शोभा शुक्ला – सीएनएस
पिछले माह प्रकाशित “ज़ीनिक्स” (ZeNix) शोध के नतीजों ने यह सिद्ध कर दिया है कि दवा प्रतिरोधक टीबी का इलाज सिर्फ़ 6 महीने में हो सकता है (वर्तमान में अक्सर जिसमें 20-24 महीने या अधिक लगते थे), और इलाज की सफलता दर 40% – 50% से बढ़ कर 93% तक हो सकती है। इससे भी ज़्यादा ज़रूरी तथ्य यह है कि इस नए शोध में इस्तेमाल हुई दवाओं के कारण विषाक्तता बहुत कम हुई है।
दवा-प्रतिरोधक टीबी क्या है?
जब टीबी कीटाणु (बैक्टिरिया) किसी दवा से प्रतिरोधक हो जाता है तो वह दवा उसको मार नहीं पाती। ऐसी दवा-प्रतिरोधक टीबी के इलाज के लिए अन्य दवा का उपयोग किया जाता है जिसके प्रति वह कीटाणु प्रतिरोधक नहीं है। पर दवाएँ सीमित हैं इसीलिए दवा प्रतिरोधक टीबी का इलाज मुश्किल, लम्बा (2 साल तक या अधिक अवधि का), और जटिल हो जाता है, और इलाज के परिणाम भी अपेक्षानुसार नहीं रहते।
इलाज हज़ार गुना (या अधिक) महँगा भी हो जाता है (ध्यान दें कि भारत में सरकारी अस्पतालों में नि:शुल्क टीबी जाँच-इलाज उपलब्ध है)। यह अत्यंत चिंता की बात है कि हर 3-4 में से 1 दवा प्रतिरोधक टीबी से ग्रस्त व्यक्ति को इलाज मिल पा रहा है। दवाओं की विषाक्तता, उनसे हुई विकृतियाँ, आदि अनेक ऐसी चुनौतियाँ हैं जो दवा प्रतिरोधक टीबी के इलाज को अधिक कठिन बना देती हैं।
पिछले सालों में शोध हुए हैं जिनके कारण अब, दवा प्रतिरोधक टीबी का थोड़ा बेहतर और सहनशील इलाज संभव है। इसमें से सबसे नवीनतम ज़ीनिक्स शोध में इस्तेमाल हुई दवाएँ हैं जिनके कारण इलाज अवधि कम होती है, विषाक्तता कम होती है, इलाज सफलता दर लगभग दुगना हो रही है, और मृत्यु दर में भी बड़ी गिरावट है।
ज़ीनिक्स शोध हुआ क्यों?
यूनिवर्सिटी कॉलेज लंदन के डॉ कॉनर ट्वीड ने सीएनएस (सिटिज़न न्यूज़ सर्विस) को साक्षात्कार में बताया कि जीनिक्स शोध इसलिए हुआ क्योंकि 2020 में “निक्स-टीबी” शोध के नतीजे प्रकाशित हुए थे जिनसे यह ज्ञात हुआ कि दवा प्रतिरोधक टीबी के इलाज की अवधि 6 माह हो सकती है बशर्ते इलाज 3 दवाओं से हो – बी०पी०ए०एल० (BPaL – बिडाकुईलीन, प्रिटोमैनिड, और लीनोज़ोलिड)। इन दवाओं के इस्तेमाल से इलाज सफलता दर भी दुगना हो रही थी।
निक्स-टीबी शोध नतीजों ने एक चिंताजनक बात भी सामने रखी थी: लीनोज़ोलिड-सम्बंधित दवा विषाक्तता। लिनोजोलिड की अधिक मात्रा होने के कारण परिधीय तंत्रिका-विकृति की रिपोर्ट आयी। 2 रोगियों को नेत्र में तंत्रिका-विकृति हुई तो कुछ के “बोन मैरो” में सप्रेशन के कारण हीमोग्लोबिन का स्तर कम हो गया।
इसीलिए टीबी अलाइयन्स के नेतृत्व में सभी शोधकर्ताओं ने यह निर्णय लिया कि लीनोजोलिड-सम्बंधित विषाक्तता पर कैसे अंकुश लगे, और साथ-ही-साथ बी०पी०ए०एल० दवाओं की इलाज सफलता में कमी न आए – यह पता करने के लिए अधिक शोध करना ज़रूरी है। इसीलिए, जीनिक्स शोध किया गया कि क्या 90% इलाज की सफलता के साथ-साथ कम-विषाक्त इलाज मुमकिन है?
इस जी-निक्स शोध में 4 समूह थे जिनमें दवा-प्रतिरोधक टीबी के रोगियों का इलाज बी०पी०ए०एल० दवाओं (बिडाक्वीलीन, प्रीटोमानिड और लिनोजोलिड) से किया गया। जीनिक्स शोध के चारों समूहों में सब सामान्य था (निक्स-टीबी शोध के अनुरूप), सिवाय इसके कि लीनोजोलिड दवा की मात्रा और अवधि भिन्न थी:
– पहले समूह में लिनोजोलिड 1200 मिग्र, 6 माह तक लेना था
– दूसरे समूह में लिनोजोलिड 1200 मिग्र, 2 माह तक लेना था
– तीसरे समूह में लिनोजोलिड 600 मिग्र, 6 माह तक लेना था
– चौथे समूह में लिनोजोलिड 600 मिग्र, 2 माह तक लेना था
जीनिक्स शोध ने यह साबित किया है कि निक्स-टीबी शोध के नतीजे सही थे – 93% सफल इलाज सम्भव रहा। चारों समूह में इलाज सफलता दर 93% और 84% के मध्य रही। सबसे महत्वपूर्ण यह है कि जैसे-जैसे लिनोजोलिड दवा की मात्रा और अवधि कम हुई वैसे-वैसे विशक्तता भी कम हुई पर इलाज सफलता दर अधिक बनी रही।
जीनिक्स शोध को यूरोपी देशों और दक्षिण अफ़्रीका में किया गया था। जीनिक्स शोध ने यह भी सिद्ध किया कि यदि व्यक्ति दवा-प्रतिरोधक टीबी के साथ-साथ एचआईवी से भी सह-संक्रमित है तो भी बी०पी०ए०एल० दवाओं से इलाज उतना ही सफल रहता है। यह महत्वपूर्ण है क्योंकि एचआईवी पॉज़िटिव लोगों को होने वाले अवसरवादी संक्रमणों में से सबसे अधिक ख़तरा टीबी का रहता है – और सबसे बड़ी मृत्यु का कारण भी टीबी है। टीबी का बेहतर इलाज ज़रूरी है, और साथ-ही-साथ टीबी से पूर्णत: बचाव भी।
अमरीका के एफ़डीए ने दवा प्रतिरोधक टीबी से ग्रसित लोगों के इलाज के लिए बी०पी०ए०एल० दवाओं को पारित किया है और नवीनतम विश्व स्वास्थ्य संगठन गाइडलाइन्स भी इसका समर्थन करती हैं।
ज़रूरतमंदों को कब मिलेगा नया बी०पी०ए०एल० इलाज?
ज़मीनी हक़ीक़त यह है कि दवा प्रतिरोधक टीबी की जाँच तक सबको नसीब नहीं। विश्व स्वास्थ्य संगठन की वैश्विक टीबी रिपोर्ट के अनुसार, 5 लाख लोग हर साल दवा प्रतिरोधक टीबी से ग्रसित होते हैं परंतु एक-तिहाई से भी कम लोगों को जाँच-इलाज मिल पाता है। जो जाँच मिल रही है वह हर जगह नवीनतम जाँच नहीं है, कई जगह रिपोर्ट आने में 6-8 सप्ताह तक लग जाते हैं।
भारत के हर ज़िले में अब ऐसी जाँच उपलब्ध है (जीन एक्स्पर्ट) जिससे 100 मिनट में यह पता चलता है कि टीबी है कि नहीं, और रिफ़ैमपिसिन दवा से टीबी-कीटाणु प्रतिरोधक है कि नहीं। पर अन्य दवाएँ जैसे कि बिडाक्वीलीन से कीटाणु प्रतिरोधक है या नहीं, यह पता करने के लिए फ़िलहाल कोई ऐसी मॉडर्न जाँच नहीं – बल्कि पुरानी वाली जाँच हैं जिसके इस्तेमाल से रिपोर्ट आने में 6-8 हफ़्ते लगते हैं।
यह बहुत ज़रूरी है कि नवीनतम जाँच जैसे कि भारत की ट्रू-नैट, जीन एक्स्पर्ट, एक्स्पर्ट अल्ट्रा, एक्स्पर्ट एक्सडीआर, आदि हर जगह उपलब्ध हो जिससे कि हर रोगी को यह तुरंत पक्का पता चल सके कि उसको टीबी है कि नहीं, और यदि टीबी है तो कौन-सी दवाएँ उस पर असरदार रहेंगी (और कौन से दवाओं से उसका टीबी-बैक्टिरिया प्रतिरोधक है)।
जब तक हर दवा प्रतिरोधक टीबी से ग्रसित व्यक्ति को पक्की जाँच नहीं मिलेगी तब तक उसको नवीनतम इलाज कैसे मिलेगा? टीबी उन्मूलन कैसे सम्भव है? दवा प्रतिरोधक टीबी का संक्रमण फैलना कैसे थमेगा?
बिडाक्वीलीन से भी टीबी बैक्टिरिया हुआ प्रतिरोधक
एक लम्बे इंतेज़ार और लम्बे वैज्ञानिक शोध के पश्चात हमें टीबी की नयी दवाएँ मिली हैं। यदि इनसे टीबी बैक्टिरिया प्रतिरोधक हो गया तो न सिर्फ़ यह नयी दवाएँ इलाज में बेअसर हो जाएँगी बल्कि इलाज के विकल्प भी कम हो जाएँगे। टीबी दवाओं का समझदारी और ज़िम्मेदारी से सही इस्तेमाल करना अत्यंत ज़रूरी है जिससे कि दवा के दुरुपयोग से कोई दवा प्रतिरोधकता न उत्पन्न हो।
दक्षिण अफ़्रीका में 70 लोग जिनके टीबी इलाज में बिडाक्वीलीन शामिल थी, उनमें से 2 रोगियों को बिडाक्वीलीन से प्रतिरोधकता हो चुकी है। वर्तमान में बिडाक्वीलीन प्रतिरोधकता जाँचने के लिए पुरानी वाली जाँच इस्तेमाल होती हैं जिसकी रिपोर्ट आने में 6-8 हफ़्ते लगते हैं।
वहीं एक और शोध के अनुसार, जो रोगी रिफ़ैमपिसिन दवा से प्रतिरोधक थे उनमें से 2% बिडाक्वीलीन से भी प्रतिरोधक निकले।
टीबी मुक्त दुनिया के सपने को साकार करने के लिए सिर्फ़ 98 माह शेष
दुनिया की सभी सरकारों ने वादा किया है कि 2030 तक टीबी उन्मूलन के सपने को साकार करना है (और सभी सतत विकास लक्ष्यों पर खरा उतरना है)। इस लक्ष्य को पूरा करने के लिए सिर्फ़ 98 माह शेष हैं। भारत सरकार ने टीबी उन्मूलन के लक्ष्य को अगले 38 महीने में पूरा करने का निश्चय किया है। इन लक्ष्यों को पूरा करने के लिए और मानवाधिकार की दृष्टि से भी यह अत्यंत ज़रूरी है कि हर टीबी रोगी को सही और समय से जाँच मिले, सही असरकारी इलाज मिले, दवा प्रतिरोधकता पर अंकुश लगे, टीबी मृत्यु दर शून्य हो, और टीबी से बचाव कार्यक्रम अधिक सफल हों जिससे कि कोई भी टीबी रोग से न पीड़ित हो।
(शोभा शुक्ला, सीएनएस (सिटिज़न न्यूज़ सर्विस) की संस्थापिका-संपादिका हैं और लखनऊ के लारेटो कॉन्वेंट कॉलेज की भौतिक विज्ञान की पूर्व वरिष्ठ शिक्षिका रही हैं।)