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लोकगीतों से आ रही” युवा आवाज़ “सुनी जानी चाहिए!

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सुसंस्कृति परिहार


यूं तो लोकगीतों के अपने अनेक रंग हैं गर्भधारण से लेकर मृत्यु तक ऐसा जीवन का कोई अवसर नहीं जहां लोकगीत की पहुंच ना हो।इन गीतों में सब रंग हैं यानि रास है तो विछोह भी।हास परिहास है तो तीखी नोंकझोंक भी। पारिवारिक तमाम रिश्तों की मिठास और खटास को भी बेहद खूबसूरत अंदाज़ में पेश करने के अजीबोगरीब तौर तरीके हैं। यदि शालीन  सत्कार के लिए बधाई है तो तीखी तीखी गारी भी है।पर कहीं मलाल नहीं ।ऐसी संवेदनाओं का खजाना है लोक गीत।वास्तव में हम जिस लोकतंत्र की बात करते हैं उसमें ये लोकरंजन के नाम पर प्रत्येक गांव और आदिवासी हलकों में अपने अंतर की आवाज है जो घर से पारिवारिक होती हुई , फिर समाज तक पहुंचती तो है लेकिन उन भावनाओं को नज़र अंदाज़ कर दिया जाता है।यह लोकतंत्र की प्रमुख महत्वपूर्ण बुनियाद है।प्रथम सोपान भी कह सकते है।इसे सुने और समझे बिना विकास नहीं हो सकता।


पिछले तकरीबन बीस वर्षों से चुनाव प्रचार में  लोकगीतों का उपयोग होने लगा है प्रारंभ संभवतः बुंदेलखंड के उस गीत से हुआ जिसे एक फिल्म के ज़रिए लोगों ने सुना सराहा ही नहीं बल्कि प्रचार का जरिया बनाया।वह गाना था-“सखी सैंया तौ ख़ूबई कमात है, मंहगाई डायन खांए जात है।”इस लोकगीत से प्रेरणा ली गई और धीरे धीरे  लोकभाषा और लोकतर्जों  पर लोकगीत  चुनाव का आधार बनते गए। यहां एक विसंगति ज़रूर आई कि अब लोकगीत लोक की भावना से हटकर नेताओं और पार्टियों की तारीफ में लिखने का रिवाज बन गया। दूसरे शब्दों में कहें तो कुछ लोक कलाकार मीडिया की तरह कतिपय नेताओं के भोंपू बन गए और चांदी पीटने लगे।इस तरह अब लोकजीवन से आने वाली इस ईमानदार आवाज पर संकट गहराने लगा। 


ऐसी स्थिति में नेहा सिंह राठौर जो बिहार की हैं लेकिन इस समय बनारस में हैं जबकि विवेक रंजन सिंह मूलत:अमेठी से हैं, इलाहाबाद में रहते हैं के उत्तर प्रदेश चुनाव में जो लोकगीत सामने आए हैं उन्हें सुना और गुना जाना चाहिए। लोकगीतों की प्रश्न पूछने की जो प्राचीन परम्परा है जिसमें श्याम रंग वाले कृष्ण और राम को कटघरे में खड़ा कर सवाल होता है उनके माता-पिता गोरे हैं तो पुत्र श्याम कैसे ? जैसे गंभीर प्रश्न करने की छूट है।इसी को आधार बनाकर दोनों युवा लोकगीत लेखक और गायक आज की सत्ता से अनेकों सवाल करते हैं जिन समस्याओं को वे अपने आस पास देख रहे हैं।उनके गीतों में वह लोच है जो सुनने वाले को भी अपनी ओर बरबस खींच लेती है तथा उनमें एक थिरकन भर देती है।ये दोनों किसी पार्टी के प्रचारक नहीं है अपनी संवेदना के साथ समाज के लाखों करोड़ों लोगों की आवाज बन गए  हैं।
डिजीटल प्रचार की कड़ी में इन युवाओं की आवाज़ बराबर गांव गांव में भी पहुंच रही है और इसे महत्त्व भी मिल रहा है।नेहा सिंह  हालांकि बिहार विधानसभा चुनाव में ‘बिहार में का बा ‘ लोकगीत से जानी पहचानी जा चुकी हैं इसलिए उन्होंने यू पी राजनीति पर विस्तार से बात कही है एक युवती होकर जिस सुघड़ अभिनय के साथ वे निर्भीकता से गा रहीं हैं वह बड़ी बात है वहीं विवेक रंजन चूंकि लोकगीतों पर शोधकार्य कर रहे हैं और एक पुस्तक भी लिख चुके हैं इसलिए उनके लोकगीत नेता पर सीधे प्रहार ना करते हुए उन समस्याओं का कच्चा चिट्ठा खोलते हैं जिससे अवाम सीधे सीधे बावस्ता है। लोकगीतों में हुंकार और हामी का भरना ज़रुरी होता है इसका ख़्याल वे बराबर रखते हैं।इन दोनों के लोकगीत सिर्फ चुनावी नहीं है बल्कि समाज की तमाम विसंगतियों को लेकर सतत रुप से गाए जा रहे हैं।ये युवा इस बात की ताकीद भी करते हैं कि पुरानी परम्परा का निर्वहन बराबर कर रहे हैं।नेहा जी हालांकि एक इंटरव्यू में चुनाव लड़ने की बात कह रही हैं।जबकि विवेक का इरादा लोक गीतों की दिशा में गहराई से अध्ययन और विवेचन है। दोनों को हार्दिक शुभकामनाएं।वे अपने क्षेत्र में कामयाब रहें।
कुल मिलाकर लोकगीतों का बढ़ता दायरा,उसकी लोकप्रियता तथा युवा कलाकारों द्वारा इस महत्वपूर्ण विधा का सामयिक इस्तेमाल रुचिकर होने के साथ ज़रुरी बात जन जन तक पहुंचा रहा है यह श्लाघनीय है।  लोकगीत विधा में भाटगिरि या चारण की कोई परम्परा नहीं है।जो लोग इसका बेजा इस्तेमाल कर रहे हैं उसके ख़िलाफ़ संस्कृतिकर्मियों को आवाज उठानी चाहिए तथा उन युवाओं की आवाज़ सुनी जानी चाहिए जो जन जन की आवाज़ लोकगीतों के ज़रिए आप तक पहुंचा कर लोकतांत्रिक व्यवस्था को सुदृढ़ करने में लगे हैं।

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