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मजदूरों की जिंदगी की हिफाजत के लिए मजदूरों को आगे आना होगा

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दिनकर कपूर 

देश में इस समय 95 फीसदी मजदूर असंगठित क्षेत्र में काम करते हैं। कोरोना महामारी के समय इन मजदूरों की दुर्दशा को सभी ने करीब से देखा था और यह राष्ट्रीय मुद्दा भी बना था। उस समय सुप्रीम कोर्ट के आदेश के बाद ई-श्रम पोर्टल का निर्माण किया गया। इसमें खेत एवं ग्रामीण मजदूर, मनरेगा, निर्माण, घरेलू कामगार, वाहन चालक, कुली, पल्लेदार, रिक्शा ठेला वाले, बुनकर व चिकनकारी समेत कुटीर और लघु उद्योगों में काम करने वाले, आंगनबाड़ी कार्यकत्री, आशा कर्मी, मिड डे मील, ईट-भट्टा, खनन आदि क्षेत्रों में काम करने वाले मजदूर हैं। यह वह मजदूर हैं जो ईपीएफ और ईएसआई के दायरे में नहीं आते हैं।

देश में ऐसे करीब 28 करोड़ मजदूरों का ई-श्रम पोर्टल पर पंजीकरण हुआ है। उत्तर प्रदेश में यह संख्या 8 करोड़ 30 लाख है। इन मजदूरों की सामाजिक सुरक्षा के लिए सुप्रीम कोर्ट के निर्देशों के बावजूद अभी तक सरकार ने कुछ नहीं किया। हालत यह है कि ऐसे असंगठित मजदूरों की सामाजिक सुरक्षा के लिए 2008 में संसद द्वारा सामाजिक सुरक्षा कानून बनाया गया था जो आज भी लागू होने के इंतजार में है।

इन मजदूरों में 93 फीसद मजदूर 10 हजार रुपए से कम पर अपने परिवार की जीविका चला रहें हैं। इसके अलावा जो संगठित क्षेत्र है भी उसमें बड़ी संख्या ठेका/संविदा या आउटसोर्सिंग मजदूरों की है, यह भी अल्प वेतन पर ही आजीविका चला रहें हैं। उत्तर प्रदेश में तो पिछले पांच साल से न्यूनतम मजदूरी का वेज रिवीजन न होने से मजदूरों का वेतन बेहद कम है और इस महंगाई में परिवार की जीविका चलाना बहुत कठिन हो गया है।

अभी 20 जून को भारत सरकार के श्रम एवं रोजगार मंत्रालय की सचिव सुमिता डावरा ने देश भर के सभी राज्यों और केन्द्र शासित क्षेत्रों के श्रम सचिवों व श्रमायुक्तों के साथ दिल्ली में बैठक की है। जैसी कि रपट है कि इस बैठक में केंद्र सरकार ने 29 श्रम कानूनों को खत्म करके बनाई गई 4 श्रम संहिताओं को लागू करने के संबंध में सभी राज्यों को निर्देश दिया है। राज्यों से कहा गया है कि वह केन्द्र के द्वारा बनाई गई श्रम संहिताओं के अनुरूप अपने राज्यों में नियमावली बनाएं।

पश्चिम बंगाल, तमिलनाडु, मेघालय, नागालैंड, लक्ष्यद्वीप, सिक्किम, अंडमान निकोबार और दिल्ली जैसे राज्य व केन्द्र शासित क्षेत्र हैं जिन्होंने अभी तक पूरी नियमावली नहीं बनाई है। सरकार के वी. वी. गिरि राष्ट्रीय श्रम संस्थान की हालिया रिपोर्ट में कहा गया है कि कई राज्यों द्वारा बनाई गई नियमावली केन्द्र सरकार द्वारा बनाई गई श्रम संहिताओं और उनकी नियमावली की मूल भावना के ही विरूद्ध हैं। इसलिए इनको बदलना होगा और केन्द्र के अनुरूप बनाना होगा। 2020 में संसद से पारित इन संहिताओं को केंद्र सरकार अतिशीघ्र लागू कराने में लगी है। 100 दिन के एजेंडे और टास्क में भी केन्द्र सरकार ने इसे रखा है।

यह जो नई श्रम संहिताएं बनाई गई हैं उनमें स्पष्ट प्रावधान किया गया है कि काम के 12 घंटे किए जाएंगे। इसके चलते करीब 33 प्रतिशत उद्योगों में कार्यरत मजदूरों की अनिवार्य रूप से छंटनी हो जाएगी। इतना ही नहीं काम के 12 घंटे होने के बाद मजदूरों को नित्य कर्म के लिए करीब 17-18 घंटा काम करना पड़ेगा। इसके कारण उनकी शारीरिक अवस्था पर भी बेहद बुरा प्रभाव पड़ेगा और बेहद कम उम्र में ही उन्हें ब्लड प्रेशर, शुगर, हाइपरटेंशन, ट्यूबरक्लोसिस जैसी तमाम बीमारियों का शिकार होना पड़ेगा।

इन श्रम संहिताओं में यह प्रावधान किया गया है कि अभी चल रही न्यूनतम मजदूरी की जगह फ्लोर लेवल मजदूरी लाई जाएगी। इसका मतलब है कि किसी तरह अपने चार यूनिट परिवार को जिसमें पति-पत्नी और दो बच्चे शामिल हैं, उनके खाने, पीने, पहनने के कपड़े के लिए जो न्यूनतम मजदूरी तय की जाती है उसे भी कम करके फ्लोर लेवल मजदूरी तय की जायेगी। जिससे इस भीषण महंगाई में किसी तरह अपने परिवार की जीविका चलाने वाले मजदूर की जिंदगी बेहद कठिन हो जायेगी।

नई आर्थिक औद्योगिक नीतियों के लागू रहते 33 सालों में पूरे देश में ठेका प्रथा ने विशाल स्वरूप ग्रहण कर लिया है। देश की संसद से लेकर कारखाने तक और यहां तक कि टीचरों, डॉक्टरों, इंजीनियरों, नसों, कम्प्यूटर आपेरेटरों आदि के प्रोफेशनल क्षेत्र में भी ठेका प्रथा लागू की जा रही है। इस प्रथा का सिर्फ एक मकसद है श्रम शक्ति की भंयकर लूट को अंजाम देना। जो काम स्थाई मजदूर से ज्यादा वेतन अदा करके और उसकी जीवन सुरक्षा को सुनिश्चित करके कराया जाता था उसी काम को ठेका प्रथा में बेहद कम मजदूरी पर कराया जा रहा है।

नई श्रम संहिता में तो इस ठेका प्रथा से भी बदतर फिक्स टर्म इम्पलाइमेंट को लाया गया है। माने कुछ अवधि के लिए मजदूरों को काम पर रखा जाएगा और उनके ऐसे काम में ईपीएफ, ईएसआई, बोनस, पेंशन, ग्रेच्युटी आदि तमाम सुविधाएं नहीं रहेंगी। ठेका मजदूर कानून 1970 से अभी तक स्थाई प्रकृति के कामों को ठेका प्रथा से कराने पर जो रोक लगी हुई थी उसे संहिताओं में खत्म कर दिया गया। यहां तक कि समान काम के लिए समान वेतन के प्रावधान को भी हटा दिया गया है।

श्रम संहिताओं में निर्माण, बीड़ी, खनन आदि जैसे असंगठित क्षेत्र में काम करने वाले मजदूरों की सामाजिक सुरक्षा के लिए बोर्ड बनाकर स्कीम लागू करने के जो प्रावधान थे उन पर भी खतरा मंडरा रहा है। श्रम विभाग की जो प्रवर्तन यानी एनफोर्समेंट की शक्तियां थी उन्हें बदलकर फैसिलिटेटर यानी सुगमकर्ता बना दिया गया है। स्वभावतः श्रम विभाग की भूमिका मालिकों की सुविधाओं को सुगम बनाना होगा।

मजदूरों के हड़ताल आदि पर बहुत सारी कानूनी अड़चनों को श्रम संहिताओं में खड़ा कर दिया गया है। ट्रेड यूनियन का गठन करना भी बेहद कठिन हो जाएगा और जो पंजीकृत यूनियन है उनका रजिस्ट्रेशन कैंसिल करना आसान हो जाएगा। सरकार और उसके संस्थान कैसे मालिकों और कारपोरेट घरानों के लिए सुगम रास्ता बना रहे हैं इसका एक उदाहरण सामने है। सत्ता में आते ही सरकार ने ईपीएफ के नियमों में बदलाव कर दिया है और ईपीएफ ना जमा करने वाले मालिकों के ऊपर लगाई जाने वाली जुर्माना धनराशि को बेहद कम कर दिया है।

दरअसल देशी विदेशी कारपोरेट घरानों के अकूत मुनाफे के लिए जिन नई श्रम संहिताएं को लेकर सरकार आई है उससे देश में कार्यरत मेहनतकश की जीवन व सामाजिक सुरक्षा, वर्किंग कंडीशन, वेतन आदि में आमूल चूल परिवर्तन आ जायेगा। जिससे पहले से ही बढ़ रही भयंकर बेरोजगारी में और वृद्धि होगी। यही नहीं यह रास्ता देश में बड़ी औद्योगिक अशांति को भी पैदा करेगा। क्योंकि लेबर लॉ और श्रम विभाग की भूमिका औद्योगिक शांति कायम करने में बहुत महत्वपूर्ण थी।

कुल मिलाकर कहा जाए तो मोदी सरकार जिस रास्ते पर आगे बढ़ रही है वह पूंजी के आदिम संचय का रास्ता है। इससे मजदूरों की तबाही होना सुनिश्चित है। इन नीतियों के कारण मेहनतकश मनुष्य से वस्तु (माल) में तब्दील होकर आधुनिक गुलामी में जीवन व्यतीत करने के लिए मजबूर होगा।

मजदूरों की जिंदगी की हिफाजत के लिए आज इस रास्ते को बदलना ही होगा। सरकार को संसाधनों में मेहनतकशों के हिस्से को सुनिश्चित करना होगा। वास्तव में आज देश में प्रति व्यक्ति आय 1 लाख 70 हजार रुपए वार्षिक है। लेकिन देश के 93 फीसदी मेहनतकश परिवार 10 हजार रुपए प्रतिमाह से कम में जीविका चलाते हैं। जबकि देश का खजाना आम जनता के टैक्स से भरता है।

पीआईबी की रिपोर्ट के अनुसार जीएसटी और पेट्रोलियम पदार्थों में टैक्स का 97.6 फीसदी हिस्सा देश का 90 प्रतिशत गरीब और मध्य वर्ग देता है। वहीं देश का 10 फीसदी उच्च वर्ग टैक्स में 2.4 प्रतिशत देता है। यानी कुल प्राप्त 27,48,718 करोड़ में से 26,82,748 करोड़ रुपए 90 फीसदी आम आदमी जमा करता है और उच्च वर्ग महज 65,969 करोड़ रुपए का योगदान देता है। आम आदमी से प्राप्त धन में मात्र 5 लाख करोड़ रूपए ही सरकार मनरेगा, मुफ्त राशन, शिक्षा-स्वास्थ्य आदि सामाजिक सुरक्षा क्षेत्र पर खर्च करती है। स्पष्टतः देश की आय का बड़ा हिस्सा कारपोरेट घरानों द्वारा हड़प लिया जा रहा है। इसने देश में असमानता को बड़े पैमाने पर बढ़ाने का काम किया है।

विश्व असमानता लैब की रिपोर्ट के अनुसार इस समय मौजूद असमानता 1922 में पैदा हुई असमानता से भी ज्यादा है और ऊपरी 10 फीसद लोगों के पास देश की सम्पत्ति का 65 प्रतिशत और आय का 57 प्रतिशत हिस्सा है। इसलिए मजदूर वर्ग को आने वाले समय में सामाजिक व जीवन सुरक्षा, मजदूर विरोधी नए लेबर कोड की हर हाल में समाप्ति, लोकतांत्रिक अधिकारों की रक्षा सर्वोपरि देश की आय और संसाधनों में हिस्सेदारी के लिए एक बड़ी राजनीतिक पहल के लिए अपने को तैयार करना होगा।

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