हिंदुस्तान की आजादी के पहले मुक्ति संग्राम 1857 में यूं तो मुल्क के लाखों लोगों ने हिस्सेदारी की और अपनी जां को कुर्बान कर, इतिहास में हमेशा के लिए अमर हो गए, लेकिन कुछ नाम ऐसे हैं, जिनकी बहादुरी के किस्से आज भी फिजा में गूंजते हैं। रामचंद्र पाण्डुरंग येवालकर उर्फ तात्या टोपे, जंग-ए-आजादी का एक ऐसा ही नाम है। 10 मई, 1857 से शुरू हुई पहली जंग-ए-आजादी, आजादी के मतवालों का केंद्र बने दिल्ली में 11 मई से 20 सितंबर, 1857 तक यानी कुल चार महीने चली। लखनऊ में 10 महीनों तक यानी 21 मार्च, 1858 तक और बिहार में इस जंग का मोर्चा कुंवर सिंह और अमर सिंह ने अक्तूबर 1858 तक संभाला।
वहीं दूसरी तरफ तात्या टोपे ऐसे अकेले शख्स थे, जो अंग्रेजों के खिलाफ लंबे समय तक यानी 17 जुलाई, 1857 से लेकर अप्रैल, 1859 तक मैदान में डटे रहे। गोया कि तात्या टोपे ने अपनी गुरिल्ला यु़द्ध कला से ब्रिटिश साम्राज्य की नींव को हिला कर रख दिया था। उन्होंने दुश्मन अंग्रेज सेना के खिलाफ लंबे दौर तक संघर्ष जारी रखा। जब स्वतंत्रता संघर्ष के सभी नेता एक-एक कर अंग्रेजों की आला सैनिक शक्ति के आगे पराजित हो गए, तो वे अकेले ही थे जिन्होंने बगावत का परचम बुलंद किए रखा।
उन्होंने लगातार कई महीनों तक उन आधा दर्जन ब्रिटिश कमांडरों को छकाया, जिनके युद्ध कौशल को सारी दुनिया सराहती थी। वे अपराजेय ही बने रहे। आखिर में तात्या टोपे जब अंग्रेजों के चंगुल में आए भी तो शिकस्त के बाद नहीं, बल्कि अपनों की ही गद्दारी से। 18 अप्रेल, 1859 को उनको फांसी दिए जाने के बाद ही क्रांति की अंतिम चिंगारी बुझी।
अप्रतिम शौर्य की मिसाल मराठा वीर तात्या टोपे का जन्म नासिक के पास एक छोटे से गांव येवाले में 6 जनवरी, 1814 को हुआ था। औसत कद काठी के तात्या टोपे की जिंदगी की शुरुआत सामान्य ढंग से हुई। वे बिठूर में नाना साहब पेशवा के प्रधान लिपिक थे, लेकिन नाना साहब की जिंदगी में आए उतार-चढ़ाव उनकी जिंदगी में भी बदलाव लेकर आए। साल 1851 में मराठा सरदार पेशवा बाजीराव द्वितीय की मृत्यु के पश्चात् नाना साहब उनके स्वाभाविक उत्तराधिकारी बने। मगर लार्ड डलहौजी की हड़प नीति ने पेशवा बाजीराव द्वितीय के दत्तक पु़त्र नाना साहब को उनके राज्य, पदवी और पेंशन से बेदखल कर दिया। श्रीमान नाना धांधू बहादुर उर्फ नाना साहब बिठूर में अपनी खोई हुई मराठा सल्तनत को दोबारा बहाल करना चाहते थे। आखिरकार, उन्हें अंग्रेजों से अपनी पराजय और अपमान का बदला लेने का मौका मिला मई, 1857 में।
कानपुर में सिपाही विद्रोह के बाद नाना साहब ने विद्रोही सेना की कमान थाम ली और कानपुर पर कब्जा करने में कामयाब हो गए। संकट की इस घड़ी में तात्या को भी अपनी सैनिक योग्यता दिखाने का मौका मिला और जल्दी ही वे नाना के सैनिक सलाहकार बन गए। तात्या टोपे जो 1857 क्रांति की अजीम बगावत से पहले नाना साहब के एक तरह से साथी-मुसाहिब भर थे, का पेशवा की सेना के सेनाध्यक्ष पद तक पहुंचना उनकी अद्भुत शौर्य गाथा को बतलाता है। यह इसलिए भी आश्चर्यजनक है कि तात्या जब 1857 की क्रांति में कूदे, तो उन्हें युद्ध का कोई अनुभव नहीं था।
उस दौर के औसत नौजवानों की तरह वे भी जंग के तौर-तरीकों से वाकिफ भर थे। हां, गुरिल्ला युद्ध, जिसमें उन्होंने अपने दुश्मनों को बड़ी महारत से मात दी, मराठा जाति का स्वाभाविक गुण था। जो उन्हें पीढ़ी दर पीढ़ी हासिल हुआ था। बहरहाल, वक्त की मार और किस्मत के फैसले ने तात्या टोपे को अपने से कई गुना ताकतवर अंग्रेजों की फौज के सामने लाकर खड़ा कर दिया था। अपने ऊपर आन पड़ी इन जिम्मेदारियों से तात्या ने कभी मुंह नहीं मोड़ा और अपनी सरजमीं को आजाद कराने की खातिर आखिरी वक्त तक अंग्रेजों से लड़ते रहे।
उत्तर भारत में सत्ता के दो बड़े केंद्र रहे कानपुर और ग्वालियर पर विजय तात्या टोपे का अहम कारनामा था। कानपुर में तो तात्या का सामना क्रीमिया युद्ध के हीरो मेजर विंडहम से हुआ। अपने सीमित संसाधनों के बावजूद तात्या ने जंग के मैदान में उसे भी मात दे दी। ग्वालियर पर जीत तात्या टोपे की सबसे बड़ी जीत थी। ग्वालियर पर विजय प्राप्त कर तात्या टोपे का इरादा दक्षिण में क्रांति का विस्तार करना था। अपनी योजनाओं को सरअंजाम तक पहुंचाने के लिए, तात्या को कुछ दिन ही मिल पाए थे कि अंग्रेज सेना से फिर उन्हें टक्कर लेनी पड़ी।
ग्वालियर के पास कोटा की सराय में क्रांतिकारी मराठी नेताओं और झांसी की रानी लक्ष्मीबाई के साथ उन्होंने अंग्रेजी सेना से एक और युद्ध किया। जौरा अलीपुर की पराजय के पश्चात् मध्य भारत में विद्रोह की रीढ़ टूट गई। रानी लक्ष्मीबाई की वीरगति और क्रांतिकारी नेताओं के समर्पण के बावजूद तात्या टोपे ने अपनी हार नहीं मानी। युद्ध में अपने साथी, सेना और हथियार गंवा चुके तात्या ने अंग्रेजों से मुकाबला करने के लिए अब बिल्कुल अलहदा रणनीति अपनाई।
उनकी ये रणनीति थी, गुरिल्ला युद्ध यानी हमला करो और भाग लो। 22 जून, 1858 में जौरा अलीपुर की पराजय से लेकर 7 अप्रेल, 1859 को अपने पकड़े जाने तक तात्या टोपे अंग्रेजी सेना के चक्रव्यूह से बचते हुए चूहे-बिल्ली का खेल खेलते रहे, जिसकी वजह से बाद में उन्हें दुनिया का सर्वश्रेष्ठ गुरिल्ला सेना नायक के रूप में ख्याति मिली।
तात्या के छापामार कारनामे कानपुर से लेकर राजपूताना और मध्य हिंदुस्तान तक फैले हुए थे। अंग्रेज कर्नल जीबी माल्सन, तो तात्या टोपे के गुरिल्ला पद्धति के युद्ध कौशल का जैसे मुरीद ही हो गया था। अपनी किताब ‘हिस्ट्री आफ इंडियन म्यूटिनी’ में माल्सन लिखता है, ‘‘ऐसा व्यक्ति जिसके पास साधारण किस्म की सेना हो, चारों तरफ से दुश्मनों से घिरा हुआ हो, फिर भी महीनों तक विश्वविख्यात सेनाध्यक्षों के साथ लुका-छिपी खेलकर उन्हें खिजाते रहे, युद्ध कला के इतिहास में मुश्किल से उसकी समानता का कोई दूसरा व्यक्ति होगा।’’
जौरा अलीपुर में मिली हार से लेकर मीड द्वारा पकड़े जाने तक की अपनी लंबी भाग-दौड़ के दौरान तात्या टोपे ने कम से कम दो मर्तबा राजस्थान और मध्य भारत का दौरा किया और लगभग 16 लाख 17 हजार वर्ग मील रास्ते को नाप डाला। कई बार नर्मदा पार की। किसी भी लिहाज से देंखे, तो यह उनका अद्भुत साहसिक कारनामा था। अपने साहसिक कारनामों से तात्या, दुश्मन सेना के सेनाध्यक्षों की नाक में दम करे रहे। उनको अपनी गिरफ्त में लेने के लिए अंग्रेजों के आधा दर्जन दस्ते पीछे पड़े हुए थे।
एक वक्त तो उत्तर में नैपियर, उत्तर-पूर्व में बिग्रेडियर शावर्स, दक्षिण में माइकेल और पश्चिम तथा दक्षिण-पश्चिम में बिग्रेडियर होनर द्वारा तात्या को चारों और से घेर लिया गया, लेकिन जैसा कि डॉ. सुरेंद्रनाथ सेन अपनी किताब ‘अठारह सौ सत्तावन’ में लिखते हैं, ‘‘तात्या ने इन सभी सेनाध्यक्षों पर दुलत्ती सी झाड़ दी। गुरिल्ला युद्ध में तात्या का कोई सानी नहीं था। उन्होंने दुश्मनों के स्टेशन बर्बाद कर दिए, खजानों को लूट लिया, आयुध शालाएं खाली कर दीं। यहां तक की मालगाड़ियां और डाक गाड़ियों को भी अपना निशाना बनाया।’’
मार्च, 1859 के आखिर तक अंग्रेजों की लाख कोशिशों के बावजूद तात्या टोपे को बंदी नहीं बनाया जा सका था। तात्या ने अपनी गिरफ्तारी की सभी कोशिशों को नाकामयाब कर दिया। जब सैनिक प्रयास असफल हो गए, तो अंग्रेजों ने उन्हें पकड़ने के लिए विश्वासघात का सहारा लिया। अपने ही लोगों की गद्दारी के चलते आखिरकार, तात्या टोपे अंग्रेजों के चंगुल में आए। अंग्रेजी हुकूमत के खिलाफ बगावत करने के इल्जाम में उन पर मुकदमा चलाया गया।
18 अप्रैल, 1859 को सीपरी वर्तमान में मध्य प्रदेश का शिवपुरी जिला, वहां किले के पास परेड मैदान में अंग्रेज सेना के कठोर पहरे में तात्या टोपे को हजारों लोगों के बीच फांसी दे दी गई। तात्या की मृत्यु के साथ ही 1857 क्रांति की आखिरी चिंगारी भी बुझ गई। जिस बहादुरी और शानदार तरीके से तात्या टोपे ने कानपुर और ग्वालियर विजय में अपना योगदान दिया, इससे उनका नाम भारतीय इतिहास में हमेशा के लिए अमर हो गया। ब्रिटिश इतिहासकार पर्सी क्रास स्टेंडिंग ने 1857 क्रांति में तात्या टोपे का मूल्यांकन करते हुए लिखा है, ‘‘हिंदुस्तान में विद्रोह के दौरान जो भी नेता सामने आए, वे उन नेताओं में हर तरह से श्रेष्ठ था। अगर उस जैसे एक दो और होते, तो इसमें कोई शक नहीं कि हिंदुस्तान अंग्रेजों के हाथ से निकल गया होता।’’
(मध्य प्रदेश निवासी लेखक-पत्रकार जाहिद खान, ‘आजाद हिंदुस्तान में मुसलमान’ और ‘तरक्कीपसंद तहरीक के हमसफर’ समेत पांच किताबों के लेखक हैं।)