हिमांशु जोशी
जिस देहरादून में लोग प्रकृति के पास आने के लिए घूमने चले आते थे ,वहां पिछले कुछ दिनों से बड़ी तेजी से पेड़ों का कटान चल रहा है।दिल्ली-देहरादून के बीच के सफ़र को ढाई घंटे का करने के लिए दिल्ली-सहारनपुर-दून 6-लेन इकॉनोमिक कॉरिडोर बनना है और इसी एक्सप्रेस-वे के लिए चल रहे काम में राजाजी नेशनल पार्क से लगे हुए आशारोड़ी से उत्तर प्रदेश के गणेशपुर तक 19 किलोमीटर के सफ़र को 15 मिनट कम करने के लिए सैंकड़ों साल पुराने वृक्षों का कटान जारी है।
इस कटान के खिलाफ चल रहे प्रदर्शन की अगुवाई करने वाली संस्था ‘सिटीजन फॉर ग्रीन दून’ के हिमांशु अरोड़ा बताते हैं कि गणेशपुर से आशारोड़ी के बीच सड़क पहले ही बहुत चौड़ी है, वहां मात्र एक लोहे का पुल है जो इस रास्ते को संकरा करता है। लोहे के पुल को चौड़ा कर ही ट्रैफिक को कम किया जा सकता था।
वह आगे बताते हैं कि आशारोड़ी से तीन किलोमीटर दूर पड़ने वाली टनल तक पहुंचने में अभी पांच मिनट लगते हैं और मात्र दो-तीन मिनट बचाने के लिए ही वहां लगभग 2500 पेड़ काट दिए जाएंगे। यह जगह हाथियों का गलियारा है और सैकड़ों प्रजाति के वन्य जीव, पक्षी और तितलियों की कई प्रजातियां यहां रहती हैं। पेड़ कटने के बाद उनका क्या होगा!
‘कम नुकसान पहुंचाओ’, इसका उदाहरण है सामने
पर्यावरण को कम से कम नुकसान पहुंचाने की शर्त में इन सड़कों को स्वीकृति मिल जाती है। वन काटने के बाद किए गए वृक्षारोपण का नतीजा हम पीएम मोदी के ‘मन की बात’ में भी उठ चुके रिस्पना के उदाहरण से ले सकते हैं।
हिमांशु अरोड़ा बताते हैं रिस्पना के करीब बीस किमी लंबे बहाव क्षेत्र में मृत रिस्पना नदी को पुनर्जीवित करने के लिए तत्कालीन मुख्यमंत्री त्रिवेंद्र सिंह रावत की अगुवाई में साल 2018 में नदी के दोनों ओर वृक्षारोपण हुआ और करीब दो लाख वृक्ष लगाने का दावा भी किया गया, पर अब वहां एक भी पेड़ नही दिखता।
देश के अग्रणी पर्यावरणविद रवि चोपड़ा, वरिष्ठ अधिवक्ता प्रशांत भूषण, वरिष्ठ पत्रकार त्रिलोचन भट्ट, ‘सिटीजन फॉर ग्रीन दून’ संस्था और कुछ युवाओं सहित उत्तराखंड के अलग-अलग हिस्सों में रहने वाले कुछ लोग इन पेड़ों के काटे जाने का विरोध कर रहे हैं। फिर भी ‘चिपको’ की इस धरती में चल रहा यह विरोध इन पेड़ों को बचाने के लिए काफी नही है।
पर्यावरणविद रवि चोपड़ा इस बारे में अपनी राय रखने पर कहते हैं भारत सरकार, नौकरशाहों और औद्योगिक घरानों ने तीव्र आर्थिक विकास के लिए जो गठबंधन कर लिया है उससे जमीनी स्तर पर पर्यावरण को नुकसान पहुंचाने में तेज़ी आई है।
समाज के बिना इन पेड़ों को कटने से नही रोका जा सकता। वह गौर से सुनने पर ज़ोर देते हुए कहते हैं जब मैं साल 1988 में देहरादून आया था तो मसूरी से बर्फ से ढके हुए पहाड़ दिखते थे। अब हम वहां बारिश के बाद ही जाते हैं ताकि वहां हमें धूल की वजह से बर्फ दिखने में कोई परेशानी न हो।धूल के कण से ग्लेशियर तेजी से पिघल रहे हैं, ऐसा इसलिए होता है क्योंकि हिमालय में धूल-मिट्टी अधिक धूप को अवशोषित कर लेती है, जो चारों ओर से बर्फ को गर्म करती है।इन सड़कों के बनने के बाद उत्तराखंड में ट्रैफिक बढ़ेगा और पहले से ही पिघल रहे ग्लेशियरों को अधिक नुकसान पहुंचेगा। जंगल मौसम परिवर्तन के दौर में हमारी सुरक्षा की पहली कतार है और हम जंगल काट अपने ही पैरों में कुल्हाड़ी मार रहे हैं।
रवि चोपड़ा देहरादून में आशारोड़ी-झाझरा के बीच बनने जा रही 11 किमी फोर लेन सड़क से भी चिंतित दिखते हैं, इस सड़क के लिए भी हज़ारों पेड़ों का कटान किए जाने की तैयारी है।
वह कहते हैं कि उत्तराखंड के लोहारी गांव को डुबाने वाली लखवाड़-व्यासी परियोजना के इलाके में डूब क्षेत्र का पचास प्रतिशत हिस्सा भी जंगल का इलाका ही है। अपर यमुना कैचमेंट में चल रहे ऐसे प्रोजेक्टों से भविष्य में क्या प्रभाव पड़ेगा, इसका मूल्यांकन कभी नही हुआ। पहले से ही खतरे में चल रहे यमुना के ग्लेशियर के लिए यह बड़ी समस्या है।लखवाड़ के अगल-बगल जो पहाड़ हैं उनकी ढाल स्थिर नही है और वहां भूस्खलन होते रहते हैं। वहां रहने वाले लोग चिंतित हैं कि क्या वो झील के ऊपर जाकर भी सुरक्षित रहेंगे। टिहरी में हम यह देख रहे हैं कि वहां झील के चारों तरफ भूस्खलन भयानक हो रहा है।
हिमांशु जोशी।