नों तरफ दांव रखने और हर तरफ से फायदा उठाने की भारतीय विदेश नीति 2022 में यूक्रेन युद्ध शुरू होने के बाद बनी परिस्थितियों में एक हद तक कारगर होती नजर आई थी। तब भारत ने रूस की निंदा ना कर ग्लोबल साउथ में अपने लिए सकारात्मक भावना बनाई थी। लेकिन 2023 में इजराइल की निंदा ना कर भारत ने वह सद्भाव गंवा दिया है। उधर निज्जर-पन्नूं मामलों के सामने आने के बाद पश्चिम में भी उसकी वह स्थिति नजर नहीं आती, तो इस वर्ष जून-जुलाई तक आ रही थी।इस बीच ग्लोबल साउथ के नेता बन कर उभरे रूस और चीन के साथ भारत के संबंध भी चर्चा में हैं। चीन के साथ तो भारत का दुराव बढ़ता ही जा रहा है। 2020 से रिश्तों में गिरावट का शुरू हुआ सिलसिला किस मुकाम तक जाएगा, अभी अनुमान लगाना कठिन है। इस बीच रूस के साथ संबंध की स्थिति भी सवालों के घेरे में आ गई है।
सत्येंद्र रंजन
अगर अंतरराष्ट्रीय संबंधों के मामले में साल 2023 का लेखा-जोखा लें, तो भारत के लिए इस वर्ष का सर्वोच्च बिंदु जून में प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी की अमेरिका की राजकीय यात्रा रही। साढ़े नौ वर्ष पहले सत्ता में आने के बाद से अपनी विदेश नीति में अमेरिकी धुरी से निकटता बनाना मोदी सरकार की प्राथमिकता रही है। जून में हुई राजकीय यात्रा का निहितार्थ यह रहा कि इस दिशा में भारत सरकार ने अपेक्षित प्रगति की है। यह धारणा बनी कि अब हर व्यावहारिक अर्थ में भारत अमेरिकी खेमे का देश बन गया है।
इस वर्ष मोदी सरकार की दूसरी बड़ी कूटनीतिक सफलता जी-20 शिखर सम्मेलन के दौरान साझा घोषणापत्र पर आम सहमति बना लेना रही। तमाम अनुमान यही थे कि जी-7 और रूस-चीन खेमे में बढ़ते टकराव के कारण ऐसा करना संभव नहीं होगा। लेकिन भारत सरकार ने अपने कूटनीतिक प्रभाव का इस्तेमाल कर पश्चिमी देशों को साझा घोषणापत्र में यूक्रेन युद्ध का उल्लेख ना करने पर राजी कर लिया।
- शिखर सम्मेलन से ठीक पहले तक अमेरिका और उसके साथी देश साझा घोषणापत्र में यूक्रेन पर “हमले” के लिए रूस की दो टूक निंदा शामिल करवाने पर अड़े नजर आ रहे थे।
- उधर रूस के साथ-साथ चीन भी इसके लिए तैयार नहीं था।
मौजूदा भू-राजनीति के बीच यह ऐसी खाई है, जिसे पाटना आसान नहीं था। लेकिन करिश्माई ढंग से मोदी सरकार पश्चिमी देशों को झुकाने में सफल हो गई। नतीजा हुआ कि नई दिल्ली घोषणापत्र जारी हुआ।
वैसे भारत में प्रचारित आम कथानक में जी-20 की मेजबानी करने को ही बड़ी सफलता बताया गया है। लेकिन हकीकत यह है कि भारत को यह मेजबानी रोटेशन के आधार पर मिली। भारत इस समूह का सदस्य है, तो इसकी शिखर बैठक की मेजबानी का मौका मिलना एक स्वाभाविक प्रक्रिया का हिस्सा है। इसलिए इसे वर्तमान सरकार की सफलता बताना यथार्थ को तोड़-मरोड़ कर पेश करना है।
वैसे भी यह समूह अब अपनी प्रासंगिकता खो रहा है- या कहें काफी हद तक खो चुका है। दो खेमों में बंटती दुनिया के बीच इस समूह के अंदर कोई प्रभावी सहमति बनना या वैश्विक समस्याओं के हल के लिए इस समूह की तरफ से कोई सार्थक हस्तक्षेप हो पाना लगातार कठिन होता जा रहा है।
दुनिया में प्रासंगिक समूह अब जी-7 और ब्रिक्स प्लस-एससीओ (शंघाई सहयोग संगठन)-ईएईयू (यूरेशियन इकॉनमिक यूनियन) हैं। ब्रिक्स प्लस, एससीओ और ईएईयू में तालमेल लगातार बढ़ रहा है। इससे इनकी एक साझा पहचान उभर रही है। इस लिहाज से 2023 में भारत के लिए एक बड़ा मौका एससीओ की मेजबानी का भी था।
लेकिन जुलाई में हुए एससीओ शिखर सम्मेलन का ऑनलाइन आयोजन करने का एकतरफा फैसला कर भारत ने इसमें अपनी घटती दिलचस्पी का संकेत दिया। या कम-से-कम यह संकेत तो जरूर दिया कि उसकी नजर में यह समूह उतना अहम नहीं है, जितना जी-20 है। स्पष्टतः इसे गलत जगह दांव लगाने की एक मिसाल माना जाएगा।
भारत के इस नजरिए का नतीजा यह हुआ कि एससीओ शिखर बैठक के बाद जारी हुए साझा घोषणापत्र में भारत की भावनाओं का ख्याल नहीं किया गया। उसमें चीन के बहुचर्चित बेल्ट एंड रोड इनिशिएटिव (बीआरआई) की सराहना की गई। चूंकि भारत को इस पर एतराज था, इसलिए यह दर्ज कर लिया गया कि जो बात कही गई है, उससे भारत असहमत है। मगर यह गौरतलब है कि बीआरआई के पाकिस्तान कब्जे वाले कश्मीर से गुजरने के कारण इससे भारत की बुनियादी आपत्ति है।
उधर एससीओ में जो हुआ, उससे इस वर्ष अगस्त में आयोजित हुए ब्रिक्स शिखर सम्मेलन में भारत के संभावित रुख को लेकर संदेह और सघन हो गए थे। लेकिन ऐसे अनुमान दक्षिण अफ्रीका के जोहानेसबर्ग में ब्रिक्स शिखर सम्मेलन के दौरान निराधार साबित हुए। प्रधानमंत्री मोदी जोहानेसबर्ग गए। वहां उन्होंने ब्रिक्स के विस्तार और ब्रिक्स के सदस्य देशों के बीच भुगतान की डॉलर मुक्त व्यवस्था बनाने के प्रस्तावों को अपना पूरा समर्थन दिया। जबकि इसके पहले तक कयास थे कि भारत का इन बिंदुओं पर बाकी ब्रिक्स देशों से मतभेद है।
इसके बाद सितंबर में जी-20 का शिखर सम्मेलन नई दिल्ली में हुआ। हालांकि कूटनीति विशेषज्ञों की नजर में चीन के राष्ट्रपति शी जिनपिंग और रूस के राष्ट्रपति व्लादीमीर पुतिन के ना आने से इस से इस सम्मेलन की कुछ चमक कम हो गई थी, लेकिन भारतीय आवाम- खासकर अपने समर्थक तबकों के बीच मोदी सरकार इसकी मेजबानी को अपनी एक बड़ी उपलब्धि के रूप में पेश करने में कामयाब रही।
चूंकि औपनिवेशिक और साम्राज्यवादी प्रभाव के कारण आम भारतीय मानस में पश्चिमी देशों को श्रेष्ठ मानने का एक खास खास भाव बैठा हुआ है, इसलिए अमेरिका, ब्रिटेन आदि जैसे देशों के नेताओं की एक साथ उपस्थिति को मोदी राज में कथित रूप से भारत के बढ़ते प्रभाव के रूप में पेश करना सत्ता पक्ष के लिए आसान हो गया।
लेकिन इस सम्मेलन की समाप्ति के हफ्ते भर के अंदर उन्हीं पश्चिमी देशों से भारत की प्रतिष्ठा पर अभूतपूर्व प्रहार हुआ। कनाडा के प्रधानमंत्री जस्टिन ट्रुडो ने अपनी संसद में खड़े होकर भारत पर आरोप लगाया कि भारत सरकार कनाडाई धरती पर एक कनाडाई नागरिक की हत्या कराने में शामिल है।
वह कनाडाई नागरिक खालिस्तानी उग्रवादी हरदीप सिंह निज्जर था, जिसका नाम भारत में वांछित अपराधियों की लिस्ट में था। अमेरिका ने तुरंत यह स्पष्ट कर दिया कि इस मामले में वह कनाडा के साथ है। इस प्रकरण में एक के बाद एक आई खबरों ने भारत की बनी कथित प्रतिष्ठा पर गहरी छाया डाल दी। कनाडा के आरोप का मतलब है-
“भारत एक उच्छृंखल देश है, जो अंतरराष्ट्रीय कायदों को नहीं मानता और दूसरे देशों में हत्या कराने जैसे कार्यों में शामिल होता है।”
कनाडा ने इस बारे में कोई ठोस सबूत पेश नहीं किए हैं। लेकिन अमेरिका में एक ऐसे ही मामले में अभियोग दायर कर दिया गया है। उस मामले में इल्जाम है कि एक भारतीय अधिकारी ने अमेरिका और कनाडा की दोहरी नागरिकता रखने वाले खालिस्तानी उग्रवादी गुरपतवंत सिंह पन्नूं की हत्या कराने की योजना बनाई, जिसके लिए एक आपराधिक छवि के व्यक्ति (निखिल गुप्ता) को राजी किया गया, और गुप्ता ने इसके लिए सुपारी अमेरिका में एक ऐसे व्यक्ति को दी, जो अमेरिकी जांच एजेंसियों का जासूस निकला। भारत सरकार ने इस आरोप की जांच कराने का एलान किया है।
मगर कनाडा और अमेरिका के आरोपों पर अलग-अलग रुख अपनाने से भारत सरकार के नजरिए पर सवाल उठे हैं। कनाडा के मामले में भारत सरकार की प्रतिक्रिया आक्रामक रही। लेकिन अमेरिका के मामले में प्रतिक्रिया बिल्कुल उलटी नजर आई। इससे यह सवाल उठा कि क्या यह अंतर दोनों देशों की ताकत में अंतर को देखते हुए है। विदेश मंत्री एस जयशंकर ने कहा है कि कनाडा ने कोई सबूत नहीं दिया, जबकि अमेरिका ने दिया है, इसलिए रुख में यह अंतर है। लेकिन ये बात आसानी से गले नहीं उतरती।
इस प्रकरण ने जी-20 शिखर सम्मेलन की ‘सफल’ मेजबानी के आधार पर बनाए गए माहौल को काफी हद तक धूमिल कर दिया। वैसे भी जी-20 की ‘सफल’ मेजबानी अंतरराष्ट्रीय स्तर पर भारत के प्रभाव की सीमित झलक ही थी। पूर्व राजनयिक विवेक काटजू ने एक अंग्रेजी अखबार में लिखे लेख में इस पहलू का सटीक वर्णन किया।
उन्होंने लिखा- ‘चूंकि भारत अपने को ग्लोबल साउथ (विकासशील देशों) के नेता के रूप में पेश कर रहा है, इसलिए उसे घटनाओं के प्रति सचेत रहना चाहिए- ऐसी घटनाएं जो अनिवार्य रूप से हाई टेबल पर नहीं होतीं।’ उन्होंने लिखा- ‘देशों के बारे में राय सिर्फ उनके बड़े कदमों से नहीं बनती है, बल्कि उनके नागरिकों से संबंधित छोटे मामलों से या कानूनों को तोड़ने जैसी घटनाओं से भी बनती है। अक्सर उनके बारे में राय ऐसे मामलों से भी उतनी ही निर्धारित होती है, जितनी बड़े तेवरों और “स्पष्ट वक्तव्यों” से बनती है।’
ऐसी “छोटी घटनाओं” के तौर पर तीन प्रकरणों का जिक्र किया है-
- इस वर्ष नवंबर में यूनेस्को के कार्यकारी बोर्ड के उपाध्यक्ष के चुनाव में पाकिस्तान ने भारत को 38-18 वोटों के अंतर से हरा दिया। पाकिस्तान को भारत से 20 अधिक देशों का समर्थन मिलना सचमुच भारत की प्रतिष्ठा के लिए एक झटका था।
- काटजू ने इस बात का उल्लेख किया है कि पुरुलिया में हथियार गिराने के कांड के मुख्य अभियुक्त किम डेवी को भारत के हाथ सौंपने से इनकार कर रखा है।
- जबकि इटली के उन दो नौ सैनिकों को मोदी सरकार ने इटली को सौंप दिया था, जिन पर भारतीय समुद्री जल क्षेत्र में दो भारतीयों की हत्या करने का आरोप था।
इस क्रम में कतर में आठ पूर्व भारतीय नौ सैनिकों को हुई सजा का जिक्र भी किया जा सकता है, जिनकी सजा-ए-मौत तो माफ कर दी गई है, लेकिन विभिन्न अवधियों की कैद की सजा उन्हें सुनाई गई है। क्या भारत सरकार उन सबको वापस भारत ला पाएगी?
प्रश्न यह है कि अगर घटनाएं इस रूप में हो रही हैं, तो भारत का दुनिया में कितना और किस प्रकार का प्रभाव बना है?
ग्लोबल साउथ आज ब्रिक्स-एससीओ-ईएईयू जैसे मंचों के जरिए नई अंतरराष्ट्रीय व्यवस्था को तय करने में अपनी भूमिका बढ़ा रहा है। भारत की उपस्थिति इन मंचों पर है, लेकिन प्रश्न है कि क्या यहां उसकी नेतृत्वकारी भूमिका है?
भारत इन मंचों और जी-7 के साथ अपने गहराते रिश्तों को लेकर एक साथ दो नावों पर चलता दिख रहा है। इस कारण उसके लिए स्पष्ट रुख अपना पाना कठिन होता गया है। निज्जर-पन्नूं प्रकरण ने स्पष्ट कर दिया है कि साम्राज्यवादी खेमा अपने समकक्ष भारत को वह स्थान देने को तैयार नहीं है, जिसकी भारत अपेक्षा रखता है। बल्कि उन देशों के नजरिए से यह साफ है कि उनके लिए भारत की उपयोगिता सिर्फ यह है कि गहराते वैश्विक ध्रुवीकरण में चीन के खिलाफ उनकी लामबंदी में वह अग्रणी भूमिका ले।
उधर ग्लोबल साउथ में भारत की पश्चिम से निकटता एक संशय का विषय बनी हुई है। इजराइल-फिलस्तीन युद्ध में गजा में जारी इजराइली नरसंहार के बीच भारत के रुख से इस समूह में और विपरीत प्रतिक्रिया हुई है। ब्रिक्स के मौजूदा अध्यक्ष दक्षिण अफ्रीका के राष्ट्रपति सिरिल रामफोसा ने इस प्रश्न पर ब्रिक्स की ऑनलाइन शिखर बैठक आयोजित की, तो प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी ने उसमें भाग नहीं लिया।
उस बैठक में दो टूक लहजे में इजराइली नरसंहार की निंदा की गई और फिलस्तीनियों के अधिकार के प्रति समर्थन जताया गया। जबकि मोदी सरकार ने लड़ाई के आरंभ से ही इजराइल को पूरा समर्थन दे रखा है। स्पष्टतः ऐसे रुख के साथ ग्लोबल साउथ में सद्भाव हासिल करना और कठिन हो गया है।
दोनों तरफ दांव रखने और हर तरफ से फायदा उठाने की भारतीय विदेश नीति 2022 में यूक्रेन युद्ध शुरू होने के बाद बनी परिस्थितियों में एक हद तक कारगर होती नजर आई थी। तब भारत ने रूस की निंदा ना कर ग्लोबल साउथ में अपने लिए सकारात्मक भावना बनाई थी। लेकिन 2023 में इजराइल की निंदा ना कर भारत ने वह सद्भाव गंवा दिया है। उधर निज्जर-पन्नूं मामलों के सामने आने के बाद पश्चिम में भी उसकी वह स्थिति नजर नहीं आती, तो इस वर्ष जून-जुलाई तक आ रही थी।
इस बीच ग्लोबल साउथ के नेता बन कर उभरे रूस और चीन के साथ भारत के संबंध भी चर्चा में हैं। चीन के साथ तो भारत का दुराव बढ़ता ही जा रहा है। 2020 से रिश्तों में गिरावट का शुरू हुआ सिलसिला किस मुकाम तक जाएगा, अभी अनुमान लगाना कठिन है। इस बीच रूस के साथ संबंध की स्थिति भी सवालों के घेरे में आ गई है।
रूस के साथ लगातार दूसरे वर्ष हर साल के अंत में होने वाली शिखर वार्ता नहीं हुई। इस मौके पर प्रधानमंत्री की जगह विदेश मंत्री जयशंकर मास्को गए। उनकी यात्रा के दौरान अनेक कर्णप्रिय बातें कही गईं, लेकिन शिखर वार्ता का ना होना अपने-आप में इन दोनों देशों के रिश्तों में बढ़ी दूरी का सूचक बनी है।
इस बीच ऐसे संकेत हैं कि ब्रिक्स में शामिल होने के लिए पाकिस्तान के आवेदन को रूस पूरा समर्थन दे रहा है। चीन और ब्रिक्स के अन्य सदस्य देशों का समर्थन भी उसे मिलने की संभावना है। ऐसे में भारत क्या रुख अपनाता है, इससे 2024 में ब्रिक्स के साथ भारत के रिश्तों पर असर पड़ सकता है। 2024 में ब्रिक्स की मेजबानी रूस करेगा।
तो निष्कर्ष के तौर पर कहा जा सकता है कि 2023 भारतीय विदेश नीति के लिए कठिन वर्ष साबित हुआ। इसमें एक (या अधिकतम दो) हाई प्वाइंट के साथ अनेक लो (निम्न) प्वाइंट्स से उसे गुजरना पड़ा है। अगर इससे सबक लेकर 2024 में भारत सरकार ने मौजूदा वैश्विक ध्रुवीकरण और उभरती चुनौतियों के प्रति स्पष्ट रुख तय नहीं किया, तो यह संकट और गंभीर रूप ले सकता है। तब भारत के लिए वैश्विक समीकरणों में अलग-थलग पड़ने का खतरा अधिक ठोस रूप ले लेगा।