अर्बन नक्सल के हौवे की वापसी !
सुभाष गाताडे
‘मुझे पंडित नेहरू का भाषण याद आ रहा है-“आधी रात को भारत स्वाधीन होगा” 1 जुलाई की मध्यरात्रि भारत में पुलिस राज का आगाज़ होगा”
(“I am reminded of Pandit Nehru ‘s speech “ At the stroke of midnight India will awake to freedom”. At the stroke of midnight night 1st July 2024 India will awake to police raj” ) (1)
ऐसे अवसर बहुत कम आते हैं, जब कोई साधारण ट्वीट सामने आ रही वास्तविकता को स्पष्ट शब्दों में रेखांकित कर देता है। जानी-मानी वकील और मानवाधिकार कार्यकर्ता इंदिरा जयसिंह के एक पखवाड़े पहले किए गए ट्वीट ने भी इसी तरह की हलचल पैदा की थी। उनकी चिंता अगली सुबह लागू होने वाले तीन नए आपराधिक कानूनों को लेकर थी। और वह अकेली नहीं थी, अन्य प्रमुख वकील और मानवाधिकार कार्यकर्ता भी इस बारे में समान रूप से चिंतित थे।
इन कानूनों के बारे में पहले से ही व्यापक चिंताएं व्यक्त की जा चुकी हैं, जो ‘सरकारों के खिलाफ वैध, अहिंसक असहमति और विरोध का व्यापक अपराधीकरण’ करने में सक्षम बनाते हैं… ये कानून सत्तारूढ़ सरकार के हाथों में ‘अनियंत्रित, मनमाना और वस्तुतः असीमित शक्ति देती हैं, जिससे वह व्यावहारिक रूप से किसी को भी चुनकर गिरफ्तार कर सकती है, हिरासत में ले सकती है, मुकदमा चला सकती है और दोषी ठहरा सकती है, जिसमें उन्हें आतंकवादी और राष्ट्र-विरोधी करार देना भी शामिल है।
‘पुलिस राज’ का रूपक इस बात का संकेत था कि सत्ताधारी केवल ताकत की भाषा समझते हैं और न तो संवाद में विश्वास करते हैं और न ही अपने मित्रों के एक चुनिंदा समूह को छोड़कर किसी के साथ संवाद करने को तैयार हैं।
लेकिन शायद किसी को भी इस बात का जरा सा भी अंदाजा नहीं था कि आगे और भी कुछ होने वाला है।
चुनावों के बाद, महाराष्ट्र के मुख्यमंत्री एकनाथ शिंदे ने अपने एक भाषण में अर्बन नक्सल के एनजीओ में घुसपैठ करने और सरकार के खिलाफ ‘झूठे आख्यान’ बनाने में मदद करने की बात कही थी। (https://www.ptinews.com/story/national/-urban-naxals-have-entered-some-ngos-and-are-spreading-false-narratives-says-cm-shinde/1587856) विधान परिषद के चुनावों में कोंकण स्नातक निर्वाचन क्षेत्र के लिए भाजपा की एक रैली के दौरान दिए गए उनके भाषण को समय के अनुरूप नहीं माना गया।
किसी को भी यह अनुमान नहीं था कि इस भाषण के एक महीने के भीतर ही सरकार अर्बन नक्सल के ‘खतरे’ को रोकने के लिए एक विधेयक लेकर आएगी।
2. ‘महाराष्ट्र विशेष सार्वजनिक सुरक्षा अधिनियम 2024’ क्या है?
‘महाराष्ट्र विशेष सार्वजनिक सुरक्षा अधिनियम 2024’ (‘Maharashtra Special Public Security Act 2024) नाम के इस विधेयक का उद्देश्य “शहरी क्षेत्रों में नक्सलवाद और उसके समर्थकों के खतरे पर अंकुश लगाना” है। और इसमें “अगर कोई ऐसे गैरकानूनी संगठन के माध्यम से कोई गैरकानूनी गतिविधि करता है, उसे बढ़ावा देता है या करने का प्रयास करता है या करने की योजना बनाता है, तो सात साल की सजा और 7 लाख रुपये के जुर्माने का प्रावधान है।” इसमें यह भी प्रावधान है कि “अगर किसी गैरकानूनी संगठन का सदस्य बैठकों या गतिविधियों में भाग लेता है या बैठकों का प्रबंधन या सहायता करता है या बैठकों को बढ़ावा देता है या गैरकानूनी संगठनों के उद्देश्य में योगदान देता है, तो तीन साल की कैद और 3 लाख रुपये का जुर्माना लगाया जाएगा।”
यह राज्य को किसी भी संगठन को “गैरकानूनी” घोषित करने का अधिकार भी देता है- एक ऐसा निर्णय, जिसकी समीक्षा राज्य सरकार द्वारा गठित सलाहकार बोर्ड द्वारा की जा सकती है। छत्तीसगढ़, तेलंगाना, आंध्र प्रदेश और ओडिशा ने पहले ही ‘गैरकानूनी गतिविधियों की प्रभावी रोकथाम’ के नाम पर सार्वजनिक सुरक्षा अधिनियम लागू कर दिए हैं।
चौंकाने वाली बात यह है कि “इस अधिनियम के तहत सभी अपराध संज्ञेय और गैर-जमानती होंगे” और यहां तक कि अगर कोई व्यक्ति, जो गैरकानूनी संगठन का हिस्सा नहीं है, संगठन के लिए योगदान देता है या प्राप्त करता है या आग्रह करता है, तो उसे दो साल की कैद और 2 लाख रुपये का जुर्माना लगाया जाएगा।”
विधेयक के अस्पष्ट प्रावधानों को देखते हुए लगता है कि इसका दुरुपयोग किया जा सकता है और यह अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता के लिए खतरा है। पत्रकारों के अनुसार, ‘प्राकृतिक आपदाओं, महामारी या यहां तक कि पुल के ढहने की घटना पर रिपोर्टिंग करने वाले पत्रकारों के खिलाफ भी इन प्रावधानों को लागू किया जा सकता है।
इसे अतीत की प्रतिध्वनि के रूप में देखा जा सकता है, जब महाराष्ट्र के अधिकारियों द्वारा इन पर अंकुश लगाने के लिए इस तरह के सख्त कानून लागू करने के बारे में विचार करने की खबरें आई थीं।
3. मानव अधिकार कार्यकर्ता चिंतित क्यों हैं?
प्रमुख मानवाधिकार वकील कोलिन गोंसाल्वेस ने राष्ट्रीय दैनिक इंडियन एक्सप्रेस में एक लेख लिखा है, जिसमें उन्होंने बिल में अस्पष्ट प्रावधानों के बारे में बताया है, जिससे उनके “भाषण और अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता के अधिकार को इस बिल द्वारा कुचला जा सकता है।” उन्होंने आगे कहा है-“यह विधेयक अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता को कुचलने के लिए बहुत ही भद्दे तरीके से तैयार किया गया है। इसका उद्देश्य उत्पीड़न के खिलाफ अहिंसक संघर्ष को असंभव बनाना है। विधेयक के सभी प्रावधान पहले से ही गैरकानूनी गतिविधि रोकथाम अधिनियम, राष्ट्रीय सुरक्षा अधिनियम और सार्वजनिक सुरक्षा अधिनियमों में शामिल हैं। फिर, यह क्यों जरूरी है? इसका जवाब यह है कि राज्य को ऐसे कानून की जरूरत है, जिसका आतंकवाद से कोई लेना-देना न हो, लेकिन जो मानवाधिकार कार्यकर्ताओं के दिलों में दहशत पैदा करे और उनके काम को बाधित करे।”
अंत में उन्होंने ‘अर्बन नक्सल’ शब्द पर भी प्रकाश डाला है, जिसका प्रयोग तेजी से हो रहा है : “देश में एक भी न्यायाधीश ने कभी किसी आरोपी को “अर्बन नक्सल” नहीं कहा है। वेर्नोन गोंसाल्वेस के मामले में सुप्रीम कोर्ट ने घर में वामपंथी साहित्य मिलने को अपराध नहीं माना था। फिर भी प्रस्तुत बिल में इसका उल्लेख है। शोमा सेन के मामले में सुप्रीम कोर्ट ने कहा है कि केवल भागीदारी करना अपराध नहीं है। फिर भी, निर्दोष भागीदारी के लिए भी तीन साल की जेल की सजा होगी।”
शायद महाराष्ट्र सरकार द्वारा ‘नक्सलवाद पर अंकुश लगाने’ के लिए इतनी जल्दी विधेयक पेश करने का निर्णय प्रधानमंत्री मोदी या उनके सहयोगियों के चुनावी भाषणों या साक्षात्कारों में कही जा रही बातों से मेल खाता है, जिन्होंने भारत में संपत्ति के वितरण की स्थिति का सर्वेक्षण करने के कांग्रेस के विचार को या जाति जनगणना के लिए उनके प्रयास को ‘बेबुनियाद’ बताते हुए इसे “अर्बन नक्सल” और ‘माओवादी’ मानसिकता का उदाहरण” बताया था। मोदी के सबसे करीबी विश्वासपात्र अमित शाह ने भी इसी तरह की चिंताएं व्यक्त की थी।
इस तथ्य पर अधिक ध्यान नहीं दिया गया है कि न तो इस शब्द का प्रयोग न्यायपालिका द्वारा किया गया है और न ही यह गृह मंत्रालय की शब्दावली में मौजूद है। वास्तव में, भाजपा के किरण रेड्डी – तत्कालीन गृह मंत्री – जो गृह मंत्री अमित शाह के कनिष्ठ थे, ने सदन में स्पष्ट रूप से कहा था कि ‘अर्बन नक्सल’ शब्द सरकार की शब्दावली में मौजूद नहीं है।
क्या इसका मतलब यह है कि ‘अर्बन नक्सल’ शब्द के इर्द-गिर्द यह बहस निरर्थक है- जिसे आम जनता के गले में उतारने के लिए एक औपचारिक प्रतिक्रिया के रूप में समझा जा सकता है और यह सरकार या उसके समर्थकों को उन आवाजों को दबाने से नहीं रोकता है, जिन्होंने देश पर शासन करने वाली ताकतों की लूटपाट के खिलाफ चुप रहने से मना कर दिया है।
क्या सत्तारूढ़ दल को लगता है कि चूंकि नक्सलियों को हिंसक गिरोह के रूप में देखा जाता है, जो लोगों के लिए काम करने का दावा करते हैं, इसलिए अर्बन नक्सल का यह डर उन्हें उन लोगों को निशाना बनाने में मदद करता है, जो उनके साथ मिलकर काम करने से इनकार करते हैं।
यह एक दिलचस्प संयोग है कि गृह मंत्रालय की यह औपचारिक स्वीकृति कि अर्बन नक्सल शब्द उसके शब्दकोष में मौजूद नहीं है, इस बात से मिलती-जुलती है, जब उसने यह जवाब दिया था कि उसके पास ‘टुकड़े-टुकड़े गैंग’ के बारे में कोई जानकारी नहीं है-एक ऐसा शब्द, जिसका मूल अर्थ भारत के टुकड़े करना, इसकी क्षेत्रीय अखंडता पर हमला करना है। पिछले 8-9 वर्षों से आलोचनात्मक आवाजों को आतंकित करने, उनका अपराधीकरण करने के लिए इस शब्द का व्यापक रूप से उपयोग किया जा रहा है।
यह अब इतिहास का हिस्सा है कि कैसे हर दक्षिणपंथी इस ‘सर्वव्यापी’ ‘टुकड़े-टुकड़े गैंग’ की निंदा करने के लिए कोरस में शामिल हो गया था।( 10) प्रधानमंत्री मोदी खुद मई 2019 में एक चुनाव पूर्व रैली के दौरान इस शब्द का संकेत देते दिखे थे, जब उन्होंने कहा था, “देश को टुकड़े-टुकड़े करने वाले के साथ कांग्रेस खड़ी है…!”
जब गृह मंत्रालय से आरटीआई आवेदन के माध्यम से गैरकानूनी गतिविधियां रोकथाम अधिनियम (यूएपीए) के तहत ‘इस गिरोह पर प्रतिबंध’ लगाने के बारे में और इसके सदस्यों के बारे में पूछा गया था, तो मंत्रालय ने स्वीकार किया था कि उसके पास ऐसे किसी गिरोह के बारे में कोई जानकारी नहीं है। (11)
4. एजेंडे का खुलासा?
तब फिर इन शब्दों के लगातार उपयोग के क्या कारण है? हिंदुत्व वर्चस्ववादियों के लिए- जो भारत को एक हिंदू राष्ट्र में बदलना चाहते हैं और यह सुनिश्चित करना चाहते हैं कि बहुसंख्यक राष्ट्रवाद की उनकी दृष्टि आने वाले दशकों तक अपना प्रभुत्व बनाए रखे, ‘अन्य’ सब को चुप कराना, उन्हें अपने अधीन करना या कुचलना महत्वपूर्ण है। याद कीजिए, आरएसएस के दूसरे सुप्रीमो माधव सदाशिव गोलवलकर को- उनके वैचारिक स्रोत ने यह बिल्कुल स्पष्ट कर दिया था कि वे इन ‘अन्य’ सभी लोगों- मुसलमानों, ईसाइयों और कम्युनिस्टों- को कैसे आंतरिक दुश्मन मानते हैं और उनसे कैसे निपटना चाहते हैं।
इस तथ्य को देखते हुए कि इन दोनों शब्दों का समाज के मुखर वर्गों में भी व्यापक प्रचलन है, उन्हें लगता है कि भले ही ये आधिकारिक शब्दावली या कानूनों में मौजूद न हों, लेकिन फिर भी इन्हें उनके राजनीतिक-वैचारिक हथियार के रूप में आगे बढ़ाया जा सकता है।
वास्तव में, दुनिया के इस सबसे बड़े लोकतंत्र में केंद्र में उनके दस वर्षों के कार्यकाल ने उन्हें यह दिखा दिया है कि व्यापक जनता को इस बात से कोई परेशानी नहीं होती है कि सरकार ‘राष्ट्र विरोधियों’, ‘नक्सलियों’ या ‘देशद्रोह’, ‘राज्य के खिलाफ युद्ध छेड़ने’, ‘लोकतंत्र को उखाड़ फेंकने’ आदि में शामिल लोगों के खिलाफ कार्रवाई करती है। सत्तारूढ़ व्यवस्था अच्छी तरह जानती है कि विभिन्न आतंकवाद विरोधी कानूनों के कठोर प्रावधानों से लैस होकर, जहां वर्षों तक मुकदमा भी शुरू नहीं हो सकता है और जमानत मिलना भी लगभग असंभव है, ऐसे लोगों को- जो असहमत होने और असंतोष जताने का जोखिम लेने के लिए तैयार हैं – वर्षों तक जेल में सड़ने के लिए रखा जा सकता है।
कोई भी चिंतित नागरिक भीमा कोरेगांव मामले (12) को या जिस तरह से पूर्वोत्तर दिल्ली दंगों के आरोपी जेल में सड़ रहे हैं – और उन्हें जमानत भी नहीं मिल रही है- को धैर्य से देख सकता है और अनुमान लगा सकता है कि चीजें कहां पहुंच गई हैं।
दरअसल, सुशांत सिंह ने अपने हालिया लेख में भीमा कोरेगांव मामले में एक बहुत ही उपेक्षित पहलू को सामने लाया है:
“भीमा-कोरेगांव मामला, जिसमें 16 बुद्धिजीवियों और कार्यकर्ताओं पर कठोर आतंकवाद विरोधी कानूनों के तहत आरोप लगाए गए थे, मीडिया आउटलेट्स द्वारा महीनों तक एक कथित पत्र के इर्द-गिर्द बनाए गए जोरदार कथानक पर आधारित था, जिसमें मोदी की हत्या की साजिश का संकेत दिया गया था। हैरानी की बात यह है कि अब तक इस मामले में दर्ज किसी भी पुलिस आरोपपत्र में उस पत्र का उल्लेख नहीं किया गया है।”(13)
सत्तारूढ़ दल के इस व्यवहार को बेहतर ढंग से समझा जा सकता है, यदि हम इस बात पर नए सिरे से गौर करें कि राष्ट्रीय सुरक्षा सलाहकार अजीत डोभाल ने हैदराबाद में नव-नियुक्त आईपीएस अधिकारियों के समक्ष ‘युद्ध की भावी सीमाओं’ के बारे में अपना दृष्टिकोण कैसे साझा किया था :
“लोकतंत्र का सार मतपेटी में नहीं है। यह उन कानूनों में निहित है, जो इन मतपेटियों के माध्यम से चुने गए लोगों द्वारा बनाए जाते हैं। आप ही हैं, जो कानून के प्रवर्तक हैं… कानून तभी अच्छे होते हैं, जब उन्हें लागू किया जाता है और लोगों को इससे जो सेवा मिल सकती है, वह अच्छी होती है।… लोग सबसे महत्वपूर्ण हैं। युद्ध की नई सीमाएं – जिसे हम चौथी पीढ़ी का युद्ध कहते हैं – नागरिक समाज है। युद्ध अब आपके राजनीतिक या सैन्य उद्देश्यों को प्राप्त करने के लिए एक प्रभावी साधन नहीं रह गया है। वे बहुत महंगे और दुर्लभ हैं।”
(“Quintessence of democracy does not lie in the ballot box. It lies in the laws which are made by the people who are elected through these ballot boxes. You are the ones who are the enforcers of the law… Laws are only as good as they are executed and implemented and the service that people can get out of it.”
“People are most important. The new frontiers of war — what we call the fourth-generation warfare — is the civil society. War itself has ceased to become an effective instrument for achieving your political or military objectives. They are too expensive and unaffordable.”)
शायद अब यह समझना आसान है कि शासन सत्य की खोज करने वालों के साथ कैसा व्यवहार करता है (14 ), या कैसे उसने अचानक अरुंधति रॉय और कश्मीर के एक शिक्षाविद पर उनके 14 साल पहले दिए गए भाषण के लिए मुकदमा चलाने की अनुमति देना आवश्यक समझा है।(15) या फिर अर्बन नक्सल के इस काल्पनिक डर को फिर से क्यों खोजा और पुनर्जीवित किया जा रहा है।
वह यह अच्छी तरह से समझता है कि नौकरी या अन्य सम्मान जनक रोजगार, दूसरों के प्रति घृणा और दुर्भावना से रहित बेहतर और शांतिपूर्ण जीवन की तलाश में और बड़े पूंजीपतियों के साथ सरकार की बढ़ती सांठगांठ से परेशान लोग, हमारे संविधान से प्रेरणा लेते हुए शांतिपूर्ण तरीके से फिर से उठ खड़े होंगे, जिसने उन्हें सम्मान, समानता और न्याय का जीवन देने का वादा किया है।
5. निष्कर्ष: भारत में मैकार्थीवाद?
‘लोकतंत्र की जननी’ में ‘अर्बन नक्सल’ की चर्चा, विश्व के सबसे मजबूत लोकतंत्र- अमेरिका- के समान ही विवादास्पद युग की याद दिलाती है।
यह 1950 का साल था, जब रिपब्लिकन सीनेटर मैकार्थी ने एक भाषण दिया था, जिसमें अमेरिका के बारे में कहा गया था कि वह “कम्युनिस्ट नास्तिकता और ईसाई धर्म के बीच लड़ाई” में उलझा हुआ है। उन्होंने यह भी दावा किया कि उनके पास उन कम्युनिस्टों की एक सूची है- जो विदेश विभाग में काम कर रहे थे।
यह अब इतिहास बन चुका है कि किस प्रकार इन आरोपों के कारण ‘साम्यवादी विध्वंस’ की जांच शुरू हुई, जो लेखकों, सांस्कृतिक कार्यकर्ताओं, फिल्म निर्माताओं और अन्य विचारशील लोगों के विरुद्ध एक प्रकार का अभियान साबित हुआ, जिसके परिणामस्वरूप लोगों को अपनी नौकरियां खोनी पड़ीं, उनका कैरियर बर्बाद हो गया और कुछ को कारावास का सामना करना पड़ा।
50 के दशक के मध्य के बाद मैकार्थी ने अपनी सार्वजनिक लोकप्रियता खो दी, क्योंकि उनके कई आरोप झूठे साबित हुए। कुछ साल बाद, 1957 में उनकी बदनामी के साथ मृत्यु हो गई।
मैकार्थी की मृत्यु बहुत पहले हो चुकी है। मैकार्थीवाद, जिसे दूसरे “रेड स्केयर’ (लाल आतंक) के रूप में भी जाना जाता है, वह भी इतिहास के पन्नों में दफन हो चुका है; लेकिन हर जगह शासकों की सत्ता के सामने सच बोलने के लिए तैयार आलोचनात्मक, स्वतंत्र आवाजों को चुप कराने के लिए इसी तरह के ‘कारण’ खोजने की प्रवृत्ति बेरोकटोक जारी है।
शायद सुप्रीम कोर्ट के वरिष्ठ अधिवक्ता और ह्यूमन राइट्स लॉ नेटवर्क के संस्थापक-निदेशक कोलिन गोंसाल्वेस ने जिस तरह से अपने लेख का समापन किया है, उसे एक चेतावनी के रूप में देखा जा सकता है:
“क्योंकि न्यायपालिका ने हमें बार-बार निराश किया है, इसलिए सरकार इतनी साहसी हो गई है कि उसने एक कानून का मसौदा तैयार किया है, जिसके जाल में उन सभी लोगों को फंसाया जाएगा, जो अपने बच्चों के लिए एक बेहतर भारत बनाने के लिए बिना बंदूक या बम के संघर्ष कर रहे हैं।”(16 )
अब समय आ गया है कि सभी शांतिप्रिय और न्यायप्रिय लोग दीवार पर लिखी इबारत को समझें और भारत को एक धर्मनिरपेक्ष, समाजवादी, संप्रभु और लोकतांत्रिक गणराज्य के रूप में मजबूत करने के लिए, जिसमें सभी के लिए जगह हो, एक लंबे, कठिन और शांतिपूर्ण संघर्ष में आहूति देने के एक और दौर के लिए तैयार हो जाएं।
(सुभाष गाताडे , लेखक और वामपंथी कार्यकर्त्ता, न्यू सोशलिस्ट इनिशिएटिव से जुड़े सम्बद्ध हैं। अनुवादक संजय पराते अ. भा. किसान सभा से संबद्ध छत्तीसगढ़ किसान सभा के उपाध्यक्ष हैं।)
[ *मूल अंग्रेजी लेख https://countercurrents.org/2024/07/mccarthyism-in-india-the-return-of-the-urban-naxal-bogey/]टिप्पणियां और संदर्भ :
2. https://thewire.in/rights/defer-implementation-of-new-criminal-laws-former-civil-servants-to-centre
4. India Cable, 12.07.24
6. https://indianexpress.com/article/opinion/columns/maharashtra-urban-naxal-law-colin-gonsalves-9449360/; https://youtu.be/vji0e5zMrTw?si=u23IGGyPaxZqmPdS
7. https://www.moneycontrol.com/elections/lok-sabha-election/pm-modi-says-growth-trumps-handouts-criticises-urban-naxal-mindset-article-12711109.html ; https://www.moneycontrol.com/elections/lok-sabha-election/pm-modi-says-congress-pitch-for-caste-census-is-an-urban-naxal-thought-article-12709885.html
9. https://thewire.in/politics/urban-naxal-ministry-home-affairs
12. इस मुद्दे के विस्तृत उपचार के लिए देखें , ‘ ‘’The Incarcerations : BK 16 and the Search for Democracy In India’ Alpa Shah, William Collinsm 2024 ।
13. https://caravanmagazine.in/politics/footwear-modi-convoy?utm_source=substack&utm_medium=email
14. https://www.thehindu.com/data/india-press-freedom-has-rapidly-declined-in-recent-years-data/article68160411.ece; https://cpj.org/2024/06/french-journalist-sebastien-farcis-leaves-india-after-journalism-permit-revoked/ ; https://thewire.in/media/the-caravan-says-4-years-later-its-journalists-told-by-delhi-police-that-there-is-an-fir-against-them