जुन को ही नहीं, वरन हम सबको भी योगी बन जाने की पावन प्रेरणा गीता-6/46 में दे रहे हैं :

  तपस्विभ्योऽधिको योगी ज्ञानिभ्योऽपि मतोऽधिकः।     

      कर्मिभ्यश्चाधिको योगी तस्माद्योगी भवार्जुन॥

    हे अर्जुन ! योगी पुरुष तपस्वियों से श्रेष्ठ है, शास्त्रज्ञानियों से भी योगी श्रेष्ठ माना गया है और सकाम कर्म करने वालों से भी योगी श्रेष्ठ है। अतएव हे अर्जुन ! तू योगी बन।

*मुझे रोटी की भी फ़िक्र नहीं, समुद्रमंथन करो :*

    सत्य की अभिव्यक्ति में मैं रोटी की परवाह भी नहीं करता. ध्यानयोगतंत्र का पथिक खाने से चूक जाए लेकिन सच बोलने से नहीं चुकता. इसलिए मुझे अपनी दाल रोटी की परवाह भी नहीं होती है। शेष लोग ध्यान रखते हैं कि सोच समझ कर बोलो नहीं तो दाल रोटी से भी जाओगे।

       आत्म-मंथन करो, वही वास्तविक समुद्र मंथन है. समुद्र मंथन कोई समुद्र में खोज (excursion in sea) नहीं है। मनुष्य का हृदय एक सागर के समान है। इसको उर उदधि भी बोलते हैं। साधक को आत्म साक्षात्कार के मार्ग में अपने हृदय तल पर विचारों, इच्छाओं असंतुष्टियों को मथना होता है। विवेक के मंद्राचल को मथनी बनाकर श्वास की वासुकी से उर उदधि को मथना होता है। सद विचार और असद विचार के बीच चिन्तन करना होता है। यही सुर तथा असुर के बीच का युद्ध है जिसको देवासुर संग्राम कहते हैं। 

   तमसा वृत्ति से भरे कुविचारों में दिव्यता लानी होती है। यही दानवों पर देवों की विजय है। 

*सुर-असुर कौन?*

सु + उर;। सुन्दर है जिसका उर, हृदय वह सुर है। 

जिसका हृदय सुन्दर नहीं है अर्थात् कुविचारों से भरा है वह असुर है 

अ + सु + उर = असुर, 

अ = नहीं; सु = सुन्दर; उर = हृदय। 

सुन्दर नहीं है जिसका हृदय वह असुर है। 

     ये कोई जीव या प्राणी नहीं बल्कि विचार हैं। हर मनुष्य के अन्दर अच्छे और बुरे विचार भरे होते हैं। समुद्र मंथन के समय साधक को अपने हृदय में स्थित कुविचारों को सुविचारों से विस्थापित करना होता है। उसी से मिलनेवाले फल को प्रतीकों के माध्यम से बताया गया है। तथाकथित शास्त्रकारों और कथावाचकों ने उसी को रसीले कहानी के रूप में परोस दिया  है। लेकिन यह सब कहीं बाहर नहीं बल्कि साधक के अपने ही अन्दर घटित होता है। 

      समुद्र मंथन अर्थात् हृदय मंथन साधना का एक अभिन्न अंग है। तथाकथित मठों के महंतों और धर्माचार्यों ने सनातन धर्म के नाम पर साधना को हटा कर वहां भजन कीर्तन भोजन भंडारा डाल दिया गया है। फिर कुम्भ में अध्यात्म मिलेगा भी कहां से। वहां तो अखाड़ों के स्नान के नाम पर साधू समाज का शक्ति प्रदर्शन होता है। अखाड़े उनके सैन्य शक्ति को दर्शाते हैं।

  भारतीय परंपरा में प्रतिवर्ष दो तरह का आयोजन होता था :

१.कार्तिक स्नान 

२.माघ स्नान

इसका आम आदमियों से कुछ लेना देना नहीं था। वे मात्र दर्शक होते थे जो बाद में मेले में बदल गया। 

     कार्तिक महीने में गृहस्थ वानप्रस्थी बनने के लिए सिद्ध संन्यासियों से आशीर्वाद लेते थे और वन गमन करते थे, मोक्ष के लिए अपनी अधूरी शिक्षा को पूरा करने। यह एक तरह से वानप्रस्थ आश्रम में नामांकन जैसा था। 

     माघ महीने में वानप्रस्थी लोग अपनी साधना शक्ति का इम्तिहान देने सिद्ध संन्यासियों के समक्ष उपस्थित होते थे। यदि पास हो जाते थे उनको संन्यास का अधिकारी माना जाता था और गेरुआ वस्त्र धारण करने को दिया जाता था। यह एक तरह का दीक्षांत समारोह  था। 

        तथाकथित आधुनिक धर्माचार्यों ने उस महान परम्परा को समूल नष्ट कर दिया है। जिसको चाहो भगवा पहना दो। अब यह धंधा का स्वरूप ले चुका है। दुकानें सजी हुई है। धर्म , अर्थ, काम और मोक्ष की रेवड़ियां हर अखाड़ा में बांटी जा रही है। बस शर्त यह है कि कीमत चुकाओं और प्रसाद पाओ।

Ramswaroop Mantri

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