मुस्ताअली बोहरा..
अबकी बार … 400 पार के नारे और अयोध्या में रामलला की प्राण प्रतिष्ठा के सहारे 2024 के लोकसभा चुनाव के समर में भाजपा उतर चुकी है। केन्द्र में यदि फिर से भाजपा की सरकार बनती है तो इसे चुनावी रणनीति से मिली जीत और संगठनात्मक सफलता माना जाएगा। वहीं कांग्रेस की हार के पीछे शीर्ष नेतृत्व और कार्यकर्ताओं के बीच तालमेल का अभाव, पार्टी नेताओं के बीच आपसी संवादहीनता मुख्य वजह होंगे। लंबे समय तक पूरे देश में राज करने वाली पार्टी यदि आज अपना अस्तित्व बचाने के लिए जूझ रही है तो इसकी वजह भाजपा नहीं बल्कि खुद वो नेता हैं जो अपनी ही पार्टी को खोखला करते रहे। इनके अलावा मौकापरस्त नेताओं ने भी उसूलों को तिलांजलि देते हुए पाला बदल लिया। 2019 के लोस चुनाव से पहले कांग्रेस में जो अफरातफरी मची है वो अभी तक नहीं थमी है। ताजा उदाहरण मध्यप्रदेश का है जहां कांग्रेस के पूर्व प्रदेश अध्यक्ष और ब्राम्हण नेता सुरेश पचैरी सहित कई नेताओं ने भाजपा का दामन थाम लिया।
देश भर मंे लोकसभा चुनाव को लेकर लहर चल रही है। मार्च के मध्य में चुनाव आयोग चुनावी कार्यक्रम घोषित कर सकता है। बीजेपी 400 पार के टारगेट पर जुट गई है। कांग्रेस भी भारत जोड़ो न्याय यात्रा के जरिए जनता के बीच है। लेकिन कांग्रेस के आगे एक बाद एक नई चुनौतियां खड़ी हो रही हैं। हिमाचल प्रदेश में राज्यसभा चुनाव के दौरान क्रासवोटिंग का मामला अभी ठंडा भी नहीं पड़ा था कि इधर मध्यप्रदेश कांग्रेस में तूफान आ गया। राहुल गांधी की भारत जोड़ो न्याय यात्रा हाल ही में मध्यप्रदेश से गुजरी है और कांग्रेस को लगातार झटके लगना शुरू हो गए हैं। मध्य प्रदेश कांग्रेस कमेटी के पूर्व अध्यक्ष और पूर्व केन्द्रीय मंत्री कमलनाथ के भाजपा में जाने की अटकलें थीं। कई दिनों तक मीडिया में ऐसी खबरे तैरतीं रहीं लेकिन कमलनाथ और नकुलनाथ ने तो हाथ का साथ नहीं छोड़ा बल्कि मप्र के पूर्व प्रदेश अध्यक्ष और पूर्व केंद्रीय मंत्री सुरेश पचैरी, पूर्व सांसद गजेंद्र सिंह राजू खेड़ी, इंदौर के पूर्व विधायक संजय शुक्ला और विशाल पटेल के साथ और भी कई नेताओं ने मुख्यमंत्री मोहन यादव बीजेपी प्रदेश अध्यक्ष वीडी शर्मा, पूर्व सीएम शिवराज सिंह चैहान की मौजूदगी में भाजपा की सदस्यता ले ली। सुरेश पचैरी को राजीव गांधी और सोनिया गांधी से खास संपर्क में रहने के कारण गांधी परिवार का करीबी माना जाता रहा है। उन्होंने पांच दशक से ज्यादा कांग्रेस पार्टी के लिए काम किया। वे चार बार राज्यसभा के सदस्य रहे। यूथ कांग्रेस से राजनीतिक जीवन की शुरूआत करने वाले पचैरी की गिनती नेहरू-गांधी परिवार के बेहद विश्वासपात्र नेताओं में रही। मनमोहन सिंह सरकार में सुरेश पचैरी स्वतंत्र प्रभार वाले रक्षा राज्यमंत्री रहे। संसदीय कार्य विभाग उनके पास रहा। वे डीओपीटी विभाग को भी मनमोहन सरकार में संभालते रहे। सुरेश पचैरी को मध्य प्रदेश कांग्रेस के अध्यक्ष पद की बागडोर भी सौंपी गई। केन्द्रीय इकाई में अनेक महतवपूर्ण पद संभाले। राजनीतिक गलियारों में माना जा रहा है कि पचैरी काफी पहले से ही अपनी पार्टी के नेताओं से नाराज थे। 2023 के विधानसभा चुनाव में उन्हें तवज्जों नहीं मिली। पूर्व सीएम दिग्विजय सिंह से उनकी पटरी नहीं बैठती थी, और प्रदेश अध्यक्ष रहते कमलनाथ ने भी पचैरी को भाव नहीं दिया। उनकी नाराजगी इस बात से भी जाहिर हो गई थी वे राहुल गांधी की यात्रा के दौरान भी कहीं नजर नहीं आए। कांग्रेस ने भोपाल लोकसभा सीट पर उन्हें उमा भारती के सामने उतारा था, लेकिन उन्हें शिकस्त मिली। भोजपुर विधानसभा सीट से भी कांग्रेस ने पचैरी को विधायक का टिकट दिया, लेकिन वे सफल नहीं हो सके। पचैरी के लोकसभा चुनाव से पहले कांग्रेस छोड़ भाजपा में जाने से कांग्रेस को लोस चुनाव में कोई नुकसान होगा ऐसा लगता नहीं है। लेकिन ये मैसेज आमजन के बीच जरूर जाएगा कि कांग्रेस अपने ही बड़े नेताओं को नहीं संभाल पा रही है।
इन सबके इतर, ये कोई पहला मौका नहीं है जब किसी नेता ने पाला बदला हो। इससे पहले बिहार और बिहार से पहले महाराष्ट का घटनाक्रम अभी भी देशवासियों के ज़हन में ताज़ा है। इन दोनों ही राज्यों में तो नेताओं के साथ सरकार तक बदल गई। खैर, जो नेता अपनी पुरानी पार्टी को छोड़ नई पार्टी में गए उनका क्या हश्र ये बताने की जरूरत नहीं। कई पुराने कांग्रेसी नेता जो आज भाजपा में हैं वो ना इधर के रहे और ना उधर के।
कांग्रेस के कई दिग्गज नेताओं को भाजपा में बेहतर राजनीतिक भविष्य नजर आ रहा है। पूर्व सीएम अशोक चव्हाण ने बीजेपी का दामन थामा और इसके एक दिन बाद ही बीजेपी ने उन्हें राज्यसभा के लिए प्रत्याशी घोषित कर दिया। बीजेपी में शामिल होने वाले कांग्रेस के पूर्व मुख्यमंत्रियों में अमरिंदर सिंह, दिगंबर कामत, एसएम कृष्णा, विजय बहुगुणा, एन किरण रेड्डी, एनडी तिवारी, जगदम्बिका पाल और पेमा खांडू आदि शामिल हैं।
पचैरी की तरह सभी नेता ये कहते रहे हैं कि उन्हें पद की लालसा नहीं है लेकिन पार्टी बदलने के पीछे खालिस जनसेवा का मकसद हो ऐसा भी नहीं होता। बतौर उदाहरण, अमरिंदर सिंह राजनीति में कम सक्रिय हैं। अमरिंदर सिंह चाहते थे कि उनकी राजनीतिक विरासत को उनकी बेटी आगे बढ़ाए। उत्तराखंड के पूर्व मुख्यमंत्री विजय बहुगुणा के बेटे उत्तराखंड की धामी सरकार में कैबिनेट सदस्य हैं। पेमा खांडू ने अरुणाचल प्रदेश में बीजेपी के लिए बहुमत हासिल किया। यही वजह है कि खांडू लगातार सीएम बने हुए हैं। एनडी तिवारी अपने बेटे को राजनीति में स्थापित करना चाहते थे। हालांकि, अपने बेटे को आगे बढ़ा पाते इससे पहले ही उनका स्वर्गवास हो गया। इसी तरह बढी उम्र के कारण एसएम कृष्णा भी राजनीति से दूर हो गए। यदि पूर्वोत्तर की बात की जाए तो कांग्रेस ने सरमा को सीएम बनाने का वादा पूरा नहीं किया और तरुण गोगोई को बरकरार रखा। हालांकि पाला बदलने के बाद सरमा सीएम बनने में कामयाब हो गए। बीरेन सिंह ने भी कांग्रेस से किनारा कर लिया। उन्होंने 2017 में बीजेपी को बहुमत दिलाया। तोहफे में उन्हें सीएम बनाया गया और मणिपुर में लगातार हिंसा के बाद उन्हें हटाने की मांग के बावजूद वह सीएम बने हुए हैं। साहा को सीएम बनने का मौका नहीं मिला क्योंकि त्रिपुरा में माणिक सरकार के तहत सीपीआई-एम का कार्यकाल लंबा था। 2023 में भाजपा में शामिल होने और बिप्लब कुमार देब के उत्तराधिकारी बनने के बाद उनके सितारे बुलंद हुए।
पूर्व मुख्यमंत्रियों के अलावा, कांग्रेस और अन्य दलों के कई अन्य शीर्ष नेता भी पिछले कुछ वर्षों में भाजपा में शामिल हुए हैं। इनमें राहुल गांधी के पूर्व सहयोगी और केंद्रीय मंत्री ज्योतिरादित्य सिंधिया, आरपीएन सिंह और जितिन प्रसाद शामिल हैं। मध्य प्रदेश में कांग्रेस सरकार गिराने में कामयाब रहे ज्योतिरादित्य सिंधिया को मोदी सरकार में केंद्रीय मंत्री बनाया गया, जबकि प्रसाद यूपी में भाजपा सरकार में मंत्री हैं। आरपीएन को हाल ही में उत्तर प्रदेश से राज्यसभा के लिए नामांकित किया गया था। कहा जा सकता है कि भाजपा में शामिल होने वाले कांग्रेस नेताओं की लंबी सूची में से सरमा और सिंधिया को ही फायदा हुआ है। विमानन और इस्पात मंत्रालयों का प्रभार संभालने के अलावा, सिंधिया ने 2023 में मध्य प्रदेश विधानसभा चुनावों में कई समर्थकों के लिए टिकटों का प्रबंधन किया। दो अन्य पूर्व मुख्यमंत्री, शिवसेना से नारायण राणे और बाबूलाल मरांडी भी हाल ही में भाजपा में शामिल हुए। राणे केंद्रीय मंत्री हैं और मरांडी भाजपा नेता के रूप में झारखंड के पहले सीएम रह चुके हैं, जिन्हें राज्य इकाई प्रमुख के रूप में पार्टी का चेहरा बनाया गया है।
कांग्रेस छोड़ भाजपा में जाने वाले ज्यादातर नेताओं ने आस्था परिवर्तन की जो वजहें गिनाईं उनमें से एक तो यहीं है कि उन्हें यथोचित सम्मान नहीं मिला। खास बात ये भी है कि ऐसे नेता कांग्रेस में रहकर ही विधायक, सांसद, केन्द्रीय मंत्री बनें। उनका आज जो भी राजनीतिक कद है वो कांग्रेस ने ही बनाया। कांग्रेस के जमीन से जुड़े कार्यकर्ताओं का कहना है कि भले ही आज कांग्रेस की वह स्थिति नहीं है जो पहले थी लेकिन इसका ये मतलब तो नहीं कि आप पार्टी के अच्छे दिनों का लाभ उठाकर अपना रसूख बना लें और जब पार्टी का बुरा दौर हो तो उसी पार्टी को धोखा दे दें। सत्ताधारी पार्टी में जाने शामिल होने वाले नेताओं की मंशा भी लोग भलीभांति जानते हैं फिर चाहे वो पाला बदलने के पीछे कुछ भी कहते हों। ऐसे नेताओं को तात्कालिक लाभ भले ही मिला हो लेकिन इसके दूरगामी परिणाम बेहतर नजर नहीं आए।
कांग्रेस ही नहीं दिगर पार्टी या दलों से जो लोग बीजेपी में गए उनमें से ज्यादातर हासिए पर ही हैं। बतौर उदाहरण, रीता बहुगुणा जोशी महिला कांग्रेस की राष्ट्रीय अध्यक्ष के अलावा उत्तर प्रदेश कांग्रेस की भी अध्यक्ष रह चुकी हैं और साल 2012 में पार्टी ने उन्हीं के नेतृत्व में चुनाव लड़ा था। इसके अलावा वो समाजवादी पार्टी में भी रह चुकी हैं। उत्तराखंड के पूर्व मुख्यमंत्री विजय बहुगुणा उनके बड़े भाई हैं। उनकी जो हैसियत और सम्मान कांग्रेस में ही थी वो अब नहीं है। जहां वो खुद टिकट बांटती थीं, आज एक टिकट लेने के लिए लाले पड़ रहे हैं। तमाम कोशिशों के बावजूद अपने बेटे के लिए पार्टी में कोई जगह नहीं बना पा रही हैं। पूर्व प्रधानमंत्री राजीव गांधी के बेहद खास रहे अमेठी के पूर्व सांसद और पूर्व मंत्री संजय सिंह भाजपा में गए। संजय सिंह के बारे में कहा गया कि शायद वो अपनी राज्यसभा सीट बचाने के लिए बीजेपी में गए हों। प्रतापगढ़ से कई बार सांसद रह चुकीं और पूर्व विदेश मंत्री दिनेश सिंह की बेटी राजकुमारी रत्ना सिंह का कांग्रेस छोड़कर बीजेपी में जाना बेहद चैंकाने वाला था। दिलचस्प बात ये है कि इनमें से किसी भी नेता को बीजेपी में कोई महत्वपूर्ण जिम्मेदारी तक नहीं दी गई। ऐसे कई छोटे-बड़े नेता हैं जो भाजपा में चले तो गए लेकिन रसूख गवां बैठे।
जो नेता अपनी पार्टियों में शीर्ष नेताओं में गिने जाते थे लेकिन बीजेपी में इनकी वो हैसियत नहीं है। पुराने भाजपाई ऐसे दल बदलुओं की हैसियत बढ़ने देंगे ऐसा लगता भी नहीं है। हालांकि, ये भी सवाल ज़हन में आ सकता है कि जब भाजपा में सम्मान नहीं मिल रहा तो ये नेता उस पार्टी में जा क्यों रहे हैं। जवाब सीधा है, जो लोग भाजपा में जा रहे हैं या तो उन्हें पद चाहिए या फिर संरक्षण। कई नेताओं के सीधे कारोबार हैं या वो प्रत्यक्ष-अप्रत्यक्ष रूप से किसी ना किसी कारोबार से जुड़े हुए हैं लिहाजा उन्हें अपना व्यावसायिक हित साधना है। कई नेता ईडी के छापे के डर से भी पार्टी बदल रहे हैं। खैर, ऐसे कितने ही लोग कांग्रेस में हैं जो लंबे समय से सत्ता से दूर है लेकिन निष्ठा नहीं बदली। इसी तरह भाजपा में भी कई लोग विपक्ष में रहे लेकिन आस्था नहीं डिगी। ये वो लोग हैं जिनका कोई निजी स्वार्थ नहीं है, कारोबारी हित नहीं है, पद की लालसा नहीं है।