1993 में आई फिल्म ‘दामिनी’ के नायक सन्नी देओल का वह डायलॉग आज भी रह-रहकर जुबां पर आ जाता है जिसे उन्होंने वकील गोविंद की भूमिका में अदालत के सामने दलील रखते हुए कही थी। तारीख पे तारीख, तारीख पे तारीख… वाला यह डायलॉग आम जनता के दिल की चीख-पुकार है जो अदालतों के चक्कर लगा-लगाकर थक जाते हैं और उन्हें न्याय की जगह मिलती है एक और तारीख, फिर से तारीख। यह सिलसिला वर्षों तक चलता रहता है। इस फिल्म के आए तीन दशक हो गए। इस बीच सदी भी बदल गई। तो क्या अदालतों का हाल सुधर गया? कोई भी उम्मीद तो यही करेगा, लेकिन हकीकत अलग है। आंकड़े बताते हैं कि जब फिल्म आई थी, तब देश की अदालतों में 80% मुकदमे लंबित थे और अब यह आंकड़ा बढ़कर 90% पर पहुंच गया है।
देश की अदालतों में लंबित मामलों की बाढ़
देश में क्रमिनिल जस्टिल सिस्टम की दुर्दशा की गाथा बहुत पुरानी है, इसलिए सुधार की मांग भी लंबे समय से उठ रही है। इसके लिए सरकारों ने बीच-बीच में कवायदें भी की हैं, लेकिन कोशिशें किसी ठोस नतीजे पर नहीं पहुंच सकी हैं। न्यायिक सुधारों पर जस्टिस वीएस मलिमथ कमिटी की रिपोर्ट को ही ले लीजिए। वर्ष 2003 में आई यह रिपोर्ट कहती है कि भारी संख्या में लंबित पड़े मुकदमे और आरोपियों पर दोषसिद्धी की बहुत कम दर के कारण अदालतों की दशा बेहद दयनीय है। लेकिन इस रिपोर्ट का हुआ क्या? जवाब है कि अदालतों में सुनवाई के लिए पड़े लंबित मामलों का पहाड़ और ऊंचा हो चुका है। रिपोर्ट आने के बाद अब तक के दो दशकों में दोषसिद्धी की दरों में सुधार आया था, लेकिन पिछले वर्ष 2021 में फिर गिरावट आ गई। मलिमथ कमिटी की रिपोर्ट में बताया गया था कि विकसित देशों में 90 प्रतिशत मामलों में आरोपियों पर दोष साबित होता है और उन्हें सजा मिलती है जबकि भारत में यह दर बहुत कम है।
बलात्कार, हत्या के मुकदमों के लिए लंबा इंतजार
2021 में हिंसक अपराधों के करीब 11 लाख और लापरवाही से हुई मौतों के 2 लाख से अधिक मुकदमे पिछले तीन साल से भी ज्यादा वक्त से लंबित थे। इनमें 50 हजार रेप केस भी शामिल हैं। सोचिए देश में रेप पीड़िता को वर्षों तक न्याय का इंतजार करना पड़ता है जैसा कि फिल्म दामिनी में दिखाया गया था।
49 लाख लंबित मामले 3 साल से भी ज्यादा पुराने
1.44 करोड़ आपराधिक मुकदमे देश की अदालतों में लंबित हैं। इनमें 70 प्रतिशत मुकदमे 2021 में 1 साल से ज्यादा जबकि 34 प्रतिशत मुकदमे 3 साल से ज्यादा पुराने थे। 2021 में 4.2 लाख मुकदमे ऐसे थे जो 10 साल से ज्यादा पुराने थे।
जितनी ज्यादा पुराने केस, फैसला आने की उम्मीद उतनी कम
विभिन्न अदालतों में सुनवाई के लिए लंबित कुल मुकदमों में आधे पर एक साल के अंदर फैसले आ जाते हैं। लेकिन अगर केस लटक गए तो फिर न्याय मिलने की उम्मीद दिन-ब-दिन घटती जाती है।
जितना लटकता है मुकदमा, सजा मिलने की गुंजाइश भी उतनी कम
जस्टिस मलिमथ रिपोर्ट कहती है कि मुकदमा जितना पुराना पड़ता जाता है, आरोपी के बरी होने का चांस उतना बढ़ता जाता है। कारण यह है कि कई साक्ष्य खत्म हो जाते हैं या फिर गवाह मुकर जाते हैं या समय के साथ-साथ उनकी स्मृति कमजोर पड़ती जाती है। इस बीच आरोपी को भी गवाहों को प्रभावित करने का मौका मिल जाता है। 2020 में देश में प्रति 100 मुकदमों में 59.2 में सजा होती थी। यह आंकड़ा 2021 में घटकर 57 प्रतिशत रह गया। पिछले वर्ष कुल दोषसिद्धी की दर के मुकाबले हिंसा के अपराधों में दोषसिद्धी की दर कम रही। इतना ही नहीं, सबसे ज्यादा गिरावट गैर-इरादतन हत्या के प्रयास और बलात्कार के मामलों में आई।
दोषसिद्धी में असम, ओडिशा, बंगाल का बुरा हाल
दिल्ली और केरल में दोषसिद्धी की दर 85 प्रतिशत से अधिक है। वहीं आंध्र प्रदेश, तमिलनाडु और तेलंगाना में 70 प्रतिशत से ज्यादा है। हालांकि, गुजरात में सिर्फ 21.1 प्रतिशत मुकदमों में ही दोषसिद्धी होती है। प. बंगाल, ओडिशा और असम में तो यह दर 10 प्रतिशत से भी कम है।