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संघर्ष और समर्पण के 25 वृतांत

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ओमप्रकाश कश्यप

अरुण नारायण द्वारा संपादित पुस्तक ‘नेपथ्य के नायक’ के दोनों खंड उम्मीदों को बढ़ानेवाले हैं। बुर्जुआ ताकतें इस दौर को जातिवाद के उभार के तौर पर रेखांकित करने में लगी हैं, लेकिन मेरी दृष्टि में जातिवाद का वह दौर कहीं अधिक घिनौना और क्रूर था, जब परजीवी जमात का कोई लेखक/प्रस्तावक कहता था– “यह कृति मेरी ओर मेरे बंधु-बांधवों की है। इसे पढ़ने-सुनने और गुनने का अधिकार भी मेरा, मेरे बंधु-बांधवों और मेरी संतति का है। बाकी सब अपात्र हैं। कोई अपात्र इस कृति को पढ़ने की कोशिश करे तो उसकी जीभ काट देनी चाहिए। सुनता है तो उसके कानों में पिघला सीसा भर देना चाहिए।” अथवा जब कोई कहता था कि वह, उसके पूर्वज तथा उनकी औरस (वैध) संतानें जन्मना सर्वोच्च एवं सर्वश्रेष्ठ होने के कारण सर्वशासक और सर्वनियंता हैं। और जो अमुक-अमुक जातियों से हैं, उन्हें वही करना होगा जो मैंने या मेरे पूर्वजों ने उनके लिए निर्धारित किया है। इसके अलावा उनके पास न तो मुक्ति की कोई राह है, न अधिकार।

मुट्ठी-भर लोगों के स्वार्थपूर्ण गठजोड़ ने दमन को बढ़ावा दिया और दमन ने लोगों से बहुसंख्यक से लिखने पढ़ने-सुनने, सोचने-करने यहां तक कि चैन से जीने का अधिकार तक छीन लिया। शताब्दियों तक दमनात्मक परिस्थितियों में जीने के बाद लोग अपना इतिहास, मान-सम्मान, अस्मिताबोध, संस्कृति, सभ्यता आदि भुलाकर दमन और दुरावस्था को ही अपनी नियति मानने लगे। उन्हें पशुवत अवस्थाओं में जीने के लिए मजबूर करना और जीते हुए देखना ही असल जातिवाद था। आज लोग धीरे-धीरे जाति की बंदिशों और यंत्रणाओं से बाहर निकल रहे हैं, कुछ हद तक आ भी चुके हैं। खास तौर पर जाति के नाम पर खुद को हेय समझने की प्रवृत्ति अब समाप्त हो चली है। अब कोई इस मिथ पर विश्वास नहीं करता कि फलां व्यक्ति अमुक देवता के मुख से जन्मा होने के कारण अधिक अधिकार संपन्न है। जो जातिसूचक नाम कभी घृणा और गाली की प्रतीति कराते थे, आज उन्हीं को अपनी पहचान बनाकर लोग अपने अधिकारों की दावेदारी कर रहे हैं। इस बदलाव के पीछे राजनीतिक परिवर्तनों का बहुत बड़ा योगदान है। उस संविधान का बहुत बड़ा योगदान है, जिसने समान नागरिक संहिता के माध्यम से धर्म और जाति द्वारा पैदा किए गए भेदों को प्रभावहीन करने का काम किया है। लेकिन अभी तक जो हुआ है, वह राजनीति के माध्यम से, मुख्यतः राजनीतिक स्तर पर ही हुआ है। इस बात को प्रतिगामी ताकतें भी जानती हैं, इसलिए जब-तब वे प्रकट या अप्रकट रूप से संविधान को कमजोर करने का षड्यंत्र रचती रहती हैं।

शोषण और उत्पीड़न का शिकार होते आए वर्गों की लड़ाई किसी एक मोर्चे की नहीं है। राजनीतिक परिवर्तन कारगर होते हैं, लेकिन वे स्थायी नहीं बन पाते। सत्ता के बदलाव के साथ, राजनीतिक परिवर्तनों के प्रभावहीन होने, परिवर्तन चक्र के उलटा घूम जाने का अंदेशा हमेशा बना रहता है। टिकाऊ बदलाव के लिए राजनीति के साथ-साथ सांस्कृतिक-सामाजिक परिवर्तन भी अपरिहार्य होते हैं। शासक वर्ग में शामिल होने से पहले इस विश्वास का होना जरूरी है कि हम शासन कर सकते हैं।

दूसरे शब्दों में जिन परिवर्तनों को हम राजनीति के माध्यम से हासिल करना चाहते हैं, वे बदलाव समाज और संस्कृति के स्तर पर हो जाएं, तभी वे भरोसे के लायक बन पाते हैं। राजनीति के लिए यदि गणतंत्रात्मक पद्धति हमें आदर्श लगती है, तो उसे समाज के स्तर पर भी अपनाया जाना चाहिए। जनता लोकतंत्र को जीने लगेगी तो सरकार अपनेआप लोकतांत्रिक हो जाएगी। लेकिन कानून की सीमा है। सरकार लोगों के निजी जीवन, समाज और संस्कृति में उस समय तक हस्तक्षेप नहीं कर सकती, जब तक वे दूसरे वर्गों के लिए नुकसानदेह न हों। यदि कुछ सामाजिक नियम, कुरीतियां समाज के किसी हिस्से पर नकारात्मक असर डाल रही हैं तो उनसे बचने, उन्हें उखाड़ फेंकने की सबसे बड़ी और सबसे पहली जिम्मेदारी उसी समाज के प्रबुद्ध नागरिकों तथा सामाजिक संगठनों की होती है। लोकोन्मुखी सामाजिक-सांस्कृतिक और साहित्यिक प्रेरणाएं उनके लक्ष्य को आसान बना सकती हैं। ‘नेपथ्य के नायक’ जैसे पुस्तकों का प्रकाशन ऐसे ही अवसरों पर बहुमूल्य और प्रेरणादायी स्रोत की तरह काम करते हैं।

यहां उदाहरण देने से बात समझने में आसानी होगी। ‘नेपथ्य के नायक’ के दूसरे खंड में केवट रानी रासमणि की कहानी है। यह कहानी उन लोगों के लिए भी प्रेरणादायक सिद्ध हो सकती है, जो मानते हैं कि आर्थिक विरूपताओं का समाधान होते ही सामाजिक-सांस्कृतिक समस्याओं के समाधान का रास्ता अपनेआप निकल आता है। रानी रासमणि को पैतृक संपत्ति प्राप्त हुई। अपने समय को देखते हुए वह बहुत ज्यादा थी। उदार रानी ने उस संपत्ति से अपने जाति-बंधुओं और समाज के दूसरे लोगों की भलाई के कई काम किए। खूब यश हासिल किया। बहुतों के लिए प्रेरणास्रोत भी बनीं। लेकिन अंध-आस्था और रूढ़ियों से बाहर निकलने का साहस न होने के कारण फंस गईं। उन दिनों शूद्रातिशूद्रों को मंदिर प्रवेश की आजादी नहीं थी। यह सोचकर कि अपनी आध्यात्मिक आस्था का पालन और सम्मान करने का अधिकार सभी वर्गों को है– रानी ने प्राप्त धनराशि का बड़ा हिस्सा काली मंदिर बनाने पर खर्च कर दिया। लेकिन कोई भी ब्राह्मण शूद्र द्वारा बनवाए मंदिर का पुजारी बनने को तैयार नहीं हुआ। इसलिए नहीं कि मंदिर शूद्र की संपत्ति से बना था। देश-भर में जितने भी धर्मालय हैं, उनमें शूदातिशूद्रों की संपत्ति और उन्हीं का खून-पसीना लगता है। वे फलते-फूलते भी शूद्रातिशूद्रों के पैसे से हैं। रानी द्वारा मंदिर बनाना ब्राह्मणों के लिए आपत्तिजनक होता तो मंदिर निर्माण की पहली ईंट रखने के साथ ही विरोध आरंभ हो जाता। परंपरानुसार मंदिर के लिए भूमि पूजन जैसे काम भी ब्राह्मणों ने ही निपटाए होंगे। ब्राह्मणों ने मंदिरों का पुजारी बनने से इसलिए इंकार किया था, क्योंकि रानी ऐसे लोगों को आध्यात्मिक अधिकार दिलाना चाहती थीं, जिनके दूसरे मंदिरों में प्रवेश पर पाबंदी थी।

एक धनवान शूद्र अपने खर्चे धन से दूसरे शूद्रों के लिए सामाजिक-आध्यात्मिक स्वतंत्रता खरीदना चाहे, यह उस व्यवस्था में भला कैसे स्वीकार्य हो सकता था। फिर रानी के पास विकल्प क्या था? इसी खंड में फुले दंपति की दास्तान भी है। उन्होंने शूद्रों की स्वाधीनता के लिए शिक्षा को जरूरी माना और अपना पूरा जीवन उसी को न्योछावर कर दिया था। क्या इससे रानी रासमणि की महानता पर असर पड़ता है? नहीं! व्यक्तित्व के स्तर पर हर मनुष्य अलग होता है। रानी रासमणि की दृष्टि में शूद्रों की आध्यात्मिक स्वाधीनता महत्वपूर्ण थी, इसलिए वह आस्थावान स्त्री मंदिर निर्माण की दिशा में आगे बढ़ी थी। यह बात अलग है कि साहस दिखाने के अवसर से चूक गईं। यह किसी आगम में नहीं लिखा है कि मंदिर का पुजारी ब्राह्मण ही होना चाहिए। रानी हिम्मत दिखातीं तो ब्राह्मणों द्वारा मंदिर के पौरोहित्य से इंकार करते ही किसी गैर-ब्राह्मण को मंदिर के संचालन की जिम्मेदारी सौंप सकती थीं।

नेपथ्य के नायक (खंड-2) का आवरण पृष्ठ

प्रसंगवश बता दें कि दक्षिण में पेरियार और महाराष्ट्र में फुले दंपति ने ब्राह्मणवाद के विरुद्ध जंग लड़े थे। पेरियार और आयोथि थास ने लोगों को आस्था के बुद्धिवादी विकल्प सुझाए थे, जिससे वे अपनी आस्था का परिमार्जन कर सकें। जहां ऐसा संभव नहीं था, वहां धार्मिक आयोजनों से ब्राह्मण पुरोहित की उपस्थिति को गैर-जरूरी घोषित कर दिया था। सामाजिक-सांस्कृतिक आयोजनों में जो काम पहले ब्राह्मणों द्वारा निपटाए जाते थे, उनकी जिम्मेदारी संबंधित व्यक्ति के परिजन अथवा समाज के वरिष्ठजन उठाने लगे थे।

रानी रासमणि यदि ऐसा कर पातीं तो मानवेतिहास की सबसे क्रांतिकारी स्त्रियों में उनकी साहस-कथा हमेशा-हमेशा के लिए दर्ज हो जाती। परंतु ‘ब्राह्मण को देवता मानने वाली रानी’ इतनी हिम्मत कहां से लातीं! लेकिन यह रानी की नहीं, हमारे समाज की विडंबना थी, जिसमें लंबे समय से दमन के शिकार रहे लोग हालात से अनुकूलन करने लगे थे।

पहले खंड की तरह ही ‘नेपथ्य के नायक’ के दूसरे में भी कुल 25 नायकों की प्रेरणादायी कथाएं हैं। संपादक ने उन्हें पांच खंडों में विभाजित किया है। महान व्यक्तित्वों की खूबी होती है कि वे समस्याओं को एक-रैखिक तरीके से कभी नहीं देखते। विशिष्ट परिस्थितियों में सिर्फ अपनी प्राथमिकता तय कर लेते हैं। उदाहरण के लिए पेरियार की प्राथमिकता द्रविड़ समाज को उसकी सामाजिक-सांस्कृतिक आजादी वापस दिलानी थी। यह संसाधनों और अवसरों में समान सहभागिता के बिना संभव नहीं थी, सो इसी के अनुसार उन्होंने अपने मोर्चे तैयार किए। पेरियार के समकालीन और उनके मित्र सिंगारवेलु चेट्टियार की दृष्टि में साम्राज्यवाद सबसे बड़ा खतरा था। इसलिए वे साम्राज्यवाद प्रेरित पूंजीवाद के विरुद्ध आजीवन संघर्ष करते रहे। पेरियार सोचते थे कि मनुष्य सामाजिक-सांस्कृतिक और बौद्धिक रूप से स्वतंत्र होगा तो मिलने वाली आजादी का बेहतर इस्तेमाल कर पाएगा। सिंगारवेलु का मानना था कि आजाद भारत में संगठित किसान-मजदूर शक्ति को नई सामाजिक-आर्थिक व्यवस्था लागू करने का अवसर मिलेगा, जिसमें प्रत्येक नागरिक जीवन के प्रत्येक क्षेत्र में अधिकतम आजादी और सुख का भोग कर सकेगा।

संक्षेप में हर महानायक परिस्थितियों के अनुसार कला, साहित्य, समाज-संस्कृति, राजनीति आदि के समस्याग्रस्त क्षेत्रों की पड़ताल कर अपने लिए प्राथमिकताएं चुनता है। उसका निष्पृह संघर्ष समाज के विभिन्न सामाजिक वर्गों पर अलग-अलग असर डालता है। इसलिए कार्यक्षेत्र के साथ-साथ उसकी सदाशयता भी महत्वपूर्ण होती है। हम चाहें तो ‘नेपथ्य के नायक’ के दूसरे खंड में संकलित पूरी सामग्री को दो हिस्सों में वर्गीकृत कर सकते हैं–

  1. ऐसे महानायक, जिन्होंने सामाजिक-सांस्कृतिक वर्चस्ववाद के विरुद्ध झंडा बुलंद किया और तमाम झंझावातों से गुजरकर संघर्ष की डगर पर बने रहे। इसके लिए उन्हें जातिवाद, छूआछूत, अशिक्षा, और अन्यान्य कुरीतियों का सामना करना पड़ा। उन्होंने किया और दूसरों के लिए राह प्रशस्त की। इस श्रेणी में फुले दंपति, पेरियार, आयोथि थास, रामस्वरूप वर्मा आदि शामिल हैं।
  2. दूसरे वे महानायक जिन्होंने अपनी धरती, अपने देश और अपने लोगों की स्वतंत्रता और बेहतर जीवन को वरीयता दी। उसके लिए खुशी-खुशी बलिदान करने से नहीं चूके। इस श्रेणी में पल्टू कहार, गुंडाधुर धुर्वा, अब्दुल्ला चूड़ीहार, खुदी शाहू जैसे महानायक शामिल हैं, जिन्हें अभी तक नेपथ्य में रखा गया था।

इन दोनों श्रेणियों के लिए संपादक अरुण नारायण और संयोजक राकेश यादव बेशकीमती सामग्री जुटाने में कामयाब रहे हैं। इस खंड की कुछ उपलब्धियां तो इतनी अनूठी हैं, जिससे इसे ऐतिहासिक दस्तावेज का दर्जा हासिल हो चुका है। पल्टू कहार, गुंडाधुर धुर्वा, विट्ठल लक्ष्मण कोतवाल जैसे चरित्र नायक, इनके बारे में पाठकों ने अन्यत्र शायद ही पढ़ा होगा। इन्हें पुस्तक का हिस्सा बनाकर ‘नेपथ्य के नायक’ के संपादक, संयोजक दोनों ने बड़ा काम किया है। साथ में आश्वासन भी दिया है कि यह अभियान थमने वाला नहीं है। उम्मीद है कि आगे ऐसे ही अनेक गुमनाम नेपथ्य-नायक हमारे सामने आएंगे और हमारी चेतना को झकझोरने का काम करेंगे।

पुस्तक संपादक और संयोजक का यह अभियान प्रणम्य है। लेकिन यह उस समय तक पूरा नहीं हो सकता, जब तक सामाजिक-सांस्कृतिक बदलाव की जरूरत को महसूस करने और समाज के किसी भी हिस्से से सरोकार रखने वाले प्रबुद्धजन आगे बढ़कर इसमें सहयोग न दें। सामग्री के साथ-साथ पुस्तक की छपाई और प्रस्तुतीकरण मनमोहक है। इसे हर किसी को पढ़ना-पढ़वाना चाहिए। यह पढ़कर, सराहकर या थोड़ी-बहुत चर्चा कर रख देने वाली चीज भी नहीं है। हरेक व्यक्ति, जो सामाजिक बदलाव की जरूरत को महसूस करता है, जो मानता है कि इस लक्ष्य की राह में चुनौतियां और अवसर किसी भी दौर से ज्यादा आज हैं, जिसे अपने ऊपर, अपनी कलम या कला पर भरोसा है, उसके लिए इन पुस्तकों की सामग्री बीज-वाक्य जैसी होनी चाहिए। ऐसे संवेदनशील कलमकार-कलाकार अपनी रुचि, सुविधा, परिस्थिति के अनुसार पल्टू कहार, गुंडाधुर धुर्वा जैसे चरित्रों पर शोधपूर्ण तरीके से अपनी कलम चला सकते हैं; या अपनी कला से उन्हें नए-नए रूप देकर घर-घर पहुंचाने का काम कर सकते हैं।

समीक्षित पुस्तक का नाम : नेपथ्य के नायक-दो
संपादक : अरुण नारायण
प्रकाशक : द मार्जिनलाइज्ड पब्लिकेशन
मूल्य : 300.00 रुपए

(समीक्षित पुस्तक में समीक्षक ओमप्रकाश कश्यप का ‘पेरियार ई. वी. रामासामी : दक्षिण-पूर्वी एशिया के सुकरात’ शीर्षक आलेख भी संकलित है)

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