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*न सब का साथ, न सब का विश्वास, विकास सिर्फ धन्नासेठों का*

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*(आलेख : राजेंद्र शर्मा)* 

सब का साथ, सब का विकास, सब का विश्वास, सब का प्रयास’ और ‘सब को न्याय, तुष्टीकरण किसी का नहीं।’

मोदी राज के ये नारे, झूठ बोलने में इस राज के दूसरे सभी नारों से भी आगे हैं। सच्चाई यह है कि यह झूठा नारा लगाते-लगाते, संघ-भाजपा ने स्वतंत्र भारत की धर्मनिरपेक्षता की प्रतिबद्घताओं को पलटते हुए, देश पर ऐसा राज थोपा है, जिसने अल्पसंख्यकों को तो ज्यादा से ज्यादा ‘पराया’ बनाया ही है, दलितों, आदिवासियों, पिछड़ों और महिलाओं को भी ज्यादा से ज्यादा दबाया है। इसका नतीजा अल्पसंख्यकों, खासतौर पर मुसलमानों व ईसाइयों के खिलाफ तेजी से बढ़ते हमलों के साथ-साथ सभी वंचितों के खिलाफ बढ़ते हमलों के रूप में सामने आ रहा है। इसीलिए, तो राष्ट्रीय अपराध रिकार्ड ब्यूरो के ताजातरीन यानी 2022 के आंकड़े, अनुसूचित जातियों तथा जनजातियों के खिलाफ अपराधों तथा अत्याचारों में तो बढ़ोतरी दिखाते ही हैं, महिलाओं के खिलाफ अपराधों में भी पूरे 4 फीसद बढ़ोतरी दिखाते हैं।

ईसाई धार्मिक स्थलों तथा शिक्षा संस्थाओं के खिलाफ आम हमलों के अलावा, आदिवासी इलाकों में ईसाई आदिवासियों के खिलाफ संघ परिवार द्वारा विशेष रूप से हमलावर अभियान चलाए जा रहे हैं। आदिवासियों पर हिंदू धार्मिक तौर-तरीके थोपने की कोशिश करने के अलावा, जिसका आदिवासियों का एक हिस्सा प्रतिरोध भी कर रहा है, ईसाई आदिवासियों का अनूसूचित जाति का दर्जा समाप्त करने की मांग का अभियान भी अब इस मुद्दे का एक महत्वपूर्ण पहलू हो गया है। वास्तव में आदिवासियों के अनुसूचित जाति के दर्जे को खत्म कराने के इसी हथियार का, मणिपुर में बहुसंख्यक मैतेई उग्रवादियों द्वारा कुकी समुदाय के खिलाफ इस्तेमाल करने की कोशिश की जा रही है। याद रहे कि उत्तर-पूर्व के इस संवेदनशील राज्य में मैतेई तथा कुकी समुदायों के बीच के इथनिक विभाजन को, हिंदू-ईसाई टकराव के रूप में तब्दील करने की, मौजूदा शासन तथा संघ परिवार की राष्ट्रविरोधी कोशिशों के चलते ही, मणिपुर दस महीने से ज्यादा से जल रहा है।

इसीलिए, हैरानी की बात नहीं है कि प्यू रिसर्च सेंटर के धार्मिक समुदायों के बीच की खाई को दर्शाने वाले ‘सोशल होस्टिलिटीज इंडैक्स’ पर, भारत को ‘बहुत ऊंचा’ की श्रेणी में रखा गया है, पाकिस्तान तथा श्रीलंका के साथ सबसे ऊपर। और इस सूचकांक पर 2019 और 2020 के बीच, हालात का और बिगडऩा भी दर्ज किया गया है। नौबत यह है कि नरसंहार या होलोकॉस्ट के खतरों पर नजर रखने वाली संस्थाओं/ विशेषज्ञों ने भारत के नरसंहारों की कगार पर पहुंच जाने की चेतावनियां देना भी शुरू कर दिया है। जाहिर है कि इसका रास्ता, नफरती बोल-वचन के बढ़ते प्रकोप से बन रहा है और इसे केंद्र तथा अनेक राज्यों में सत्ता में बैठी भाजपा की खुली शह ने, एक महामारी ही बना दिया है। इसी की पूरक है फेक न्यूज की महामारी। इसके मामले में तो गज़ा में इजरायली नरसंहार के बीच यह तथ्य भी सामने आया है कि मौजूदा निजाम की शह पर भारत, दुनिया भर की मुस्लिम/ इस्लामद्वेषी फेक न्यूज की राजधानी तो पहले ही बन भी चुका है।

एक और झूठा दावा बार-बार दोहराया जाता है कि मोदी के राज में कोई दंगे नहीं होते। इस झूठे दावे से वे दो मकसद साधने की कोशिश करते हैं। एक, कानून-व्यवस्था के मोर्चे पर मोदी राज की छवि चमकाना। दूसरे, यह दिखाना कि मोदी से पहले रहे उन शासनों में ही दंगे होते थे, जिन्हें वे अल्पसंख्यकों का तुष्टीकरण करने वाले शासन बताते हैं। यानी दंगे अल्पसंख्यकों को छूट दिए जाने की वजह से ही होते हैं और मोदी राज ने और भाजपा की राज्य सरकारों ने, ‘सख्ती’ का रुख अपनाकर रोक दिया है! उत्तर प्रदेश के भाजपायी मुख्यमंत्री, आदित्यनाथ ने तो राज्य में 2017 से 2021 के बीच ‘एक भी दंगा नहीं होने’ का ही दावा कर दिया था।

लेकिन, यह सफेद झूठ है। मोदी राज में तमाम सरकारी आंकड़ों से की गयी छेड़छाड़ के हिस्से के तौर पर, सांप्रदायिक हिंसा की घटनाओं को कम कर के दिखाने की कोशिश किए जाने के बावजूद, उपलब्ध सरकारी आंकड़े भी यही कहते हैं कि मोदी राज में सांप्रदायिक हिंसा की घटनाएं लगातार और अच्छी-खासी संख्या में होती रही हैं। केंद्रीय गृहराज्य मंत्री, नित्यानंद राय ने 7 दिसंबर 2022 को राज्यसभा में यह जानकारी दी थी कि 2017 से 2021 तक, मोदी राज के पांच साल में सांप्रदायिक हिंसा की 2,900 घटनाएं दर्ज हुई थीं। राष्ट्रीय अपराध रिकार्ड ब्यूरो के आंकड़ों के अनुसार, मोदी राज के पहले तीन वर्षों में यानी 2014 से 2016 तक ऐसी हिंसा की 2,885 घटनाएं दर्ज हुई थीं। दूसरी ओर, 2022 में भी 272 घटनाएं दर्ज हुई थीं। यूनाइेड क्रिश्चियन फोरम ने 2023 के पहले छ: महीने में ही ईसाईविरोधी हिंसा के 525 मामले दर्ज किए थे।

लेकिन, ये संख्याएं तो सिर्फ भाजपा राज में कोई दंगा नहीं होने का झूठा होना ही दिखाती हैं। वास्तविक स्थिति इससे बहुत भयानक है। 2020 की फरवरी के उत्तर-पूर्वी दिल्ली के दंगे, 2023 की जुलाई के हरियाणा के नूह के दंगे और 2024 के उत्तराखंड में हल्द्वानी के दंगे, इस कडु़वी सच्चाई को दिखाते हैं कि भाजपा के राज में पुलिस-प्रशासन को ज्यादा से ज्यादा मुस्लिमविरोधी सांप्रदायिक दमन के हथियार में तब्दील किया जा रहा है। और प्रशासन के खुद दंगाई की भूमिका संभाल लेने से, जाहिर है कि बाकायदा दंगों की जरूरत बेशक कुछ कम हो जाती है। अल्पसंख्यकों पर हमले और दमन को, बेशर्मी से राजकीय कार्रवाई का रूप देकर छुपाया जा सकता है।

दूसरी ओर, सांप्रदायिक हिंसा का इकतरफापन तेजी से बढ़ रहा है। पिछले दो वर्षों के दौरान राजधानी दिल्ली से लेकर राजस्थान, मध्य प्रदेश, हरियाणा, बंगाल व अन्य कई राज्यों में, कथित हिंदू नव वर्ष से लेकर, राम नवमी तथा हनुमान जयंती तक के बहाने से, भड़काऊ जुलूस निकालकर, सरासर इकतरफा हिंसा की गयी है और पुलिस-प्रशासन द्वारा पूरी तरह से इकतरफा कार्रवाइयां की गयी हैं। इनमें भाजपा सरकारों की बुलडोजर कार्रवाइयां भी शामिल हैं।

वास्तव में मोदी के राज में बुलडोजर को बहुसंख्यकवादी सरकारी जोर-जब्र की निशानी ही बना दिया गया है। एमनेस्टी इंटरनेशनल की एक रिपोर्ट में ऐसी 128 कार्रवाइयों को दर्ज किया गया है, जिनमें 600 लोग प्रभावित हुए हैं। इनमें ज्यादातर मुसलमानों को ही निशाना बनाया गया गया है। ऐसी सबसे ज्यादा 56 कार्रवाइयां भाजपा शासित मध्य प्रदेश में दर्ज हुई हैं। गुजरात की भाजपा सरकार के गृहमंत्री ने पिछले ही दिनों बाकायदा विधानसभा में गर्व के साथ ऐलान किया कि, ‘108 मजारें ध्वस्त हो चुकी हैं। पूरे राज्य में मुख्यमंत्री का बुलडोजर घूम रहा है।’

यह यकायक नहीं हो गया है। इन दस वर्षों में सिर्फ प्रकटत: धार्मिक मुद्दों को लेकर ही नहीं, गोरक्षा, लव जेहाद, धर्मांतरणविरोध, आबादी विस्फोट की चिंता, धारा-370 का खात्मा, समान नागरिक संहिता, नागरिकता अधिकार संशोधन आदि-आदि के नाम पर, तुष्टीकरण विरोध के झूठे नारे की आड़ में, जिस तरह एक के बाद एक अल्पसंख्यकविरोधी तथा सबसे बढ़कर मुस्लिमविरोधी अभियान छेड़े गए हैं, उन्हीं के सहारे देश मौजूदा हालात तक पहुंचा है। सिख अल्पसंख्यक तक इन अभियानों से अछूते नहीं रहे हैं और अपने ऊपर हिंदू पहचान थोपे जाने के खिलाफ, पृथक धार्मिक समुदाय के रूप में अपनी पहचान की रक्षा के लिए लड़ते रहे हैं। सत्ताधारी संघ परिवार की हिंदू राष्ट्र की पुकारों और शासन के हिंदुत्ववादी सांप्रदायिक अमल से, हाशिए पर पड़ी सिख अलगाव की धाराओं को भी बल मिल रहा है।

उत्तराखंड में कथित समान नागरिक कानून के जरिए एक ही झटके में, मुस्लिम निजी कानून को अवैध और उनके पालन को अपराध बना दिया गया है। यह भी वर्तमान शासन के मुस्लिम-द्वेष का ही उदाहरण है कि उच्च शिक्षा में मुसलमानों के पिछड़ेपन को कम करने के लिए, यूपीए के राज में जो मौलाना आजाद स्कॉलरशिप शुरू की गयी थी, उसे बंद करने के बाद, अब मोदी सरकार ने मौलाना आजाद फाउंडेशन को भी भंग कर दिया है। यह कार्रवाई इतनी मनमानी की है कि इसे अदालत में भी चुनौती दी गयी है।

इन्हीं हालात का एक और महत्वपूर्ण संकेतक है — बढ़ती सांप्रदायिक भीड़ हिंसा या मॉब लिंचिंग। गोरक्षा के नाम पर और लव जेहाद के विरोध के नाम पर, संगठित भीड़ हिंसा में विशेष तेजी से बढ़ोतरी हुई है। 2014 से अगस्त 2022 के बीच, गाय के नाम पर हिंसा के 206 मामले दर्ज किए गए, जिनमें 850 लोग प्रभावित हुए। इनके शिकारों में दलित व ईसाई भी शामिल हैं, किंतु 86 फीसद हिस्सा मुसलमानों का ही था। ऐसी 97 फीसद घटनाएं मोदी राज आने के बाद ही हुई थीं। गो तस्करी के नाम पर पहलू खान और घर पर गाय का मांस रखने के नाम पर अखलाक की भीड़ हत्याओं से शुरू हुआ यह सिलसिला न सिर्फ लगातार जारी है, इन हिंसक गिरोहों के हौसले बढ़ते ही जा रहे हैं, जिसका सबूत 2023 के शुरू में हरियाणा में हुआ भिवानी का नासिर-जुनैद हत्याकांड है। गोकुशी और गोमांस के मामले में भाजपा के रुख का दोमुंहापन हैरान करने वाला है। जहां राजनीतिक-चुनावी स्वार्थ इसकी मांग करते हैं, जैसे गोवा में, उत्तर-पूर्व के राज्यों में, यहां तक कि केरल जैसे राज्यों में भी, भाजपा गोकुशी के मुद्दे पर चुप साधने से लेकर, गोमांस सस्ता, सुलभ कराए जाने की मांग उठाने तक चली जाती है। और उत्तरी भारत में वही भाजपा, गोरक्षा के नाम पर अपने गुंडादलों द्वारा हिंसा, यहां तक कि लिंचिंग तक का बचाव करती है।

यह सब हो रहा है मोदी राज में शासन के शीर्ष से धर्मनिरपेक्षता का एक तरह से त्याग ही कर के, शासन का हिंदुत्वकरण किए जाने से। अयोध्या में राम मंदिर के शिलापूजन में प्रधानमंत्री मोदी के मुख्य यजमान बनने से इसके प्रत्यक्ष संकेत दिए जाने की औपचारिक शुरूआत हुई थी और इसे राम मंदिर की प्राण प्रतिष्ठा के पूरी तरह से शासन प्रायोजित ईवेंट में चरमोत्कर्ष पर पहुंचा दिया गया। और संसद से मोहर लगवा कर, बहुसंख्यकों के इस धार्मिक आयोजन को, बाकायदा राष्ट्रीय आयोजन बना दिया गया। इससे पहले, सेंगोल की संसद में स्थापना के जरिए भी, इस सिलसिले को आगे बढ़ाया गया था।

इसी सब के पूरक के रूप में वर्तमान सत्ताधारी पार्टी ने संसद के दोनों सदनों में और उत्तर-पूर्व को छोड़कर अधिकांश विधानसभाओं में अपना, मुस्लिम-ईसाई अल्पसंख्यक मुक्त होना सचेत रूप से सुनिश्चित किया है। इसी लोकसभा चुनाव के लिए भाजपा द्वारा घोषित पहली सूची में, 195 उम्मीदवारों में सिर्फ एक मुसलमान था और वह भी केरल से, जहां उनके उम्मीदवार के जीतने की संभावनाएं न्यूनतम हैं। इन हालात में अगर शासन तंत्र बहुसंख्यकवादी रास्ते पर बढ़ता जा रहा है, तो इसमें अचरज की बात नहीं है।

*(लेखक वरिष्ठ पत्रकार और  साप्ताहिक पत्रिका ‘लोकलहर’ के संपादक हैं।)*

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