बाल दिवस पर*
प्यारे बच्चो।
किसान के बच्चों ने
किताब का पहला पन्ना
खोला
देर तक किताबों में ढूँढ़ा
अपने पिता को
मिस्त्री का बच्चा
ढूँढ़ता रहा
मिस्त्री किताबों में
दुनिया के सबसे बड़े महलों
मीनारों का इतिहास
पढ़ता हुआ
घस्यारिन के बच्चे
घस्यारिने ढूँढ़ते रहे
पहाड़ों के बारे में पढ़ते हुए
किताबों में
नाई की बच्ची
ढूँढ़ती रही
क़ैंची से निकलती
गौरैया-सी आवाज़ के साथ
अपने पिता को
किताबों में
सफ़ाईकर्मी
का बच्चा ढूँढ़ता रहा
एक साफ़-सुथरी बात
कि उसका पिता क्यों नहीं है किताबों में
कौन इन्हें बताए
यह दुनिया केवल
डॉक्टर, इंजीनियर, मास्टर, प्रोफ़ेसरों की है
तहसीलदार, ज़िलाधीशों की है
इसमें मजूरों, किसानों,
नाई और घस्यारिनों की कोई जगह नहीं
मेरे प्यारे बच्चो,
ये किताबें बदलनी हैं तुम्हें!
अनिल कार्की
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बिना भूमि का मिट्टी नहीं,
मिट्टी के बिना दीपक नहीं।
भूमि की मंशा थी कि,
मैं दीपक बनूं।
लेकिन बिना प्रकाश भी,
दीपक का कोई काम खास नहीं।
प्रकाश का विश्वास था,
मैं इंकलाब बनूं।
लेकिन प्रेम के इंकलाब नहीं,
बिना इंकलाब बदलाव नहीं।
प्रेम को उम्मीदें थी,
मैं कॉमरेड बनूं।
कॉमरेड राहुल
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जम्हूरी सियासत के माफिक गम मौजू मिले मुझको
रहा इंसान हाशिए पर मुस्लिम हिन्दू मिले मुझको
गुजरे फांके में जिनके दिन उनके मसीहा के घर में
डाइनिंग टेबल के ऊपर सजे काजू मिले मुझको
तिमिर के साथ जिधर गए थे उजाले को तराशने वो
उसी रस्ते में रोशनी के कटे बाजू मिले मुझको
जिन्हे तुम ढूंढ़ते फिरते हो मंदिर और मस्जिद में
वो हर बच्चे के चेहरे में हंसते मौजू मिले मुझको
परेशान तुम हो यू कि इश्क में आंसू मिले तुमको
यहां समझा जिन्हे रहबर वो सब डाकू मिले मुझको
दुनिया में जो कुछ है वो सब मेहनत के दम पर है
“सरल” मेहनत को करते कोई न साधु मिले मुझको
सरल कुमार वर्मा
उन्नाव, यूपी
9695164945
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कटघरे में वह सालों से खड़ा है
उसे राजा के सामने इसलिए लाया गया
क्योकि एक रोज़ राजा के जासूसों ने
सोते समय उसके दिमाग को कुत्तों की तरह सूँघ लिया,
उस वक़्त वह सपना देख रहा था..
सपना बेहद मासूम था
सपने में नदी, पहाड़, जंगल सब कुछ था..
लेकिन कुछ भी बिक्री के लिए नहीं था.
सपने में उछलते कूदते बच्चे थे..
लेकिन वे ‘काम पर नहीं जाते थे’..
सपने में तितलियां थी, रंग बिरंगे पंछी थे..
लेकिन कोई पिंजरा नहीं था..
राजा के सिपाहियों ने उसे गिरफ़्तार करते हुए पूछा
तुम्हारे सपने में पुलिस, जासूस, सेना, न्यायालय और
सबसे बढ़कर राजा क्यों नहीं है?
यही सवाल कटघरे में खड़े व्यक्ति से
राजा के न्यायमंत्री ने पूछा,
राजा के न्यायाधीश ने भी पूछा!
कटघरे में खड़े व्यक्ति के चेहरे पर आज वही तेज़ था
जो ब्रूनो के चेहरे पर,
अपने जलाये जाने से पहले था.
उसने राजा की आँखों में घूरते हुए कहा
सपनों का कोई राजा नहीं होता!
और राजाओं का कोई स्वप्न नहीं होता!!
मनीष आज़ाद
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शुरू होने दो लडाई……
मेरे पस सिध्दांत है और कोई सत्ता नहीं
तुम्हारे पास सत्ता है और सिध्दांत नहीं
तुम्हारे तुम होने
और मेरे मैं होने के कारण
समझौते का सवाल ही नहीं उठता
इसलिए लडाई शुरू होने दो. …
मेरे पास सत्य है और ताकत नहीं
तुम्हारे तुम ताकत है और कोई सत्य ही नहीं
तुम्हारे तुम होने
और मेरे मैं होने के कारण
समझौता का सवाल ही नहीं उठता
इसलिए शुरू होने दो लडाई. ….
तुम मेरी खोपड़ी पर भले ही बजा दो डंडा मैं लडूंगा
तुम मेरी हड्डियां चूर -चूर कर डालो फिर भी मैं लडूंगा
तुम मुझे भले ही ज़िंदा दफन कर डालो मैं लडूंगा
सच्चाई मेरे अंदर दौड़ रही है इसलिए मैं लडूंगा
अपनी अंतिम दम तोड़ती सांस के साथ भी मैं लडूंगा ……
मैं तब तक लडूंगा जब तक
झूठ से बनाया तुम्हारा किला ढह कर गिर नहीं जाता
जब तक जो शैतान अपने झूठों से पूजा है
वह सच के मेरे फरिश्ते के सामने घुटने नहीं टेक देता ।
संजीव भट्ट
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शुरू है हक की लड़ाई
शुरू है हक की लड़ाई
तुम भी हाथ बढ़ाओ, साथ निभाओ भाई।
छीन लिया है अधिकार तुम्हारा
अब कलम को तलवार बना लो !
तोड़ दिया ग़र कलम तुम्हारी
गीतों-नारों को हथियार बना लो!
शुरू है हक़ की लड़ाई
तुम भी हाथ बढ़ाओ, साथ निभाओ भाई।
लुटेरे जालिमों का सच जान कर
तालीम के लिए मरने वालों को अपना मान लो!
शोषित आवाम को साथ लेकर
जुल्म के खिलाफ बन्द मुट्ठियाँ अपनी तान लो!
शुरू है हक़ की लड़ाई
तुम भी हाथ बढ़ाओ, साथ निभाओ भाई।
पिता को मालिक की मार कब तक सहते देखोगे?
पेट की खातिर माँ को तुमने दर-दर भटकते देखा!
हैवानों से बहनों को कब तलक डरते देखोगे?
उठो, मिटा अमीरी-गरीबी, ऊँच नीच की रेखा!
शुरू है हक़ की लड़ाई
तुम भी हाथ बढ़ाओ, साथ निभाओ भाई।
तेरे हाथों में ही तो कैद है वो नया सबेरा
तेरे कदमों के बढ़ने से ही छंटेगा ये अंधेरा
नजर उठा देख ये सारा जहाँ है अपना बसेरा
इस दुनिया को अब इक तेरा ही आसरा।
शुरू है हक़ की लड़ाई
तुम भी हाथ बढ़ाओ, साथ निभाओ भाई।
अंजली यादव
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यह कैसा दुःस्वप्न है!
यह कैसा दुःस्वप्न है!
जहां हरसिंगार, पेडों से झरते ही
बदबू फैलाने लगते हैं.
यह कैसा दुःस्वप्न है!
जहां चमगादड़ भरे उजाले में निकलते हैं
और गौरैया अपने घोसलों में सिर छुपाए रहती है.
यह कैसा दुःस्वप्न है!
जहां बच्चे सैनिकों से भी ज्यादा अनुशासित हैं.
यह कैसा दुःस्वप्न है!
जहां हत्यारे चेहरे पर सौम्य मुस्कुराहट लिए
सफेद कबूतर उड़ाते हैं.
यह कैसा दुःस्वप्न है!
जहां बलात्कारी सत्संग लेते हैं
और नारी गरिमा पर उपदेश देते हैं.
यह कैसा दुःस्वप्न है!
जहां एक धर्म की बच्ची का सिर पत्थर पर पटकने वाला व्यक्ति
दूसरे धर्म की बच्ची के सिर पर हाथ रख
उसे आशीर्वाद देता है.
यह कैसा दुःस्वप्न है!
जहां लाशों पर बैठा, लाल आंखों वाला व्यक्ति
दुनिया को शांति का सन्देश देता है.
यह कैसा दुःस्वप्न है!
जहां लोकतंत्र चमत्कारिक रूप से
तानाशाह की आराम कुर्सी में बदल जाता है,
और न्यायधीश ‘न्याय’ देने से पहले
हमेशा तानाशाह को याद करता है.
यह कैसा दुःस्वप्न है!
जहां सपनों की खरीद बिक्री करने वाले लोगों की आंखों में नींद नहीं है.
यदि यह दुःस्वप्न है, तो इसे टूटना चाहिए.
लेकिन यह जागती आँखों का दुःस्वप्न है…
आखिर हमारी नींद कब और किसने चुराई?
हमारे ख्वाबों पर डाका किसने डाला?
‘स्वप्न के अंत’ की घोषणा किसने और क्यों की..
ये सामान्य सवाल नहीं,
लहूलुहान कर देने वाले सवाल हैं.
नींद आदमी का आदमी पर भरोसा है” (अरुण कमल)
जबसे यह भरोसा टूटा
हमारी नींद भी उचट गयी
जबसे यह नींद उचटी, हमारे ख्वाब भी फिसल गये.
यह भरोसा जिसने तोड़ा, उसी ने हमारे ख्वाबों पर डाका भी डाला…..
कई बार हमें अपने सपनों के लिए भी लड़ना होता है.
अपने सपनों को उनसे छीनना होता है.
क्योंकि स्वप्न है, तो दुःस्वप्न को कुचला जा सकता है
स्वप्न है तो दुनिया बदली जा सकती है
लेकिन गर स्वप्न नहीं,
तो खुद के बदल दिए जाने का खतरा
एक वास्तविक खतरा बन जाता है.
तब दुःस्वप्न ही ‘स्वप्न’ बन जाता है……
मनीष आज़ाद
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छलकती आंखो से किसी गम का हल नहीं होगा
पियोगे आंसुओ को तब सुनहरा कल कहीं होगा
नजर झुकाकर शर्माने को अदा समझ लो मगर
आंखो में आंखे डालकर छिनोगे हक तभी होगा
ये चेहरे का नुर ये नाजुक जिस्म तो ढल जायेगा
निखारेगी वक़्त की तपिश रोशन रुख तभी होगा
अश्क बहा ले जाते हो भले ही दरिया दर्द का लेकिन
पथरीले रास्ते जो छोड़ जाते हैं सही पथ वही होगा
गमो से डरकर बहाने सुख के जुटाओगे कब तलक
बना लो जो दर्द से रिश्ता न फिर गम कभी होगा
किसी के हसीन ख्वाबों में डूबना है उम्र का तकाजा
यकीन ये हो खुले जो आंख तो दामन तर नहीं होगा
कुछ गुमनाम से रिश्ते है दुनिया में कोई चेहरा नहीं है
पड़ेगा वक़्त तो उनका सहारा कम नहीं होगा
बड़े नजदीक है कुछ लोग अक्सर मिल बैठते हैं
उनके ख्वाबों की दुनिया है सभी कुछ सच नहीं होगा
सरल हो जिंदगी माशूक के तबस्सुम की तरह ये
किसी बदशकल तवायफ के बुढ़ापे का सच नहीं होगा
सरल कुमार वर्मा
उन्नाव, यूपी
9695164945
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दिल किसी गरीब का कभी, दुखाना नही कामरेड
किसी मजलूम को यार कभी, सताना नही कामरेड
तुम्हे दिया है कुदरत ने बहुत, शुक्रिया अदा करो
पर किसी दबे कुचले का मज़ाक, उड़ाना नही कामरेड
तुमने की है तरक्की बहुत,सब है तुम्हारे पास
पर किसी के हक हलाल की कमाई,खाना नही कामरेड
मत फिसलना,इन सियासती वादों की जमीं पर
ये गिरगिट हैं,इन्हे किसी के साथ कुछ निभाना नही कामरेड
तू सही हो,तो अपने आपको मजबूत रखना साथी
मिट जाना मगर खुद को कभी, झुकाना नही कामरेड
ये जो घूम रहे हैं,तेरी गली में, जाति, धर्म, मजहब, ऊंची, नीच के नाम पर दंगा फैलाने को
तेरे दिल में क्या है,इनको कभी बताना नही कामरेड
मेज पर हैं कागजात मगर,सब नीचे से होता है
ऐसे किसी भी घूसखोर को,घुस खिलाना नही कामरेड
हिंदू,मुस्लिम,सीख,ईसाई,पारसी,सिंधी सब एक से हैं
तेरी पहचान एक इंसान की है,बस ये छुपाना नही कामरेड
पास उसके घर नही है,सो गया फुटपाथ पर
तुम नशे में हो बेशक, उस पर गाड़ी चढ़ाना नही दोस्त
जिस्म बिकता है यहां,शायद मजबूरी हो कोई
पर किसी की मजबूरी का फायदा, उठाना नही कामरेड
नाम पढ़कर मत बना,किसी के बारे अपना ख्याल
मजहब को,जाति को यूं ही आधार तू,बनाना नही कामरेड
शिक्षा,रोजगार,काम- धंधे सब, गया उसके हाथ
इस लहर में तू भी,उसका सिखाया राग गाना नही कामरेड
माना कि वो ताकतवर है,सब चल रहा उसके इशारे
पर उसे अपनी कमज़ोरी,मेरे यार दिखाना नही कामरेड
आजकल मेरे शहर में,सड़क है कि है समंदर
उससे पूछा तो वो बोला,इस सड़क से जाना नही
डॉ विनोद कुमार शकुचंद्र
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इक दिन ऐसा भी आएगा होंठ-होंठ पैमाने होंगे …
मंदिर-मस्जिद कुछ नहीं होंगे घर-घर में मयख़ाने होंगे,
राजनीति व्यवसाय बनेगी संविधान एक नाविल होगा ..
चोर उचक्के सब कुर्सी पर बैठ के मूँछें ताने होंगे,
एक ही मुंसिफ़ इंटरनैट पर दुनिया भर का न्याय करेगा..
बहस मोबाइल ख़ुद कर लेगा अधिवक्ता बेग़ाने होंगे,
ऐसी दवाएँ चल जाएँगी भूख प्यास सब ग़ायब होगी..
नये-नवेले बूढे़ होंगे ..बच्चे सभी पुराने होंगे,
लोकतंन्त्र का तंत्र न पूछो प्रतियाशी कम्प्यूटर होंगे..
और हुकूमत की कुर्सी पर क़ाबिज़ चंद घराने होंगे,
गाँव-खेत में शहर दुकाँ में सभी मशीनें नौकर होंगी…
बिन मुर्ग़ी के अन्डे होंगे बिन फ़सलों के दाने होंगे ,
छोटॆ-छोटॆ से कमरों में मानव सभी सिमट जाएँगे..
दीवारें ख़ुद फ़िल्में होंगी दरवाज़े ख़ुद गाने होंगे,
आँख झपकते ही हर इंसा नील-गगन से लौट आएगा..
इक-इक पल में सदियाँ होंगी दिन में कई ज़माने होंगे,
अफ़्सर सब मनमौजी होंगे दफ़्तर में सन्नाटा होगा…
जाली डिग्री सब कुछ होगी कालेज महज़ बहाने होंगे,
बिन पैसे के कुछ नहीं होगा नीचे से ऊपर तक यारो…
डालर ही क़िस्मत लिखेंगे रिश्वत के नज़राने होंगे,
मैच किर्किट का जब भी होगा काम-काज सब ठप्प रहेंगे..
शेयर में घरबार बिकेंगे मलिकुल-मौत सरहाने होंगे,
होटल-होटल जुआ चलेगा अबलाओं के चीर खिचेंगे….
फ़ोम-वोम के सिक्के होंगे डिबियों बीच ख़ज़ाने होंगे,
शायर अपनी नज़्में लेकर मंचों पर आकर धमकेंगे…
सुनने वाले मदऊ होंगे संचालक बेमाने होंगे,
बेकल इसको लिख लो तुम भी महिला-पुरुष में फ़र्क न होगा..
रिश्ता-विश्ता कुछ नहीं होगा संबंधी अंजाने होंगे !!
बेकल उत्साही
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वे डरते हैं
वे डरते हैं
किस चीज़ से डरते हैं वे
तमाम धन-दौलत
गोला-बारूद पुलिस-फ़ौज के बावजूद ?
वे डरते हैं
कि एक दिन
निहत्थे और ग़रीब लोग
उनसे डरना
बंद कर देंगे ।
गोरख पाण्डे