अमिता नीरव
26/11 के आतंकी हमले में मौका ए वारदात से पकड़े गए एकमात्र जिंदा आरोपी कसाब को जब गिरफ्तार करके उस पर मुकद्दमा चलाया जा रहा था, तब दक्षिणपंथी हमलावर होकर पूछते थे, ‘जब मौका ए वारदात से गिरफ्तार हुआ है तो उसे सीधे सजा क्यों नहीं दी जाती? मुकद्दमा क्यों चलाया जा रहा है औऱ जेल में सरकारी रोटियाँ क्यों तोड़ने दी जा रही है?’
तब मुझे भी लगा था कि हाँ, जब सब कुछ सामने है तो फिर यह कोर्ट, वकील, पेशी, जिरह इस सबका क्या मतलब है? क्यों देश के संसाधन एक ऐसे व्यक्ति पर जाया किए जाए जो सामने-सामने अपराध कर चुका है। उसे यह प्रिविलेज क्यों मिले कि उसका पक्ष भी रखा जाए!
जो भी हो, जिस भी वजह से किया हो, उसने देश पर हमला किया है औऱ कई लोगों की जान भी ली है। तो फिर सीधे सजा क्यों नहीं दी जानी चाहिए! कई दिन तक इस पर विचार किया था। धीरे-धीरे समझ आया कि यदि यह एक बार किया गया तो, एक गलत प्रैक्टिस चल निकलेगी।
बाद में कई सारे इनकाउंटर सामने आए। इसमें ताजा मामला हैदराबाद इनकाउंटर का याद आ रहा है, जिसे कोर्ट ने फर्जी माना और उसे अंजाम देने वालों को सजा तजवीज की है। इस सबसे यह समझ आया कि दरअसल सिर्फ कानून का पालन ही काफी नहीं है। कानून की प्रक्रियाओं का पालन करना बहुत जरूरी है।
आखिर कानून कितने ही खूबसूरत क्यों न हो, यदि उनकी प्रक्रियाओं के पालन पर जोर नहीं होगा तो उन खूबसूरत कानूनों का सत्ता उतनी ही खूबसूरती से अपने स्वार्थ के लिए इस्तेमाल कर ले जाएगी और नागरिकों को यह समझ ही नहीं आएगा कि आखिर गफलत कहाँ हुई है?
भारत के लिए जब पहली बार थर्ड वर्ल्ड कंट्री शब्द सुना था उस वक्त समझ ही नहीं आया था कि ये तीसरी दुनिया कौन-सी है। यदि हम तीसरी दुनिया के देश हैं तो बाकी की दो दुनिया के देश कौन से हैं? तब जबकि हम दुनिया की कुछ सबसे पुरानी सभ्यताओं में से एक हैं, तो फिर हमसे पहले की और दो दुनिया कैसे हो गईं?
इसी तरह देश के लिए डेवलपिंग कंट्री सुनती थी, तब भी धक हो जाती थी। लगता था कि हम कब तक डेवलपिंग कंट्री ही बने रहेंगे। अब तो हमें भी डेवलप्ड होना चाहिए। लेकिन जब ये सुनते थे कि इंडिया लार्जेस्ट डेमोक्रेसी ऑफ द वर्ल्ड है तो कसम से गर्दन एक सूत ऊपर की तरफ खींच जाती थी।
1989 में जब चीन के थ्येनआनमन चौक पर लोकतंत्र की माँग करने वाले प्रदर्शन हो रहे थे, तब गर्व होता था कि चीन से कमजोर ही सही, लेकिन हम एक डेमोक्रेटिक देश हैं। वो डेमोक्रेसी जिसके लिए चीन की जनता प्रदर्शन कर रही हैं। सत्ता से लड़ रही है।
इमरजेंसी के बारे में पढ़ा भी और सुना भी, लेकिन राहत इस बात ने दी कि आखिर देश की जनता ने डेमोक्रेसी की ताकत का प्रदर्शन किया और जिस सरकार ने जनता के नागरिक औऱ मौलिक अधिकारों का हनन किया, जनता ने उसे सत्ता से उखाड़ फेंका।
लगा कि दरअसल देश की जनता लोकतंत्र को आत्मसात करने लगी है।
दुनिया में लोकतंत्र का इतिहास डेढ़ हजार साल के आसपास का है। इसे विकसित करने में कई-कई देश, कई विचार, कई विचारक, सिद्धांतकार, सरकारें, संस्थाएँ, नागरिक समूहों का योगदान रहा है। लोकतंत्र का वर्तमान रूप कई सारे ट्रायल एंड एरर के बाद यहाँ तक पहुँचा है।
ऐसा नहीं है कि लोकतंत्र वहाँ पहुँच गया है जहाँ से इसमें आगे जाने की गुंजाइश नहीं है। हमारे यहाँ ही जब राइट टू इंफर्मेशन कानून लाया गया था तब लगा था हम और एक स्टेप आगे बढ़े हैं। नोटा लाया गया, अब राइट टू रिकॉल के बारे में सोचा जा रहा है।
कहने का मतलब यह है कि बाकी दूसरी राजनीतिक व्यवस्थाओं की तुलना में लोकतंत्र का पूरा फोकस नागरिक हैं, एक-एक नागरिक… और इस एक-एक नागरिक के अधिकारों की रक्षा करने के लिए कई-कई थ्योरिज है, कई-कई संस्थाएँ हैं और कई-कई प्रक्रियाएँ।
यहाँ याद रखने की जरूरत है कि संविधान, कानून, न्यायपालिका, कानून की प्रक्रियाएँ ये सब नागरिकों को सत्ता की निरंकुशता से बचाए रखने के टूल हैं, उपाय हैं। मामला हिंदू-मुसलमान या फिर अवैध निर्माण का नहीं है। मामला गलत तरीके से अवैध निर्माण को तोड़ने का है।
कानून का पालन करना ही काफी नहीं है, कानून की प्रक्रियाओं का पालन करना इस मायने में जरूरी है कि किसी भी किस्म की सत्ता नागरिक औऱ मौलिक अधिकारों का उल्लंघन करने का साहस न करें। जिन्हें लगता है कि यह ठीक है, उन्हें सोचना चाहिए कि कल आप भी इसकी जद में आ सकते हैं।
यदि सत्ता द्वारा संवैधानिक संस्थाओं औऱ कानूनों के दुरुपयोग को आप स्वीकार करते हैं तो इसका सीधा सा मतलब यह है कि आप अपने सारे अधिकार सरकार को सरेंडर कर रहे हैं। आज आपकी पसंद की सरकार है, कल हो सकता है वो सरकार आ जाए जिसे आप पसंद नहीं करते हैं। सत्ता का नया वर्जन पिछले वाले से ज्यादा क्रूर होता है।
यदि नागरिक अपने हक के लिए जागरूक नहीं रहे तो नई सत्ता आपके साथ वही बर्ताव कर सकती है, जो आज किसी दूसरे के साथ हो रहा है। यदि आपको लग रहा है कि आप किसी दूसरे की बर्बादी का जश्न मना रहे हैं तो आप गलतफहमी में हैं, आप दरअसल अपने ही अधिकारों की चिता पर पिशाचों की तरह नाच रहे हैं।