रामशरण जोशी
(मास के अंतिम सप्ताह में मोदी-सरकार अपनी तीसरी पारी का बजट देश के सामने रखेगी। दस वर्षों से नरेंद्र मोदी सत्ता में हैं।इस अवधि में बेरोज़गारी की विकराल शक़्ल सामने आई है। सरकार के ताज़ा आंकड़े ही बतलाते हैं कि पिछले सात सालों में अनौपचारिक क्षेत्र में 16 लाख 45 हज़ार कामगारों ने अपनी नौकरियों को खोया है। नोटबंदी, जीएसटी, कोविड जैसी घटनाओं से असंगठित क्षेत्र में काम-धंधों को भारी आघात लगा है। नतीज़तन, आम मज़दूरों को अपनी नौकरियां खोनी पड़ी हैं ; उत्तर प्रदेश, पश्चिम बंगाल, महाराष्ट्र, तमिलनाडु, बिहार जैसे राज्य बड़ी मात्रा में इसकी चपेट में आये हैं। अब देश की नज़रें 18 वीं लोकसभा के पहले बजट पर टिकी हुई हैं। यह बजट किस सीमा तक बेरोज़गारी का समाधान निकालता है, आज का अहम सवाल है? साथ ही इसके, इंडिया गठबंधन की भूमिका इस सवाल पर क्या रहती है और वह किस प्रकार का वैकल्पिक समाधान सामने रखता है, उसकी समानांतर आर्थिक नीतियां क्या हैं? देश यह भी जानना चाहेगा।)
बेशक़,18 वीं लोकसभा में कांग्रेस के नेतृत्व में इंडिया गठबंधन के रूप में विपक्ष की तगड़ी मौज़ूदगी है। इसका एहसास भी पिछले दिनों हुआ है। श्री नरेंद्र मोदी के नेतृत्व में भाजपा गठबंधन की सरकार की सांसें सांसत में हैं। राष्ट्रपति के सम्बोधन पर हुई चर्चा के दौरान सदन में विपक्ष के नेता राहुल गांधी और प्रधानमंत्री मोदी के बीच टकराव के नज़ारे भी देखने को मिले थे।बेशक, सवाल और तर्क की दृष्टि से राहुल प्रभावशाली दिखाई दिए, लेकिन गोदी मीडिया में मोदी जी ने सुर्खियां बटोरी थीं।बावजूद इसके, विपक्ष के नेता के रूप में युवा गांधी में काफी संभावनाएं नज़र आई हैं। ज़रूरत इस बात की है कि अब वे और उनका इंडिया गठबंधन ‘समान न्यूनतम कार्यक्रम (कॉमन मिनिमम प्रोग्राम )’ स्पष्ट रूप से देश के सामने रखें। आर्थिक प्राथमिकताओं का एजेंडा बतलायें। राजनैतिक लोकतंत्र से पहले ‘आर्थिक लोकतंत्र’ को पुनर्जीवित करें।
हाल ही में मुझे प्रसिद्ध राजनैतिक-सामाजिक एक्टिविस्ट कोबाद गांधी के साथ संवाद का अवसर मिला था। तकरीबन तमाम ज्वलंत मुद्दों पर दोनों के बीच संवाद हुआ। कोबाद गांधी अपने विचारों और ज़मीनी सक्रियता की वज़ह से सालों जेल-यात्रा भी कर चुके हैं। इस समय भी उनके विरुद्ध एक-दो अदालतों में कार्रवाई चल रही है। समय-समय पर उन्हें विभिन्न राज्यों की अदालतों में पेश होना पड़ता है। फिलहाल वे आर्थिक विषयों पर पुस्तक लिख रहे हैं और दिवंगत एक्टिविस्ट जीवन साथी अनुराधा गांधी के क्रांतिकारी लेखन के संकलन में जुटे हुए हैं। करीब पचास मिनिट की चर्चा पर आधारित आलेख को मैं प्रस्तुत कर रहा हूं।
कोबाद का मानना है कि कांग्रेस के नेता राहुल गांधी बिल्कुल सही मुद्दे उठा रहे हैं। मुद्दों का संबंध देश की सामान्य शोषित-उत्पीड़ित जनता से है। वे कांग्रेस को बदलने की कोशिश भी कर रहे हैं। उन्हें पार्टी का समर्थन भी है। लेकिन, राहुल को अपनी दृष्टि और साफ़ करनी चाहिए। यह सही है कि वे अम्बानी-अडानी कॉर्पोरेट घरानों पर निरंतर हमला भी कर रहे हैं। पिछले दिनों हमले कुछ ढीले ज़रूर पड़े थे। लेकिन, उन्होंने फिर से उन्हें तेज़ कर दिया है। जब पिछले दिनों मुकेश अम्बानी उनके निवास पर विवाह-निमंत्रण देने पहुंचे थे, उस समय राहुल वहां मौज़ूद नहीं रहे। सोनिया गांधी थीं। लेकिन, राहुल के साथ अंबानी की मुलाक़ात नहीं हो सकी।
राहुल गांधी ने ऐसा करके अच्छा ही किया। वरना गलत संदेश जाता। देश में करीब 200 कॉर्पोरेट घराने हैं, जिनमें से अम्बानी-अडानी सहित आठ-दस घरानों के हाथों में सरकार की नकेल है। मोदी-सरकार तो ‘कठपुतली’ मात्र है। इसलिए कॉर्पोरेट + याराना पूंजीवाद (क्रोनी कैपिटलिज़्म ) पर हमले जारी रखने चाहिए।
लंदन स्कूल ऑफ़ इकोनॉमिक्स के पूर्व छात्र रहे कोबाद गांधी ने राहुल और इंडिया गठबंधन की आलोचना भी की। उनके मत में दोनों ने अपने आर्थिक एजेंडे को अभी तक स्पष्ट नहीं किया है। इस गठबंधन को अस्तित्व में आए करीब एक साल हो चुका है। इसी बीच कर्णाटक व हिमाचल में कांग्रेस की सरकारें भी बनीं। इसके साथ ही घटक आप पार्टी ने भी पंजाब में अपनी सरकार बनाई है। लोकसभा के चुनाव भी हुए। सत्ता पक्ष की सीटें घटी हैं, विपक्ष की बढ़ी हैं। कांग्रेस 50 से 99 सीटों तक पहुंच गई है। बावजूद इसके इंडिया गठबंधन का कॉमन मिनिमम प्रोग्राम सामने नहीं आया है।
विपक्षी इंडिया की आर्थिक नीतियां स्पष्ट नहीं हैं। जब तक कांग्रेस समेत इंडिया के सभी घटक आर्थिक नीतियों पर एकमत नहीं होते हैं तब तक सामाजिक-राजनैतिक बातें बेमानी हैं। अर्थसत्ता ही सभी बातों के केंद्र में रहती है। इसीलिए राहुल गांधी को चाहिए कि वह अपने घटक सहयोगियों पर दबाव डाल कर ‘आर्थिक लोकतंत्र’ (इकनोमिक डेमोक्रेसी) का रोड मैप तैयार करें। इससे जनता में चेतना पैदा होगी और सरकार की जन विरोधी नीतियों से लड़ने में जन समर्थन मिलेगा।
आज जनता गठबंधन की दीर्घकालीन अर्थनीति को लेकर अंधेरे में है। करोड़ों लोगों के बैंक अकाउंट में हर महीने 8 -9 हज़ार रूपये डालने की घोषणा से काम नहीं चलेगा। इससे परजीविता बढ़ेगी। ज़रुरत इस बात की है कि गठबंधन व्यापक अर्थनीति की मार्ग दिशा को रेखांकित करे। इस समय देश को अर्थ व्यवस्था के लोकतंत्रीकरण की महती ज़रूरत है। राहत देने की घोषणाओं से तात्कालिक राहत तो पहुंच सकती है, लेकिन विषमता, ग़रीबी और बेरोज़गारी यथावत रहती हैं। मुकम्मल हल के लिए ज़रूरी है कि लोगों को स्थाई रूप से रोज़गार दिया जाए और उत्पादन के अधिकाधिक अवसर पैदा किये जाएं। रोज़गार और उत्पादन बढ़ने से लोगों की क्रय क्षमता बढ़ेगी और राजस्व पर बोझ नहीं पड़ेगा। इंडिया गठबंधन को चाहिए कि वह विपक्ष में रहते हुए अपने दीर्घजीवी आर्थिक योजनाओं को स्पष्ट करे और बतलाये कि कोर्पोरेटपतियों के साथ उसका कैसा व्यवहार रहेगा?
कोबाद गांधी ने दलील दी कि आने वाले सालों में दुनिया में विषमता और गहराने वाली है। विश्व बैंक और अंतरराष्ट्रीय मुद्राकोष का आकलन है कि 2025 में भारत सहित अन्य देशों में गरीब और अमीर के बीच खाई और अधिक चौड़ी होगी। भारत में इस समय लगभग 200 सौ कॉर्पोरेट घराने हैं, जिनमें से अम्बानी+अडानी समेत 8 -10 घरानों के पास देश की 40% दौलत ज़मा है।देश के 27 करोड़ लोग गरीबी की रेखा तले जैसे-तैसे जी रहे हैं और 80 करोड़ लोग 6 डॉलर यानि करीब 500 रुपये प्रतिदिन पर जीवन यापन कर रहे हैं। पिछले एक-दो सालों में ही ख़रबपतियों की दौलत में 41% का इज़ाफा हुआ है।
दुनिया में भारत में सम्पत्ति -कर सबसे कम 39% है जबकि अमेरिका जैसे विकसित व पूंजीवादी देश में इससे कहीं अधिक है।चीन में भी भारत से अधिक है। औसतन पूंजीवादी देशों में एकाधिकारपतियों से अधिक कर वसूली होती है। कुछ मामलों में कई अफ़्रीकी देशों से भी हम गये -बीते हैं। इसके विपरीत 50 प्रतिशत भारतीयों के पास सिर्फ तीन प्रतिशत की सम्पत्ति है। क्या यह त्रासद विषमता नहीं है? इस बढ़ती विषमता के बावज़ूद, मोदी-सरकार ने चंद कॉर्पोरेटपतियों को 16 लाख रुपये के क़र्ज़ की माफ़ी दी है, दूसरी तरफ क़र्ज़ -तले दबे होने के कारण किसान ख़ुदकुशी कर रहे हैं। इसी दर्दनाक मुद्दे को राहुल गांधी संसद के भीतर और बाहर उठाते रहते हैं। इस दिशा में गंभीरता के साथ सोच कर कार्रवाई होनी चाहिए।
कॉर्पोरेट की बेलग़ाम दौलत पर नियंत्रण होना चाहिए। यह ज़रूरी नहीं है कि उनकी समस्त दौलत को सरकार अपने कब्ज़े में लेले। ज़रूरत इस बात की है कि न्यायसंगत अर्थव्यवस्था की शुरुआत की जाए। मुक्त अर्थव्यवस्था की पैरवी नहीं की जा सकती। अम्बानी+अडानी जैसे घरानों की अकूत सम्पत्ति पर देर-सबेर नियंत्रण लगाना ही होगा। ज़रूरत यह भी है कि अम्बानी के जीओ फोन, अडाणी के फार्च्यून खाद्य तेल आदि वस्तुओं का बहिष्कार किया जाना चाहिए। अडाणी के पास खाद्य तेल की 80 प्रतिशत मोनोपोली समझी जाती है। इसके स्थान पर स्थानीय तेल उत्पादकों को प्रोत्साहित किया जाना चाहिए।
वामपंथी चिंतक एक्टिविस्ट ने यह दलील भी दी कि कॉर्पोरेट घराने बड़ी मक्कारी के साथ अपनी अवैध सम्पत्ति को बड़ी खूबसूरती के साथ छिपा जाते हैं। ये लोग आध्यात्मिक घरानों के ट्रस्टों को अपना रुपया दे देते हैं। पिछले ही दिनों एक घराने ने 10 हज़ार करोड़ रुपये एक आध्यात्मिक ट्रस्ट को दिए थे। ऐसा करना बिल्कुल ग़लत है। कोविड- काल में ख़रबपतियों की दौलत में ही भारी इज़ाफ़ा हुआ है, जबकि आम भारतीय की कमाई घटी है। कोर्पोरेटपति कभी नहीं चाहेंगे कि देश में समान अर्थ व्यवस्था अस्तित्व में आये। उन्हें मूलतः विषमतायुक्त अर्थव्यवस्था और सियासत प्यारी है। इसी वज़ह से विश्व में अमीर और ग़रीब के बीच विषमता निरंतर बढ़ती जा रही है।अब यह चरम स्तर तक पहुंचनेवाली है।
कोबाद गांधी के निष्कर्ष में मोदी+शाह सत्ताप्रतिष्ठान अपनी शासन -शैली को नहीं बदलेगा। भाजपा के नेता नितिन गडकरी से ज़रूर कुछ उम्मीद की जा सकती है। संघ और भाजपा के होने के बावजूद उनमें कुछ लोकतान्त्रिक प्रवृत्तियां दिखाई देती हैं।लेकिन, मोदी+शाह जोड़ी कॉर्पोरेट और याराना पूंजीवाद को ही संरक्षण देंगे। दुनिया में अंतरराष्ट्रीय खरबपति क्लब के करीब 2000 सदस्य हैं, जिनमें मुकेश, अडानी जैसे लोग शामिल हैं। इस क्लब के सदस्य कभी नहीं चाहेंगे कि विश्व के देशों में लोकतंत्र मज़बूत हो।
लोकतंत्र को कमज़ोर बनाये रखने के लिए वे फासीवादी तरीकों का भी इस्तेमाल करते रहते हैं। असमान आर्थिकी और राजनीति को बनाये रखने के लिए ‘निर्बल लोकतंत्र’ ज़रूरी है। कॉर्पोरेट पूंजीवाद की पहली पसंद है ‘मज़बूत राज्य और कमज़ोर लोकतंत्र’। मज़बूत लोकतंत्र में जनता सबल और विवेक संपन्न होती है। उसमें सरकार के सही और अच्छे कामों को परखने की समझदारी रहती है। उसमें फासीवाद का प्रतिरोध करने की क्षमता होती है। इसीलिए, कॉर्पोरेट पूंजीवाद ‘ कठपुतली शासकों’ को चाहता है। यह एक वैश्विक राजनैतिक- आर्थिक यथार्थ है।
ज़रुरत इस बात की है कि पूंजी और उद्योग एकाधिकारवाद का विरोध किया जाना चाहिए। पूंजी और उत्पादन के साधनों का न्यायसंगत वितरण किया जाना चाहिए। सभी को समान अवसर मिले, एक ऐसी व्यवस्था का निर्माण होना चाहिए। भ्र्ष्टाचार मुक्त शासन की ज़रुरत है; नीट -पेपर लीक जैसे महाघपले बंद होने चाहिए। बिहार में 15 दिनों के भीतर 10 पुलों का गिरना, भूमिगत मार्गों में पानी भर जाना भी चरम भ्र्ष्टाचार का प्रतीक है। इसलिए ज़रूरी है कि देश में मज़बूत लोकतंत्र और संविधान का शासन रहे। इंडिया गठबंधन को चाहिए कि उसके नेता- कार्यकर्त्ता जनता को जागरूक करने का अभियान चलायें। लोगों को ज़िम्मेदार नागरिक बनाया जाना चाहिए। वर्तमान समय में ‘ लोकतंत्र और संविधान की रक्षा’ ही हमारा ‘नागरिक धर्म’ है।