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बाजारवाद के दौर में शोषण से प्राप्त अकूत धन से कल सामंत ऐश करते थे और आज कॉर्पोरेट घराने

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हेमन्त कुमार झा,

एसोसिएट प्रोफेसर, पाटलीपुत्र विश्वविद्यालय, पटना

कहा जा रहा है कि अंबानी ने बेटे की शादी में पांच हजार करोड़ खर्च किए. इतनी चर्चा है तो किया होगा. उन्हें अधिकार है अपने शौक पूरे करने का और हमें एक सीमा से अधिक अधिकार नहीं है सार्वजनिक मंचों पर उन्हें इस बिना पर लानत मलामत भेजने का कि आखिर उन्होंने इतना ताम झाम क्यों किया.

जो हमें अधिकार है और जो हमें करना चाहिए वह तो करते नहीं. हमें अधिकार है कि हम सवाल उठाएं कि आखिर अंबानी का बिजनेस मॉडल क्या है कि उन्हें इतनी कमाई होती है, सरकार की आर्थिक नीतियों में उनका क्या और कितना दखल है, रिलायंस के निचले दर्जे के कर्मचारियों के प्रति उनका कैसा रवैया है, उन्हें वे कितना वेतन देते हैं.

हम खबरें पढ़ते हैं चटखारे लेते हैं लेकिन ऐसे किसी विमर्श में शामिल नहीं होते कि ऐसा क्यों हो रहा है और देश की बहुसंख्य आबादी की आर्थिक सेहत पर इसका कैसा कुप्रभाव पड़ रहा है ? अंबानी और अडानी जैसों के पसरते ही जाते आर्थिक साम्राज्य की पृष्ठभूमि में सत्ता और कॉर्पोरेट का जो नेक्सस अपना खेल कर रहा है, उस पर विमर्श होना चाहिए न कि इस बात पर कि अपने बेटे की शादी में उन्होंने किस तरह ऐश्वर्य प्रदर्शन किया.

बाजारवाद के दौर में एक कहावत बहुत आम है कि ‘पैसा बोलता है, …तो अंबानी का पैसा बोल रहा है और हमारे कानों में ऐसी ध्वनियां गूंज रही हैं कि बेटे की बारात में शामिल सम्माननीय अतिथियों को उन्होंने कितने करोड़ की घड़ी उपहार में दी, रिहाना को नाचने के कितने पैसे दिए, सितारों को खाना परोसने के एवज में क्या क्या दिया.

सामंतवाद के दौर में छोटे बड़े सामंत और राजे महाराजे अपने बेटे बेटियों की शादी को किस तरह उत्सव का रूप देते थे और किस तरह जनता से लूटे गए धन को पानी की तरह बहाते थे यह लोक श्रुतियों और इतिहास की कहानियों में हम पढ़ते सुनते रहे हैं. पहले भी सार्वजनिक शोषण से प्राप्त अकूत धन से ही सामंत लोग ऐश करते थे और आज भी वही कहानी है. अंतर यही है कि आज सामंत की जगह कॉर्पोरेट घराने हैं.

सौ वर्ष पहले भारत के किसी इलाके का नवाब या छोटा मोटा राजा कुछ दिनों के लिए दिल्ली आया था तो उसके साथ उसका मन बहलाने के लिए एक सौ सैंतीस पालतू कुत्ते और बिल्ली, तफरीह के लिए कई घोड़े, एक दर्जन रानियां, चालीस पचास दासियां, सौ पचास सेवक आदि आए थे. सुन कर कितना अजीब लगता है न. अंग्रेजी काल में ऐसे सनकी और अय्याश राजाओं, नवाबों, निजामों की कोई कमी नहीं थी जबकि उस दौर के समाज में पसरी भयावह गरीबी की चर्चा आज भी होती है.

गरीबी तो आज भी भयानक है. उससे भी भयानक है अमीरी और गरीबी का बढ़ता ही जाता अंतर. जब तक यह सार्वजनिक विमर्श का विषय नहीं बनेगा कि आखिर भारत आर्थिक विषमता बढ़ने के मामले में दुनिया के अग्रणी देशों में क्यों है, आजाद भारत के इतिहास में जिस नेता के नेतृत्व में आर्थिक विषमता बढ़ने की दर अपने सर्वोच्च स्तर तक पहुंच गई उसे राज करने के लिए लगातार तीसरा टर्म क्यों मिला, ये बंदरगाह, रेलवे स्टेशन, हवाई अड्डे आदि सरकारें क्यों न चलाएं, अडानी क्यों चलाए…तब तक न हमारा कल्याण होगा, न देश का कल्याण होगा.

जिस पार्टी, जिस नेता की नीतियों ने सार्वजनिक क्षेत्र की अभिशप्त कब्र पर निजी क्षेत्र की फसल लहलहाने को प्रोत्साहित किया, उसके पीछे कमोबेश पूरे देश की अधिकतर दलित वोटबैंक आधारित पार्टियां खड़ी हैं. सवाल है कि दलितों का आर्थिक उद्धार सार्वजनिक क्षेत्र के माध्यम से होगा कि निजी क्षेत्र के माध्यम से ? अगर दलित मतदाता इतनी भी समझ खुद में विकसित न कर सकें और भेड़ की तरह अपने शातिर और बेईमान हांकने वाले के इशारों पर चलते रहे तो वही होगा जो हो रहा है.

अति पिछड़ी जातियों के लिए भी यही सत्य है कि सार्वजनिक क्षेत्र का सिकुड़ना उनके बाल बच्चों के लिए अभिशाप साबित होगा. लेकिन, हिंदी पट्टी की अति पिछड़ी जातियों के नेताओं का राजनीतिक रुझान क्या है, यह कोई छुपी बात नहीं है. राजनीतिक प्राथमिकताओं का मेल जब तक आर्थिक प्राथमिकताओं के साथ नहीं होगा, तब तक देश की अधसंख्य आबादी यूं ही महंगे होते जाते डाटा के मूल्य चुका कर आधुनिक राजाओं, महाराजाओं की अपसंस्कृति को निहारती रहेगी.

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