अग्नि आलोक
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इंसानियत को तूने ठेंगे पर रखा,मुझसे यह नहीं होता

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राम अयोध्या सिंह

तुमने बेच दी जमीर अपनी,
तो क्या जरूरी है कि मैं भी बेच दूं,
शर्म का परित्याग कर दिया तूने,
तो क्या जरूरी है कि मैं भी कर दूं,
इंसानियत को तूने ठेंगे पर रखा,
मुझसे यह नहीं होता,
झूठ बोलना सीख लिया तूने,
मैंने सत्य बोलना सीख लिया,
मूर्खता की चादर ओढ़ लिया तूने,
मैंने इसे उतार कर फेंक दिया,
तूने आत्मसम्मान को गिरवी रख दिया,
मैंने गले से लगा लिया,
तूने स्वार्थ की जंजीरों से बांधा अपने को,
मैंने उन्हें तोड़कर फेंक दिया,
तू स्वार्थ में अंधा हो गया,
मैंने स्वार्थ की आंखें फोड़ दी,
तूने स्तुतिगान करना सीख लिया,
मैंने सवाल करना सीख लिया,
कुत्ता बन तू तलवे चाटने लगा,
मैंने उसे सत्य का आईना दिखा दिया,
तू दलाल बन करोड़पति हो गए,
मैं सवाल कर सड़क पर आ गया,
बेटे तुम्हारे विदेशों में पढ़ रहे,
और मेरे सरकारी स्कूल में,
विदेशी गाड़ी में घूमती है तेरी बीबी,
मेरी पैदल या रिक्शे से,
तुम्हारे पास आज महल है,
मेरे पास सिर्फ एक खंडहर,
तुम्हारे रिश्ते बड़े पर कम हैं,
मेरे रिश्ते छोटे पर अनगिनत हैं,
तुम्हें लोग सलाम करते हैं,
मुझसे लोग गले मिलते हैं,
तुम्हारे अपने भी दूर चले गए,
दूर वाले मेरे अपने हो गए,
तू वातानुकूलित कमरे में सोते हो,
मैं उमस में पुराने पंखे के साथ,
तुम रहते हमेशा हो छाए में,
मैं पसीने से नहाता हूं,
तुम इत्र लगा महकते हो फूलों सा,
मेरा पसीना महकता है मिट्टी सा,
तुमको डायबिटीज है,
बिना दवा, डाक्टर रह नहीं सकते,
मैं पैदल मीलों चलता हूं,
दवा और डाक्टर भाग जाते हैं,
तुम नींद की दवा लेते हो,
मैं मिट्ठी नींद सोता हूं,
तुम किसी और का फसल काटते हो,
पर मैं अपनी फसल बोता हूं.

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