राजेंद्र शुक्ला, मुंबई
कितने ऐसे मनुष्य हैं, जो संसार के किसी पदार्थ से प्रेम नहीं करते, उनके भीतर किसी भी मौलिक वस्तु के प्रति सद्भाव नहीं होता। वे निर्दय, निर्भय, निष्ठुर होते हैं।
निस्संदेह वे अनेक प्रकार की कठिनाइयों से, मुसीबतों से, बच जाते हैं, किन्तु वैसे तो निर्जीव पत्थर की चट्टान को भी कोई शोक नहीं होता, कोई वेदना नहीं होती, लेकिन क्या हम सजीव मनुष्य की तुलना पत्थर से कर सकते हैं?
जो वज्रवत् कठोर हृदय होते हैं, नितान्त एकाकी होते हैं, वे चाहे कष्ट न भोगें पर जीवन के बहुत से आनन्दों का उपभोग करने से वे वंचित रह जाते हैं।
ऐसा जीवन भी भला कोई जीवन है? वैरागी वह है जो सब प्रकार से संसार में रह कर, सब तरह के कार्यक्रम को पूरा कर, सब की सेवा कर, सबसे प्रेम कर, फिर भी सबसे अलग रहता है।
हम लोगों को यह एक विचित्र आदत सी पड़ गई है कि जो भी दुष्परिणाम हमको भोगने पड़ते हैं, जो भी कठिनाइयाँ आपत्तियाँ हमारे सामने आती हैं, उनके लिए हम अपने को दोषी न समझ कर दूसरे के सर दोष मढ़ दिया करते हैं।
संसार बुरा है, नारकीय है, भले लोगों के रहने की यह जगह नहीं है, यह हम लोग मुसीबत के समय कहा करते हैं। यदि संसार ही बुरा होता और हम अच्छे होते तो भला हमारा जन्म ही यहाँ क्यों होता?
यदि थोड़ा सा भी आप विचार करो, तो तुरन्त विदित हो जायेगा कि यदि हम स्वयं स्वार्थी न होते तो स्वार्थियों की दुनियाँ में आप का वास असंभव था। हम बुरे हैं तो संसार भी बुरा प्रतीत होगा लेकिन लोग वैराग्य का झूठा ढोल पीटकर अपने को अच्छा और संसार को बुरा बताने की आत्म वंदना किया करते हैं।