अग्नि आलोक
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 दूरदर्शी काका हाथरसी 

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हाथरस में घटित कांड में 120 से अधिक लोग मारे गये हैं। काका हाथरसी ने अपने क्षेत्र की इस प्रवृत्ति को आज से साठ साल पहले ही पहचान लिया था और हास्य व्यंग्य की कविता ‘सत्संग’ लिखी थी। उसके अंश –

आइए प्रिय भक्तगण उपदेश कुछ सुन लीजिए
पढ चुके हो बहुत पोथी आज कुछ गुन लीजिए
हाथ में हो गोमुखी, माला सदा फिरती रहे
नम्र ऊपर से बनो, भीतर छुरी चलती रहे
देखकर वेदांत दर्शन, आ गया है होश कुछ
कर्म कैसे भी करूं, लगता न मुझको दोष कुछ
इन्द्रियां मेरी नहीं निर्लेप है यह आत्मा
पाप अथवा का पुण्य का मालिक वही परमात्मा
घेर कर कुछ शिष्यगण उनके गुरु बन जाइए
फिर मजे से मालपुआ और खीर उड़ाइए
चतुर साधू, मोक्ष की करते नहीं इच्छा कभी
क्योंकि रबड़ी की नहीं संभव वहाँ भिक्षा कभी
तर्क करने के लिए आ जाय कोई सामने
खुल न जाये पोल इस भय से लगो मत कांपने
जीव क्या है ब्रम्ह क्या, तू कौन है मैं कौन हूं
स्लेट पर लिख दो महाशय, आजकल मैं मौन हूं
स्वर्ग का झगड़ा गया, भय नरक का भी छोड़ दे
पाप घट भर जाय तो काशी पहुंच कर फोड़ देa

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