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लोहिया की धरती पर सपा का सूखा

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जिन प्रख्यात समाजवादी डॉ. राम मनोहर लोहिया के सिद्धांतों से प्रेरित होकर समाजवादी पर्टी का गठन हुआ उन्हीं की जन्मभूमि पर सपा को लोकसभा चुनाव में जीत का इंतजार है। पार्टी गठन के बाद हुए सात आम चुनावों में सपा चार बार दूसरे स्थान तक आई, लेकिन जीत नसीब नहीं हुई। 

2004 के उपचुनाव में जरूर सपा को विजय मिली, लेकिन इसे बसपा प्रमुख द्वारा बार-बार जीत के बाद भी सीट छोड़ने की प्रतिक्रिया के तौर पर देखा गया। समाजवादी चिंतक डॉ. राम मनोहर लोहिया की जन्मस्थली अकबरपुर है। यहीं से लोहिया के सिद्धांतों ने वैचारिक क्रांति की अलख जगाई। 

पूरी दुनिया में उनके समाजवादी आदर्श की गूंज हुई, लेकिन इन सबके बीच डॉ. लोहिया का नाम लेकर आगे बढ़ी समाजवादी पार्टी को अकबरपुर में ही आम चुनाव के सफर में एक भी जीत मयस्सर नहीं हो सकी।

वर्ष 1992 में गठन के बाद सपा ने पहला आम चुनाव वर्ष 1996 में लड़ा। तब अकबरपुर सुरक्षित संसदीय सीट पर पार्टी ने अयोध्या (तत्कालीन फैजाबाद) जनपद के कद्दावर दलित नेता अवधेश प्रसाद को टिकट दिया। डॉ. लोहिया की धरती पर सपा ने बड़े चेहरे को उतार कर मजबूत संदेश देने की कोशिश की। 

अवधेश प्रसाद चुनाव भी पूरी मजबूती से लड़े, लेकिन बसपा की जीत के बीच 24,567 मतों से पीछे रह गए। उन्हें 1,69,046 मतदाताओं का साथ मिला। हार के बाद भी सपा के लिए यहां एक सुखद स्थिति यह जरूर रही कि प्रत्याशी को कुल 27.12 प्रतिशत मत मिले जो पार्टी के कुल औसत मत 20.84 प्रतिशत से कहीं अधिक था।

लड़ाई करीब, लेकिन जीत से रहे दूर
वर्ष 1998 के लोकसभा चुनाव में सपा के डॉ. लालता प्रसाद कनौजिया 2,38,382 मत के साथ, वर्ष 1999 में राम पियारे सुमन 2,06,376 मत के साथ जबकि वर्ष 2004 के सामान्य चुनाव में सपा प्रत्याशी शंखलाल मांझी 2,66,750 मत के साथ दूसरे स्थान पर रहे।

इस चुनाव के बाद हुए परिसीमन में जिले की इकलौती सीट अकबरपुर सुरक्षित से बदलकर सामान्य श्रेणी में आ गई। नाम भी अंबेडकरनगर हो गया। सामान्य सीट पर हुए पहले चुनाव में भी सपा को जीत नहीं मिली। शंखलाल मांझी बतौर सपा प्रत्याशी 2,36,751 मत के साथ बसपा के राकेश पांडेय से 22,736 वोटों से पिछड़ गए। यह जरूर रहा कि इससे पहले के चुनाव परिणामों को शामिल किया जाए तो इस बार सबसे कम मत से सपा को हार मिली।

2014 में सपा ने जातीय समीकरणों को ध्यान में रखकर फिर से जोर लगाया। पूर्व मंत्री राम मूर्ति वर्मा को मैदान में उतारा, लेकिन वे तीसरे स्थान पर खिसक गए। वर्ष 2019 में सपा खुद यहां चुनाव नहीं लड़ी। गठबंधन के चलते यह सीट बसपा के खाते में चली गई थी। तब सपा के सहयोग से जीते सांसद रितेश पांडेय अब भाजपा से चुनाव लड़ रहे हैं, वहीं सपा से पूर्व मंत्री लालजी वर्मा मैदान में डटे हैं।

उपचुनाव ने दिया सहारा
सपा को आम चुनाव में जीत न मिलने के दर्द के बीच वर्ष 2004 के उपचुनाव में थोड़ी राहत मिली। हालांकि उसे सपा की जीत से ज्यादा बसपा प्रमुख मायावती द्वारा बार-बार यहां जीत के बाद सीट छोड़ने की प्रतिक्रिया के तौर पर देखा गया। बसपा प्रमुख यहां लगातार तीन बार सांसद चुनी गईं। सीट रखने की बजाय दो बार वे इसे छोड़ गईं। वर्ष 2002 में जिले की तत्कालीन जहांगीरगंज विधानसभा सीट पर जीत के बाद भी मायावती ने उसे अपने पास नहीं रखा।

नतीजा यह हुआ कि 2004 के आम चुनाव में भी जीत के बाद जब मायावती ने यह सीट छोड़ी तो उपचुनाव में सपा प्रत्याशी शंखलाल मांझी ने जीत दर्ज कर ली। उन्होंने बसपा के त्रिभुवन दत्त को हराया। सपा के साथ ऐसे में इसी एक उपचुनाव में यह सीट हाथ लग पाई।

विधानसभा में शानदार प्रदर्शन
लोकसभा चुनाव में भले ही सपा की हसरत पूरी नहीं हो पा रही, लेकिन पिछले विधानसभा चुनाव में पार्टी ने जोरदार प्रदर्शन किया। पूरे प्रदेश में भाजपा की भले ही धमाकेदार जीत हुई, लेकिन अंबेडकरनगर में सपा का प्रदर्शन एकतरफा रहा। जलालपुर से राकेश पांडेय, टांडा से राममूर्ति वर्मा, आलापुर से त्रिभुवन दत्त, अकबरपुर से राम अचल राजभर और कटेहरी से लालजी वर्मा सपा के टिकट पर चुनाव लड़कर विधायक बने। वर्ष 2017 के चुनाव में भाजपा को टांडा और आलापुर में जीत मिली थी।

सपा ने वह दोनों सीटें भी छीन लीं। विधानसभा चुनाव में मिली इस अप्रत्याशित जीत के बूते ही सपा इस बार लोकसभा में परिवर्तन की उम्मीद लगाए है। यह बात अलग है कि सपा के कद्दावर विधायक राकेश पांडेय बीते दिनों पार्टी से बगावत कर राज्यसभा चुनाव में बीजेपी प्रत्याशी को वोट दे चुके हैं। उन्हीं के पुत्र रितेश भाजपा से चुनाव लड़ रहे हैं।

उपचुनाव में ही सांसद बने थे डॉ. लोहिया
डॉ. लोहिया वर्ष 1963 में फर्रुखाबाद सीट पर हुए लोकसभा उपचुनाव में करीब 58 हजार वोट से विजयी होकर सांसद बने थे। उनका जन्म 23 मार्च 1910 को अकबरपुर में हुआ था, जब वे ढाई वर्ष के थे तो माता चंदा का निधन हो गया। पालन पोषण परिवार की दाई सरयू देई ने किया।

पेशे से अध्यापक पिता हीरालाल उन्हें वर्ष 1918 में ही कांग्रेस के अहमदाबाद अधिवेशन में लेकर गए थे, जिसके बाद डॉ. लोहिया ने पीछे मुड़कर नहीं देखा। वे भारत छोड़ो आंदोलन में पहली बार 20 मई 1944 को गिरफ्तार हुए। राष्ट्रभक्ति उनमें इस कदर थी कि सरकार की कृपा पर पेरोल पर रिहा होने से इन्कार कर दिया था।

ऐसे मिली थी जीत

प्रत्याशीदलप्राप्त मत
डॉ. राम मनोहर लोहियासोशलिस्ट पार्टी1,07,816
डॉ. बीके केशकरकांग्रेस50,528
भारत सिंह राठौररिपब्लिकन पार्टी5422
अवैध  4340
जीत का अंतर 57,288
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