~ डॉ. विकास मानव
मैं सत्य की शरण में हूँ। सत्य को काम यानी संभोग कहते हैं। इस काम की मैं साधना कर रहा हूँ। इसलिए कि काम अनिन्ध है। काम की निन्दा करना अपने जनक का अपमान करना है।
काम जगत् पिता है, जगन्माता है, स्तुत्य है। मेरे सम्मुख काम का अनन्त समुद्र है। इस समुद्र में नानाप्रकार के जीव हैं। इस के मन्थन से अमृत एवं विष दोनों निकले हैं। अमृत पीने वाले देवता है। विष पीने वाले महादेव हैं।
मैं अपने दोनों नेत्रों के जल से कामदेव का अभिषेक कर रहा हूँ। मैं अपना हृदय निकाल कर दोनों हाथों को अब्जलि में लेकर कामदेवता के चरणों पर पुष्पाञ्जलि रूप में अर्पित कर रहा हूँ।
काम के समुद्र में वैराग्य के पर्वत की उच्चतम चोटी पर निवास करता हुआ मैं नित्य इसकी लहरों का अवलोकन करता, इसके निनाद को सुनता तथा यदा कदा इसमें गोते भी लगाता रहता हूँ। इससे जो रत्न मिले उन्हें यहाँ पूर्णत: विखेर चुका हूँ। अब और क्या चाहिये?
जप के मूल में काम है। तप के मूल में काम है व्रत के मूल में काम है। साधना में मूल में काम है। सिद्धि के मूल में काम है। देने के पीछे पाने का भाव होता है। बिना दिये कुछ मिलता नहीं। मूल्यहीन कुछ भी नहीं है। सब का मूल्य है।
कितना मूल्य है ? इस का निर्धारण देश काल पात्र की उपलब्धता से होता है। हर वस्तु बिकाऊ है। हर व्यक्ति बिकाऊ है। व्यक्ति को खरीदने का अर्थ है, उसे अपने वश में रखना। कोई धन वा द्रव्य से बिकता है। कोई बल वा शक्ति से बिकता है। कोई भय वा लोभ से बिकता है। कोई भोग सामग्री वा स्वाद से वश में होता है। कोई सेवा से प्राप्त किया जाता है। कोई प्रेम से पकड़ में आता है।
किन्तु मूल्य सब का है। निर्मूल्य वा अमूल्य अपना स्वरूप है। क्यों कि यह प्राप्त है। इसे प्राप्त नहीं किया जाता। इसे त्यागा नहीं जा सकता। इस आत्मतत्व से जो परिचित है, उसको मेरा नमस्कार।
प्रेम और भक्ति में अन्तर है। प्रेम योजक तत्व है। यह दो को आपस में जोड़ता है, दो अलग-अलग प्राणियों को निकट लाता है। यह दो मूर्त प्राणियों के मध्य होता है। प्रेम से दो प्राणियों का मिलन होता है। प्रेम में संगम है, बन्धन है।
प्रेम में द्वैत रहता है-दो परस्पर युक्त होने पर भी अलग अलग अस्तित्व रखते हैं। भक्ति का तत्व इससे आगे है। इस में दो का विलयन होता है। जैसे दूध और पानी दोनों एक जातीय होते हैं। भिन्न जातीय में विलयन नहीं होता। जैसे तेल और पानी। भाक्ति में अद्वैत है।
दो चिद् तत्वों के मध्य भकृति का प्रभवन होता है। दो अमूर्त आत्माओं के बीच भक्ति होती है। एक को दो भागों में बाँट कर रखना भी भक्ति है। ब्रह्म (परमात्मा) को मूर्त (जीव) तथा अमूर्त (ईश्वर) के रूप में अलग रखना भक्ति है।
यह अलगाव विशिष्टाद्वैत है। दो (जीव और ईश्वर) का अभाव अभक्ति (ब्रह्मत्व) है। यह अकथ है। इस का प्रकथन कौन कर सकता है? काम इस का पुत्र है। ब्रह्मसुत काम को मेरा नमस्कार। ब्रह्म के दो रूप हैं-सम और असम (विषम) सम एकरस, शान्त, शिव, उद्वेगरहित विषम= ऊबड़ खाबड़ (ऊँच-नीच), अशान्त, उद्वेगयुक्त (काम) समतत्व शिव है तो विषम तत्व काम संसार सम असम होने से शिवकामात्मक है।
इसमें एक ही साथ शिव और काम की युति है। पृथिवी सम विषम है। इसी लिये शरीर भी सम-विषम है। सौन्दर्य बोध के लिये सम-विषम की अनिवार्यता समीचीन है। इस में कटिक्षीण है तो श्रोणि पृथुल है। कुक्षि गहन (खोखली) है तो कुच पौन वा उत्तुंग शरीर में सर्वत्र उभार है तो गड्ढ़े भी हैं।
इसी से यह सुन्दर लगता है। इस प्रकार शरीर पर काम का वर्चस्व है। अतः सभी शरीरधारी कामी हैं। कामी होने से वे सब धन्यवाद के पात्र हैं। मैं भी कामी हूँ कामी होने से मैं भी धन्यवाद का पात्र हूँ। कामिने नमः। महाकामिने भगवते विष्णवे नमः। काम वासना के सम्मुख कोई नीति नहीं, कोई सम्बन्ध नहीं, कोई जाति नहीं, कोई योनि नहीं।
केवल दो होते हैं- स्त्री पुरुष घटित होता है-मैथुन सम्भोग आश्लेष परिरम्भ शोषण दोहन च्युतन यह काम का आचार एवं इतिहास रहा है। ऐसे काम को मेरा नमस्कार।
वैदिक कामसंहिता रची गई। तांत्रिक कामशास्त्र का प्रसवन हुआ। प्रस्तरों पर कामकला का वृक्षण हुआ मन्दिरों के द्वार पर कामाप्लावित यक्षिणियों को मूर्तियाँ बनीं। १२ पहियों वाले सात घोड़ों वाले रथ पर बैठे हुए सूर्य की तीन मूर्तियों वाले कोणार्क मन्दिर में मैंने सम्भोगरत कामलिप्त उन्मादकर उत्तेजक नाना मुद्राओं वाली सम्भोगरत मैथुनात १० उत्कीर्ण चित्र देखा (प्राप्त किया)।
यह कमनीय विश्व का बहुफलकीय दर्पण है। इसमें अपना प्रतिबिम्ब देखने पर कामसत्ता की अहेतुको अनुभूति अनुस्मृति होती है। अनून काम को मेरा नमस्कार। स्थूल भौतिक शरीर में काम का लौकिक एवं वरेण्य रूप होता है। सूक्ष्म शरीर में काम का जपन्य पैशाचिक रूप होता है।
यह सबको पीडा पहुंचाता है। कारण शरीर, जिसमें तन्मात्रों विषयों (शब्द स्पर्श रूप रस ग्रन्थ) का सर्वथा अभाव होता है, काम का उदात्त उत्कृष्ट रूप होता है। लिंग शरीर, जिसमें दस इन्दियों का नाम तक नहीं होता, केवल काम का बीज होता है। इसे अक्रिय काम कहते हैं। इसी का नाम निष्काम काम है।
इससे परे जो अशरीरी तत्व है, वह काम का निस्वैगुण्य रूप है। यह अवर्ण्य अप्रमेय अज्ञेय अद्वय अग्नि है। इस अग्निकाम को मेरा शतशत नमन।
कामकथा के विस्तार की कोई सीमा नहीं है। स्थूल शरीर वाला मनुष्य कहलाता है। सूक्ष्म शरीर वाला प्रेत कहा जाता है। कारण शरीर वाला पितर होता है। जो पितर होता है, वही देवता है। लिंग शरीर वाला ईश्वर है। जीव की तरह ईश्वर भी अनेक है।
ईश्वर का शरीर मन, बुद्धि, अहंकार से निर्मित होता है। ईश्वर निष्काम है। नाना जीवों, देवों, ईश्वरों की अधिनायिका / नियंत्रिका / मातृका महामाया है। इसके पुत्र काम की मैं स्तुति करता हूँ।
यस्मिन् सर्वं यतः सर्वं सर्वे सर्वतश्च यः।
यस्मात् सर्वमयो विश्वं तस्मै रतिपतये नमः।।
नमस्तेऽस्तु योगनाथ वीर्यनाथ नमोऽस्तु ते।
नस्तेऽस्तु सुखनाथ लिंगनाथ नमोऽस्तु ते॥
नमस्तेऽस्तु रात्रिनाथ वृष्यनाथ नमोऽस्तुते।
नमस्तेऽस्तु रतिनाथ रूपनाथ नमोऽस्तु ते॥
नमस्तेऽस्तु विश्वनाथ प्राणनाथ नमोऽस्तु ते।
नमस्तेऽस्तु युग्मनाथ यौननाथ नमोऽस्तु ते॥
नमस्तेऽस्तु पुष्पधन्वन् मनोभव नमोऽस्तु ते।
नहि जानामि ते भावं नम अद्भुतकर्मकृत्॥
काम सृष्टि का प्रथमोत्पन्न तत्व है। अकाम से काम की उत्पत्ति वैसे ही हुई जैसे असत् से सत् की। अभाव से भाव का उद्गम होता है। जैसे भाव की योनि अभाव है, असत् मात्र सत् का स्रोत है, उसी प्रकार काम का बीज अकाम है। अकाम अननुभूत तत्व है, जबकि काम एक अनुभूत शक्ति है।
काम अव्यक्त प्रकृति से व्यक्त प्रकृति में संक्रमित होता है। सर्वप्रथम यह महत्तत्व (समष्टिबुद्धि) में प्रवेश करता है। यहाँ से अहंकार में गमन करता है। अहंकार से मन में समाहित होता है। मन से होकर यह पञ्च ज्ञानेन्द्रियों में तथा यहाँ से पुनः पञ्च कर्मेन्द्रियों में प्रवेश करता है।
अहंकार से ही काम पञ्च तन्मात्राओं में विषय के रूप में आ टिकता है और पञ्चभूतों के रूप में स्थूल रूप ग्रहण करता है। यह सम्पूर्ण सृष्टि काम है।
सो ऽकामयत : बृहदारण्य उपनिषद (१/२/४,६,७) के इस सूत्र के अनुसार या (परम सत्ता) ने अपने को काम रूप में प्रकट किया। सः अकामयत (कम् कामयते आत्मने लङ् प्र. पु. एक वचन) वह काम हुआ उस से काम का प्राकट्य हुआ।
काम पहले हुआ इस पर सभी अषि एकमत हैं।
कामस्तदप्रे समवर्तताथि
मनसो रेतः प्रथमं यदासीत्।
सतो बन्धुमति निरविन्दन्
हदि प्रतीच्या कवयो मनीषा॥
~ ऋग्वेद (१०/१२९/४)
कामः अधि= काम ऊपर है, प्रमुख है, मुख्य है, प्रधान है, परम है, प्रकृष्ट है।
अधिकामः= महाकाम।
तद् अग्रे सम्-अवर्तत = पहले वह पैदा हुआ, पहले कामशक्ति का प्राकट्य हुआ।
यद् रेतः (स) प्रथमम् मनसः आसीत् = जो रेत है, वह पहले मन से उत्पन्न हुआ।
निर् अविन्दन् (स) सतः असति.
हृदि प्रतीष्या- हृदय में प्राप्त होता मिलता है।
कवयः मनीषा =यह विद्वानों का विचार मत है। ऐसा ज्ञानी जन कहते हैं।
सम् + वृत् आविर्भाव + लड् म. पु. बहुवचन = समवर्तत (अभवत)। मन् ज्ञाने +असुन = मनस् + इसि = मनसः (पंचमी एक वचन)
री गतौ च्युतौ रयति रीयते+ घञर्थे क्त = रेत-गतिशील च्योवनशील + सु = रेत: (वीर्य)।
विद् ज्ञाने विन्दति + शतृ = विन्दत् (जानता हुआ, हस्तगत करता हुआ) + सु = विन्दन् ।
निर् + नव् + विन्दन् निर्अविन्दन् निरविन्दन् न जानते हुए, संज्ञाहीन अवस्था में रहते हुए अस् भुवि असति + शत्रु सतु अकार लोपः (वर्तमान, विद्यमान, वास्तविक अस्तित्ववान् स्थिर)। सत् + इसि = सतः (स में से निकल कर, अपादान एक वचन)। नञ् + सत् + वि + = असति (सत् में, सप्तमी एक वचन)।
बन्ध् बध्नाति + उ = बन्धु =सम्बन्धी, बाँधने वाला + जसु = बन्धुम् अथवा, बन्ध् + तुमुन = बन्धुम बांधने के लिये बन्धन हेतु।
हृ हरणे हरति – ते क्विप्=हृत्- ले जाने वाला, छीनने वाला, हटाने वाला आकर्षक, मनोहर । + कि हृदि हृदय में, मन में अन्दर भीतर।
प्रति+ इष् प्राप्तौ प्रतिष्यते + क्यप्= प्रतीष्य + टापू = प्रतीच्या प्राप्ति, उपलब्धि।
कु शब्दे कवते, ज्ञाने कवति + इ = कवि-वक्ता, ज्ञानी, चतुर, बुद्धिमान् विद्वान् + जस् (ज्ञानी जन) कव् वर्णने कवते + इ= कवि -वर्णन करने वाला, चित्रित करने वाला, प्रकट करने वाला, रचने वाला, ब्रह्मा, सष्टा। मन् +ईषा= मनीषा सोच, विचार प्रज्ञा, समझ ज्ञान, बुद्धि चाह, कामना।
ऋगृ गतौ अगति + रक् = अग्र वक्रगति से चलने वाला, आगे चलता हुआ पीछे चलने वाला, चक्रीय क्रम वाला, समय, काल, यम।
अब्रू गतौ + रक् = कवयः
सर्वोपरि प्रथम, आगे, पहले, ज्येष्ठ श्रेष्ठ अग्रे (क्रिया विशेषण) = पहले पहल, सर्वप्रथम, सामने।
यद् तद् रेतः प्रथमम् मनसः आसीत्। निरविन्दन् (स) सतः असति बन्धुम् (प्रविष्ट) (इदम्) कवयः मनीषा, हृदि प्रतीष्या (वा)।
महाकाम सर्वप्रथम अस्तित्व में आया। जो वह रेत (कामबीज) है, सब से पहले मन से उत्पन्न हुआ। अनजाने में ही वह काम सत् से असत् में जीवों को बांधने के लिये प्रवेश किया। ऐसा विद्वानों का मत है। यह हृदयगत उपलब्धि है।
परिवर्तनशील एवं समयभंगुर को असत् कहते हैं। यह शरीर असत् है। जिस की उत्पत्ति एवं विनाश होता है, वह असत् है जो सदैव रहता है, मात्र प्राकट्य एवं तिरोभाव होता है, वह सत् है। जीव सत् है । हैं। कारण शरीर सत् है। कारण शरीर में काम रहता है। वहाँ से सूक्ष्म शरीर में गमन करते हुए वह स्थूल देह में प्रकट होता है।
इस लिये कामतत्व सत् एवं असत् हो कर भी इन दोनों से परे है। स्थूल शरीर में काम के दो ध्रुव हैं- पुरुष और स्त्री पुरुष में काम कल्पन वीर्य रूप से तथा स्त्री में रज के रूप में होता है। वीर्य को रेत तथा रज को रपि कहते हैं। रेत और रधि के योग से सृष्टि का विस्तार है। मन्त्र में रेत की उत्पत्ति मन से कही गई है।
इसी प्रकार रधि की उत्पत्ति भी मन से समीचीन है। रधि एवं रेत दोनों मनोजव हैं। पुरुष का मन रेतोत्पादक तथा स्त्री का मन रथ्योत्पादक है। रेत और रधि दोनों में गति है। ये दोनों अपनी गति से परस्पर मिल कर आनन्दवर्धन करते हैं।