-डॉ. प्रकाश हिन्दुस्तानी
हले डायरेक्टर ने फ़िल्म छोड़ दी, फिर निर्माता ने हाथ खींच लिया और फिर लेखक ने भी छुट्टी मार दी।
– रणदीप हुड्डा ने ठान लिया और सारे काम भी खुद ही किये। इसमें एक साल टूट गया।
– यह ऐसी फिल्म है जिसका ट्रेलर आते ही फ़िल्म समीक्षा आ गई यानी बिना देखे समीक्षा होने लगी, क्योंकि सबके एजेंडे हैं। Uट्यू वालों के भी हैं!
– रणदीप हुड्डा जब रंग रसिया में आये, तब राजा रवि वर्मा हो गए; जब सरबजीत में आये, तब सरबजीत बन गए थे। अब वे स्वातंत्र्य वीर सावरकर की काया में घुसकर पूछ रहे हैं कि किसी भी कांग्रेसी को काला पानी की सजा हुई है क्या? अहिंसा की बात करनेवाले बार-बार आमरण अनशन करते रहे, लेकिन उनकी मौत हिंसा से हुई और हिंसक माने जानेवाले की मृत्यु अहिंसक आमरण अनशन से क्यों हुई? रामराज्य लाना हो तो रावण का वध अनिवार्यता है।
– आईपीएल, होली और चुनाव का बुखार जोरों ओर है। ऐसे में फ़िल्म चलेगी या न नहीं, कहा नहीं जा सकता। लेकिन रणदीप हुड्डा ने काम तो गज़ब का किया है। यह फ़िल्म आपका मनोरंजन नहीं करेगी, गुदगुदाएगी नहीं, लेकिन इतिहास के कुछ पन्नों को पलटाने पर विवश कर देगी।
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रणदीप हुड्डा का परकाया प्रवेश है सावरकर फिल्म
इतना ‘पिन ड्राप सायलेंस’ मैंने केवल स्टूडियो देखा है, जितना सावरकर फिल्म देखने के दौरान महसूस किया। वीर सावरकर पर रणदीप हुड्डा की फिल्म देखने के लिए धैर्य और संजीदगी चाहिए। आरोप हैं कि यह ‘एजेंडा’ फिल्म है। जब यूट्यूब चैनल तक एजेंडा परोस रहे हैं तो फिर यह तो करोड़ों में बनी फिल्म है। फिल्म सावरकर के जीवन के साथ ही अनेक क्रांतिकारियों के बलिदान पर रोशनी डालती है। कई महान नेताओं के जीवन की परतें खोलती है। हिन्दू और हिन्दुत्व, स्वतंत्र भारत और अखंड भारत, मुस्लिम लीग और हिन्दू महासभा, सांप्रदायिक और जातीय संघर्षों और महिलाओं की दशा पर फिल्म चर्चा कराती है। गांधी और जिन्ना, गोखले और तिलक, नेहरू और सुभाष, आम्बेडकर और भगतसिंह आदि के चरित्र, विचार और सन्दर्भ भी हैं।
रणदीप हुड्डा का परकाया प्रवेश है सावरकर फिल्म में। फिल्म में लगा कि रणदीप हुड्डा ही सावरकर है। यह नकली मूछें चिपकाकर पृथ्वीराज चौहान बनना नहीं, सीन दर सीन काला पानी की सजा भोग रहे, कोल्हू से तेल निकालते, काला पानी में बेड़ियों में जकड़े-जकड़े मरने ही हद तक बार-बार पिटते, बार-बार जेल के अंडा सेल में लात, कोड़े और डंडे खाकर पानी तक को तड़पते, आजादी के लिए संघर्ष करते सावरकर की कहानी हैं, जिनके बलिदान को कोई नकार नहीं सकता। हर सीन में रणदीप हुड्डा ने कमाल किया है। गठीले बदन का युवक काला पानी में शनै-शनै दुबला, कमज़ोर और हड्डियों का ढांचा बन जाता है। बाल गिरने लगते हैं, दांत पीले और गंदे होते हुए टूटने लगते हैं। कूबड़ निकलने लगता है लेकिन केवल चीज अक्षत रहती है हौसला !
भरोसा करना पड़ता है कि इसी धरती पर ऐसे विचारक, पराक्रमी, योद्धा भी हुए हैं जिनके कारण हम खुली हवा में सांस ले रहे हैं। यह दाढ़ी बढ़ाकर चे ग्वारा की फोटो छपी टी शर्ट पहनकर क्रांतिकारी कॉमरेड बनना नहीं है।
यह फिल्म मजे लेने के लिए है ही नहीं। न नाच-गाना है, न रोमांस ! सौ-सौ लोगों की पिटाई करता हीरो इसमें नहीं है। न कॉमेडी है, न बेडरूम सीन्स। और कोई डायरेक्टर होता तो क्रिएटिव फ्रीडम के बहाने सावरकर और उनकी पत्नी बनी अंकिता लोखंडे के बिस्तर की कहानी बताता। यहाँ सावरकर को कॉमरेड लोगों से यह कहते दिखाया गया है कि हमें अहिंसावादी नहीं, ऐसे युवा चाहिए जो अंग्रेज़ों का कलेजा फाड़ के खा जाएँ। राम राज्य कोई अहिंसा से नहीं आया, राम राज्य आया था रावण, उसके भाइयों और उसके सैनिकों का वध करके। दुनिया भर में जो भी आजादी की लड़ाई कर रहा है, वह हमारा भाई है। अंग्रेजी अखबार कांग्रेस की खबर छापते हैं और हमें हिंसक आतंकवादी लिखते हैं। कांग्रेस आजादी की लड़ाई में केवल प्रस्ताव पास करनेवाली पार्टी है। केवल शक्तिशाली ही दयालु हो सकते हैं। किसी मुसलमान का दिया खाना खाने से कोई मुसलमान नहीं हो जाता, न हिन्दू के खाने से कोई हिन्दू! मोपला की हिंसा, खिलाफत आंदोलन आदि का भी जिक्र है। फिल्म के अनुसार महात्मा गांधी जिन्ना को आजाद (अविभाजित) भारत का प्रधानमंत्री बनाने और एक मुस्लिम वोट को हिन्दुओं के तीन वोट बराबर मानने तथा 25 प्रतिशत मुस्लिम आबादी को 36 प्रतिशत सीटें देने को राजी थे, जिससे सावरकर असहमत थे। फिल्म के अनुसार सुभाष चंद्र बोस ने ही सबसे पहले सावरकर को ‘वीर सावरकर’ कहा था।
स्वातंत्र्य वीर सावरकर फिल्म का निर्देशन भी रणदीप हुड्डा को मज़बूरी में करना पड़ा। उन्होंने गंभीरता से काम किया है। उनके कारण ही फिल्म अपने मकसद में सफल नजर आती है। मनोरंजन और मस्ती के लिए फिल्म नहीं बनी है। इंटरवल के बाद सावरकर के काला पानी के दृश्य मार्मिक हैं।