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क्या आदिवासियों की अर्थव्यवस्था के बारे में चिंतित है सरकार ?

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 डॉ. जीतेंद्र डेहरिया

जैसा कि प्रतिष्ठित अर्थशास्त्रियों ने कहा है कि किसी भी अर्थव्यवस्था को प्रोत्साहित करने के लिए पूंजी संचय या वृद्धि आवश्यक शर्त है। जबकि कल्याणकारी अर्थशास्त्रियों का तर्क है कि आर्थिक वृद्धि आर्थिक विकास की गारंटी नहीं देता है, बल्कि इसके लिए आय का उचित वितरण और लोगों को समर्थ बनाना ज्यादा जरूरी है ताकि वे खुद अपने जीवन संबंधी आवश्यकताओं की पूर्ति कर सकें। लेकिन यदि व्यावहारिक रूप में देखा जाय तो किसी भी अर्थव्यवस्था का विकास संतुलित रखने के लिए दोनों शर्तें आवश्यक हैं, क्योंकि दोनों एक-दूसरे की पूरक हैं, जो बचत और निवेश पर निर्भर करता है। 

वर्तमान में अधिकांश देश विकास से ज्यादा अपनी आर्थिक वृद्धि को लेकर गंभीर हैं और अपनी आर्थिक वृद्धि और विकास को विभिन्न मापदंडों के माध्यम से मापते हैं ताकि वे स्वयं की स्थिति जान सकें और कमजोर पहलुओं पर उचित नीति बनाकर उनमें सुधार कर सकें। 

लेकिन वास्तविकता यह है कि देश के सभी क्षेत्रों और समुदायों में विकास की गति एक समान नहीं है। इसे बहुत सावधानी पूर्वक मूल्यांकन और विश्लेषण करने की आवश्यकता है और हमारी नीतिगत कमियों को पहचानने की आवश्यकता है ताकि उनमें सुधार लाया जा सके। एक तरफ तो सरकार उच्च आर्थिक वृद्धि दर का जश्न मना रही है तो दूसरी तरफ यह सवाल है कि क्या वह क्षेत्रीय आर्थिक वृद्धि दर और देश के आदिवासी क्षेत्रों और आदिवासी समुदायों के विकास के बारे में चिंतित है? सवाल यह भी है कि क्या सरकार आदिवासियों की प्रति व्यक्ति वास्तविक आय, प्रति व्यक्ति बुनियादी सुविधाएं, शैक्षणिक सुविधाओं की गुणवत्ता, कौशल की गुणवत्ता, स्वास्थ्य सुविधाओं की गुणवत्ता, उचित रोजगार के अवसर और उनके लोकतांत्रिक अधिकारों को बढ़ाने और सुरक्षित रखने के प्रति गंभीर है? 

तो समस्या कहां है? आदिवासियों के कमजोर आर्थिक विकास के लिए कौन जिम्मेदार है? क्या यह आर्थिक सिद्धांतों की समस्या है या आर्थिक नीतियों और नीति निर्माताओं की समस्या है? आजादी के सात दशकों के बाद भी क्यों सरकार और सरकार से संबंधित संस्थाएं अभी तक उन्हें गुणवत्तापूर्ण बुनियादी सुविधाएं उपलब्ध नहीं करा पा रही हैं और गैर-आदिवासियों की तरह उनकी वास्तविक प्रति व्यक्ति आय क्यों नहीं बढ़ा पा रही हैं? फिर उच्च आर्थिक वृद्धि और विकास के वास्तविक लाभार्थी कौन हैं? 

शादी समारोह के लिए पत्तल बनाता एक आदिवासी परिवार (तस्वीर : डॉ. जीतेंद्र डेहरिया)

इन सवालों को जन्म देती एक तस्वीर कुछ दिन पहले ली गई थी जब मैं मध्य प्रदेश के छिंदवाड़ा जिले के एक आदिवासी गांव (भाजीपानी) का सर्वेक्षण कर रहा था, जो जिला मुख्यालय से लगभग 60 किलोमीटर दूर अमरवाड़ा तहसील में स्थित है। जब ये लोग अपनी बेटी की शादी की तैयारी में लगे हुये थे और आर्थिक स्थिति कमजोर होने की वजह से वे शादी का खर्च कम करने के लिए माहुल के पत्ते से पत्तल बना रहे थे। वे जंगल से माहुल के पत्ते इकट्ठा करते हैं और रात में भोजन के बाद परिवार के सभी सदस्य एक जगह एकत्रित होकर पत्तल बनाते हैं। वे भोजन पकाने के लिए जलाऊ लकड़ी, देसी शराब बनाने के लिए महुआ के फूल और मंडप को सजाने के लिए जामुन, आम और पलाश की पत्तियों जैसे वन संसाधनों का उपयोग करके विवाह के बजट को कम करने का प्रयास करते हैं। संगीत के लिए वे स्थानीय बाजा और शहनाई का उपयोग करते हैं। लेकिन, धीरे-धीरे यह चलन बदल रहा है और कुछ आदिवासी जन भी शहरी संस्कृति का अनुसरण करते हुए कर्ज लेकर शादियों पर अधिक राशि खर्च करने लगे हैं। हालांकि अभी भी ऐसे लोगों की संख्या अपेक्षाकृत बहुत कम है।

यह देखा जा रहा है कि असमान विकास की प्रवृत्ति न केवल सामुदायिक स्तर पर बल्कि पूरे देश में क्षेत्रीय स्तर पर भी देखी जा सकती है। इन लोगों के लिए उचित नीतियां बनाने के लिए इसका बहुत सावधानी पूर्वक विश्लेषण करने और समझने की आवश्यकता है। अन्यथा हम बढ़ती जीडीपी और प्रति व्यक्ति आय को जमीनी हकीकतों से नहीं जोड़ पाएंगे। जैसा कि आंकड़ों से पता चलता है कि हमारे देश की अर्थव्यवस्था का सकल घरेलू उत्पाद 50 प्रतिशत से अधिक सेवा क्षेत्र पर आधारित है एवं लगभग 18 प्रतिशत का योगदान कृषि क्षेत्र का है। जबकि देश की लगभग आधी आबादी अभी भी प्रत्यक्ष और अप्रत्यक्ष रूप से न केवल अपनी आजीविका के लिए बल्कि अपने सामाजिक-आर्थिक विकास के लिए कृषि और कृषि संबंधी गतिविधियों पर निर्भर है। हालांकि कौशल की कमी और औद्योगिक और सेवा क्षेत्रों में नौकरी के अच्छे अवसरों की कमी के कारण ग्रामीण खेतिहर मजदूर स्थायी रूप से इन क्षेत्रों में स्थानांतरित नहीं हो पा रहे हैं, जो कि सरकार के लिए एक चिंता का विषय होना चाहिए, क्योंकि इन लोगों के पास न तो कोई व्यावसायिक पृष्ठभूमि है और न ही आय के अन्य प्रमुख स्रोत हैं। वे आमतौर पर पिछड़े इलाकों और दूरदराज के गांवों में रहते हैं, जहां अच्छा जीवन यापन करने के लिए बुनियादी सुविधाएं उपलब्ध नहीं हैं। अधिकतर सरकारी योजनाएं स्थानीय, क्षेत्रीय और सामुदायिक स्तर पर बुनियादी सुविधाएं प्रदान करने और नियमित रूप से अच्छे रोजगार के अवसर पैदा करने में विफल रही हैं, जिसकी वजह से देश भर में आदिवासी क्षेत्रों से अवांछित और अस्थायी ग्रामीण प्रवास हो रहा है। 

भारत सरकार गरीबों को घर बनाने के लिए प्रधानमंत्री आवास योजना के तहत धनराशि दे रही है, 80 करोड़ जनसंख्या को मुफ्त राशन दे रही है, पीएम सम्मान निधि के माध्यम से किसानों को 6000 रुपए और विभिन्न कल्याणकारी योजनाओं के माध्यम से गरीबों की मदद कर रही है। लेकिन ये योजनाएं स्थायी रूप से गरीबी उन्मूलन या ग्रामीण प्रवासन को नियंत्रित करने का स्थायी समाधान नहीं हैं। ये केवल गरीब लोगों के लिए अस्थायी आर्थिक सहायता के लिए हैं, क्योंकि ये योजनायें जॉब मार्केट की डिमांड के अनुसार उनके कौशल में सुधार नहीं कर पा रही है और न ये नियमित रोजगार के अवसर पैदा कर पा रहीं हैं।

एक बात यह भी कि आदिवासी लोग इसलिए गरीब नहीं हैं कि उनके पास आय के कोई बड़े स्रोत नहीं हैं, बल्कि वे इसलिए गरीब हैं क्योंकि उनके पास सामाजिक पूंजी, संस्थागत सहायता, व्यावसायिक पृष्ठभूमि और आवश्यक सुविधाएं नहीं हैं, जो उनके लिए स्थायी रोजगार के अवसर पैदा कर सकें और अपने समाज के बाहर भी एक सकारात्मक व्यावसायिक वातावरण बनाकर अपने विभिन्न प्रकार के ऐतिहासिक आर्थिक-सामाजिक पिछड़ेपन को दूर कर जीवन शैली में उचित सुधार कर सकें।

आदिवासियों को केवल वित्तीय सहायता देने से उनके प्रबंधकीय कौशल और अन्य कौशल में सुधार नहीं हो सकता है। ऐसा देखा गया है कि जिन लोगों ने व्यवसाय चलाने या किराना दुकान खोलने के लिए बैंकों या किसी अन्य स्रोतों से ऋण लिया है, लेकिन अधिकांश लोग व्यवसाय चलाने में असफल रहे हैं और ऋण चुकाने में भी असफल रहे हैं क्योंकि उन्हें व्यवसाय का बुनियादी ज्ञान नहीं था। बिना प्रशिक्षण के यदि वे दुकान खोलते हैं तो कुछ समय बाद वे दुकान चलाने और प्रबंधन करने में असफल हो जाते हैं। इसलिए बिना प्रशिक्षण के उनके लिए किसी भी प्रकार का व्यवसाय चलाना काफी कठिन होता है। इसी प्रकार यदि हम किसानों की बात करें तो कुछ किसानों के पास पर्याप्त कृषि भूमि और सिंचाई सुविधाएं तो हैं लेकिन कृषि ज्ञान की कमी और समय पर आवश्यक सरकारी और संस्थागत सपोर्ट की कमी के कारण वे अपनी कृषि भूमि का उत्पादन और उत्पादकता बढ़ाने में असमर्थ हैं। 

इन सभी कारणों की वजह से आमतौर पर देशभर के आदिवासी इलाकों में विकास की गति बेहद खराब और धीमी है, जो कि असल में एक नीतिगत समस्या है, जिसका समाधान उचित नीति बना कर किया जाना चाहिए अन्यथा आने वाले समय में यह समस्या गंभीर रूप धारण कर सकती है।

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