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फासीवादी सत्ता-व्यवस्था का विकल्प क्या है?

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      पुष्पा गुप्ता 

    फिलहाल जो संकेत मिल रहे हैं, उनसे इस बात की अधिक सम्भावना लगती है कि 2024 के लोकसभा चुनावों में नरेन्द्र मोदी-नीत भाजपा की अगुवाई वाले गठबन्धन की फिर जीत होगी। भारत की आम मेहनतक़श आबादी के लिए इससे बुरी कोई बात नहीं हो सकती है। 

     यह बात 2014 और 2019 में फ़ासीवादियों के झूठे प्रचार और साम्प्रदायिक उन्माद में बह गये निम्न मध्यवर्ग व मध्यम मध्यवर्ग के बहुत-से आम लोग अब समझ रहे हैं। हालाँकि अभी भी फ़िरकापरस्ती में बह जाने का रुझान उनमें बाक़ी है। इसकी एक वजह ऐसे लोगों के जीवन में मौजूद सामाजिक और आर्थिक असुरक्षा और लगातार मौजूद अनिश्चितता से पैदा होने वाला ग़ुस्सा, हताशा और चिड़चिड़ाहट भी है, जो उन्हें एक अन्धी प्रतिक्रिया की ओर धकेलती है।  

         ऐसे में, जब कोई प्रतिक्रियावादी, यानी जनविरोधी व प्रगतिविरोधी ताक़त उन्हें मुसलमान, दलित, ईसाई, आदिवासी आदि के रूप में कोई भी नक़ली दुश्मन दिखाती है और उस नक़ली दुश्मन को उस असुरक्षा व अनिश्चितता का ज़िम्मेदार ठहराती है, तो तकलीफ़ों और परेशानियों से थका निम्नमध्य वर्ग, अर्द्धसर्वहारा आबादी और यहाँ तक कि संगठित व असंगठित मज़दूर आबादी का एक हिस्सा भी उन्माद में बहकर अपने ही हितों को नुक़सान पहुँचाते हुए धार्मिक व जातिवादी झगड़ों में कूद पड़ता है। 

      इसके अलावा, “राष्ट्रवाद”, “धर्मपरायणता”, आदि के नाम पर फ़ासीवादियों द्वारा फैलाया गया यह उन्माद लक्ष्यहीन जीवन बिता रही लम्पट सर्वहारा आबादी (यानी जो मज़दूर वर्ग में पैदा होकर भी उसकी चेतना से रिक्त होते हैं) के नौजवानों को भी मानो ज़िन्दगी का कोई मक़सद दे देता है और अपनी प्रतिक्रिया को बदशक़्ल तरीक़े से निकालने का एक मौका दे देता है। 

यहां हम इस विषय पर विचार करेंगे कि भारत में फ़ासीवादी संघ परिवार और मोदी–शाह की तानाशाह सत्ता के पक्ष में कौन–से कारक काम करते हैं? मौजूदा पूँजीवादी संसदीय व्यवस्था में क्यों बड़ी–बड़ी कम्पनियों, मालिकों, ठेकेदारों, धनी किसानों व भूस्वामियों, बिल्डरों, प्रॉपर्टी डीलरों, शेयर दलालों, धनी दुकानदारों आदि की, यानी कि पूँजीपति वर्ग की नुमाइन्दगी करने वाली कोई पार्टी फ़ासीवादी संघ परिवार की राजनीति और उसकी सत्ता का स्थायी और निर्णायक विकल्प नहीं दे सकती? 

      सर्वहारा वर्ग और आम मेहनतकश आबादी को मोदी–शाह की जनविरोधी अमीरपरस्त सरकार और संघ परिवार के समूचे फ़ासीवादी प्रोजेक्ट को पराजित करने के लिए तात्कालिक तौर पर और दीर्घकालिक तौर पर क्या करना होगा?

       सबसे पहले यह समझना ज़रूरी है कि फ़ासीवादियों का पलड़ा भारी होने की कई वजहें हैं।

      वर्गयुद्ध में हमें ख़ुद को भी जानना होता है, और साथ ही हमें शत्रु को भी जानना होता है। इसलिए सबसे पहले हम इस पर विचार करेंगे कि आज मज़दूर व मेहनतकश-विरोधी फ़ासीवादियों की शक्ति के पीछे मुख्य कारक कौन-से हैं, जो आज उनका पलड़ा भारी कर देते हैं।

*2024 में जीत की वजहें*

      पहली बुनियादी ढाँचागत वजह

सबसे पहली वजह एक वस्तुगत ढाँचागत वजह है और इसके दो आयाम हैं। पहला आयाम है पूरे पूँजीवादी विश्व में हावी पूँजीवादी आर्थिक संकट जिसके कि 2023-24 में और ज़्यादा गहराने की गुंजाइश है। तमाम पूँजीवादी एजेंसियाँ और अन्तरराष्ट्रीय संस्थाएँ यह घोषणा कर चुकी हैं कि पिछले डेढ़ दशक से जारी मन्दी और ठहराव की प्रक्रिया अभी जाने वाली नहीं है, बल्कि 2023 और 2024 में इसके गहराने की सम्भावना है। 

       भारत न तो अभी इस संकट से अछूता है और न ही भविष्य में रहने वाला है। संकट अपने आप में दोनों सम्भावनाएँ रखता है : यह पूँजीवादी राज्यसत्ता के राजनीतिक संकट और फिर ज़रूरी शर्तें पूरी होने पर क्रान्तिकारी परिवर्तन की ओर, एक नयी सामाजिक-आर्थिक और राजनीतिक व्यवस्था की स्थापना की ओर, यानी सर्वहारा वर्ग के शासन और समाजवाद की स्थापना की ओर भी जा सकता है; और, ज़रूरी शर्तें पूरी न होने पर यह प्रतिक्रियावाद के किसी रूप जैसे कि फ़ासीवाद के उभार की ओर भी जा सकता है।

          यही सवाल हमें मौजूदा वस्तुगत संकट के दूसरे पहलू पर लाता है। वे ज़रूरी शर्तें क्या हैं? वे ज़रूरी शर्तें हैं: सर्वहारा वर्ग की एक हिरावल पार्टी की देश-स्तर पर मौजूदगी, मज़दूर वर्ग के व्यापक जनसमुदायों तक उसकी पहुँच और पकड़, जनता के व्यापक जनसमुदायों में उसकी पहुँच और पकड़, उपरोक्त कारकों के आधार पर एक देशव्यापी क्रान्तिकारी जनान्दोलन की मौजूदगी जिसकी अगुवाई सर्वहारा वर्ग की मज़दूर पार्टी कर रही हो, और साथ ही राजनीतिक संकट का इस हद तक गहराना कि शासक वर्ग अपने शासन को जारी रखने में अक्षम हो जाये, जो तभी होता है जबकि पूँजीवादी राज्यसत्ता के अंगों-उपांगों को लकवा मार जाता है। 

      ऐसा ही कुछ साल पहले मिस्र में और अभी हाल ही में एक हद तक श्रीलंका में हुआ था। इनमें से पहली तीन शर्तें मनोगत कारकों यानी क्रान्तिकारी पार्टी के निर्माण और गठन पर निर्भर करती हैं, और आख़िरी शर्त एक वस्तुगत कारक है, जो आम तौर पर राजनीतिक संकट के दौर में विकसित हो जाता है।

इसलिए आर्थिक संकट के दौर में यदि कोई क्रान्तिकारी विकल्प, कोई क्रान्तिकारी पार्टी, एक क्रान्तिकारी जनान्दोलन मौजूद न हो, तो वह आम तौर पर, प्रतिक्रिया की ताक़तों की मदद करता है, और अक्सर उन्हें सत्ता में भी पहुँचाता है। 

      ऐसा कई देशों में हुआ है और हो रहा है और हमारे देश में 2014 में मोदी के सत्ता में आने के साथ यही हुआ था। 

       वजह यह है कि आर्थिक संकट के दौर में निम्नमध्यवर्ग, मध्यवर्ग, संगठित सफ़ेद कॉलर वाला मज़दूर वर्ग अधिक से अधिक असुरक्षा और अनिश्चितता के शिकार बनते हैं और उनके बीच एक नक़ली शत्रु का भय और उससे ख़तरे का झूठा प्रचार करके फ़ासीवादी ताक़तें असली दुश्मन यानी पूँजीपति वर्ग और समूची पूँजीवादी व्यवस्था को बचाती हैं, मज़दूर आन्दोलन के ध्वंस के लिए टुटपुँजिया वर्गों का एक प्रतिक्रियावादी सामाजिक आन्दोलन या उभार खड़ा करती हैं, और जनता को धर्म, नस्ल, जाति, भाषा आदि की पहचानों के आधार पर तोड़कर सभी पर तानाशाहाना शासन क़ायम करती हैं। आज यही हो रहा है।

       यह पहला वस्तुगत ढाँचागत कारक है जिसके दो आयाम हैं : आर्थिक संकट व उससे पैदा होने वाली दोहरी सम्भावना और क्रान्तिकारी सम्भावना को हक़ीक़त में तब्दील करने वाली ताक़त, यानी एक क्रान्तिकारी सर्वहारा पार्टी, का अभाव। इसका नतीजा यह है कि फ़ासीवादियों का पलड़ा भारी है और उनका भविष्य उन्हें अच्छा नज़र आ रहा है।

      इसी वस्तुगत सन्दर्भ से कई अन्य कारण पैदा होते हैं, जो आज भारत में और दुनियाभर में फ़ासीवादियों व अन्य जनविरोधी दक्षिणपंथी ताक़तों की मदद कर रहे हैं।

*पूँजीपति वर्ग का फ़ासीवादियों को व्यापक आर्थिक व राजनीतिक समर्थन*

      आर्थिक संकट में क्या होता है? आर्थिक संकट के दौरान समूची पूँजीवादी अर्थव्यवस्था की औसत मुनाफ़े की दर गिरती है, जिसके कारण उत्पादक अर्थव्यवस्था में निवेश करने की दर में कमी आती है; नतीजतन, बेरोज़गारी बढ़ती है, पूँजीपति वर्ग में आपसी ख़रीद की भी कमी आती जाती है जिसका बड़ा हिस्सा उत्पादन के साधनों की ख़रीद से बनता है; नतीजतन, उत्पादन के साधन और उपभोग की वस्तुओं, दोनों की खपत में कमी आती है जिसमें से पहला ज़्यादा महत्वपूर्ण है; साथ ही, अतिउत्पादन और पूँजी का अतिसंचय भी प्रकट होता है और साथ ही आम मेहनतकश आबादी के बीच अल्पउपभोग भी। 

      पूँजीपति शेयर बाज़ार व सट्टेबाज़ी में ज़्यादा निवेश करने लगते हैं जिससे शेयर बाज़ार में काल्पनिक पूँजी से पैदा हुआ उछाल नज़र आता है। ये पूँजीवादी आर्थिक संकट के प्रमुख कारण और प्रमुख लक्षण हैं। कारणों और लक्षणों में फ़र्क करना ज़रूरी होता है: इसमें बुनियादी कारण है मुनाफ़े की औसत दर के गिरने की प्रवृत्ति जो कि पूँजीवादी व्यवस्था की एक पहचान है और उपरोक्त अन्य सभी लक्षणों को जन्म देती है।

       ज़ाहिर है, आर्थिक संकट से बिलबिला रहा पूँजीपति वर्ग मुनाफ़े की औसत दर को बढ़ाना चाहता है। यह तात्कालिक तौर पर केवल दो ही तरीके से सम्भव होता है और स्थायी तौर पर इस संकट से निपटने का पूँजीपति वर्ग के पास कोई रास्ता नहीं है। तात्कालिक रास्ते ये हैं : पहला, मज़दूरों के उपभोग में इस्तेमाल किये जाने वाले मालों को पैदा करने वाले उद्योग में उत्पादकता को बढ़ाकर मज़दूर की श्रमशक्ति के मूल्य को घटाना जिसके आधार पर मज़दूरी को घटाया जा सके और मुनाफ़े के मार्जिन को बढ़ाया जा सके। 

      लेकिन इसकी एक सीमा होती है और पूँजीपति वर्ग मनमाने तरीके से हमेशा इसे अंजाम दे भी नहीं सकता है, क्योंकि मज़दूर वर्ग कोई निष्क्रिय शक्ति नहीं होता बल्कि ऐसे प्रयासों के विरुद्ध लड़ता है। दूसरा तरीका, मज़दूरों के कार्यदिवस को बढ़ाना और/या उनकी श्रम सघनता को बढ़ाना, यानी मशीनों आदि की गति बढ़ाकर, बीच के विरामों को ख़त्म कर उतने ही समय में मज़दूरों से ज़्यादा काम कराकर अधिक श्रम निचोड़ना। यह भी हमेशा सम्भव नहीं होता है और इसकी एक भौतिक सीमा भी होती है और मज़दूर वर्ग के संगठित आन्दोलन की मौजूदगी में यह मुश्किल होता है। 

     मज़दूर वर्ग के संगठित प्रतिरोध के अभाव में पूँजीपति वर्ग अधिकतम सम्भव हद तक यह तरीका अपनाता है।

      लेकिन जब भी पूँजीपति वर्ग ऐसा रास्ता अपनाता है, तो व्यापक मेहनतकश जनता की ओर से उसका प्रतिरोध पैदा होने की सम्भावना भी मौजूद रहती है। यह प्रतिरोध संगठित हो या या ग़ुस्से का स्वत:स्फूर्त विस्फोट, दोनों से ही पूँजीपति भयभीत होते हैं, यह बात दीगर है कि स्वत:स्फूर्त ग़ुस्से के विस्फोटों से निपटना उनके लिए ज़्यादा आसान होता है। बहरहाल, इन सम्भावनाओं के असलियत में तब्दील होने से पूँजीपति वर्ग हमेशा डरता है, क्योंकि उसे पता है कि आम मेहनतक़श आबादी जब एकजुट होकर प्रतिरोध करती है, तो पूँजीपतियों की सारी हेकड़ी और चौधराहट धरी की धरी रह जाती है। 

      इस ख़तरे से निपटने के लिए पूँजीपति वर्ग बहुसंख्या में प्रतिक्रियावादी ताक़तों की शरण में भी जाता है और उन्हें शरण देता भी है। राजनीतिक तौर पर, वह उनकी शरण में जाता है और आर्थिक तौर पर वह उन्हें शरण देता है। यही वजह है कि आर्थिक संकट के पूरे दौर में समूची दुनिया में बहुत-से देशों में पूँजीपति वर्ग ने एकजुट होकर किसी धुर दक्षिणपंथी, फ़ासीवादी या सैन्य तानाशाहाना शक्तियों या सत्ताओं को समर्थन दिया है। हमारे देश में भी 2014 और 2019 में यही हुआ है। 2014 से ही भाजपा पर सारे बड़े धन्नासेठ यूँ ही नोट नहीं बरसा रहे कि आज उसकी घोषित सम्पत्ति साढ़े चार हज़ार करोड़ रुपये के क़रीब पहुँच गयी है!

      चूँकि आर्थिक संकट जारी है, लिहाज़ा भारत में समूचे पूँजीपति वर्ग के बहुलांश का मोदी-शाह की सत्ता, भाजपा और संघ परिवार के साम्प्रदायिक फ़ासीवाद को खुला समर्थन जारी है। क्योंकि उन्हें एक “मज़बूत नेता” की ज़रूरत है, जो मज़बूती से पूँजीपतियों यानी मालिकों, ठेकेदारों, बिचौलियों, दलालों, धनी कुलकों व पूँजीवादी फार्मरों, समृद्ध दुकानदारों, बिल्डरों आदि के हितों की रखवाली करने के लिए आम मेहनतकश जनता पर लाठियाँ, गोलियाँ चलवा सके, उन्हें जेलों में डाल सके और इस सारे कुकर्म को “राष्ट्रवाद”, “धर्म”, “कर्तव्य”, “सदाचार” और “संस्कार” की लफ़्फ़ाज़ियों और बकवास से ढँक सके। 

      बाकी, भाजपाइयों व संघियों के “चाल, चेहरा, चरित्र” से तो समझदार लोग वाक़िफ़ हैं ही और जो नहीं हैं वह पिछले 9 सालों में लगातार राफ़ेल घोटाले, पीएम केयर फ़ण्ड घोटाले, भाजपाइयों द्वारा किये गये बलात्कारों, अडानी-हिण्डनबर्ग मसले और व्यापम घोटाले जैसी घटनाओं में देखते ही रहे हैं। “राष्ट्रवादी शुचिता, संस्कार और कर्तव्य” की भाजपाइयों और संघियों ने विशेषकर पिछले 9 सालों में तो मिसाल ही क़ायम कर दी है!

सारी पूँजीवादी एजेंसियाँ और पूँजीवादी अर्थशास्त्री बता चुके हैं कि 2023-24 में पूँजीवादी अर्थव्यवस्था का ठहराव और संकट टलने वाला नहीं है, बल्कि और ज़्यादा गहरा सकता है। ऐसे में, 2024 के आम चुनावों से पहले भी पूँजीपति वर्ग का बहुलांश एकजुट तौर पर अपनी आर्थिक शक्तिमत्ता का बटखरा मोदी के पलड़े में ही रखेगा, इसकी पूरी गुंजाइश है और इसके सारे संकेत भी अभी से ही नज़र आ रहे हैं। मीडिया के मोदी सरकार की गोद में होने की भी असल वजह यही है, क्योंकि सारे बड़े मीडिया घराने आज देश के सबसे बड़े पूँजीपतियों के हाथों में हैं और पत्रकारों की मालिकों से स्वतन्त्रता पहले भी आदर्श रूप में कभी मौजूद नहीं थी, लेकिन आज तो वह एक भद्दा मज़ाक बन चुका है और कोई पत्रकार भी इसकी बात नहीं करता क्योंकि उसे डर होता है कि कहीं उसकी हँसी न छूट जाये!

*काडर-आधारित संगठन की फ़ासीवादी विचारधारा*

      तीसरा बड़ा कारण है राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ का काडर–आधारित ढाँचा और उसकी फ़ासीवादी विचारधारा। इस विचारधारा व संगठन के प्रति इस काडर को बिना कोई सवाल किये वफ़ादारी के लिए व्यवस्थित तरीके से प्रशिक्षित किया जाता है। यह वह चीज़ है जो राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ और उसके चुनावी चेहरे भाजपा को पूँजीपतियों की अन्य सभी पार्टियों से अलग करती है। 

     इस संगठन ने 1925 में स्थापना के बाद से अपने काडर ढाँचे का निर्माण जारी रखा है, जो उसने मुसोलिनी और हिटलर की पार्टियों से सीखा था। इसका सांगठनिक सिद्धान्त है संघ के नेता के प्रति प्रश्नेतर निष्ठा और वफ़ादारी। इसके अन्दर कोई जनवाद नहीं होता, नेतृत्व का कोई चुनाव नहीं होता। आन्तरिक तौर पर, यह जनवादी उसूलों से पूरी तरह रिक्त होता है। जनवाद का यह अभाव टुटपुँजिया वर्ग की उस प्रवृत्ति को ही तुष्ट और प्रदर्शित करता है, जिसे अपने जीवन की असुरक्षा के असली कारणों की पहचान न होने पर तानाशाही की ज़रूरत महसूस होती है।

       इसकी कट्टरतावादी विचारधारा है पूँजीवाद को बचाने के लिए जनता के सामने किसी अल्पसंख्यक आबादी को दुश्मन बनाकर पेश करना और पूँजीवाद द्वारा पैदा की गयी सारी समस्याओं के लिए उसे ज़िम्मेदार ठहराना। 

       मसलन, हिटलर ने यहूदियों के साथ यह किया था और भाजपा व संघ परिवार यही कृत्य मुख्य तौर पर मुसलमानों व गौण तौर पर अन्य अल्पसंख्यकों के साथ करते हैं। मक़सद यह है कि बहुसंख्यक समुदाय के टुटपुँजिया वर्गों की आबादी की प्रतिक्रिया और ग़ुस्से को इस नकली दुश्मन की ओर मोड़कर पूँजीवाद और पूँजीपति वर्ग की हिफ़ाज़त की जाये। फ़ासीवादी विचारधारा इसके लिए धार्मिक कट्टरपंथ, नस्ली कट्टरपंथ, अन्धराष्ट्रवाद जैसी मज़दूर-विरोधी विचारधाराओं का इस्तेमाल करती है, इतिहास का एक मिथकीय संस्करण रचती है, मिथकों को दुहरा-दुहराकर सच बनाती है और इसके लिए किसी एक समुदाय को व्यापक जनता के सामने पराया, बेग़ाना बना देती है और उसे “राष्ट्र”, “धर्म” आदि के लिए ख़तरे के तौर पर पेश करती है। 

      जैसे कि भाजपाई अक्सर कहते पाये जाते हैं कि “हिन्दू धर्म ख़तरे में है”, “हिन्दू राष्ट्र ख़तरे में है”, आदि। सैकड़ों साल पहले के झूठे अन्यायों का हवाला देकर कुण्ठित टुटपुँजिया जनमानस में धार्मिक उन्माद पैदा करने की कोशिशें की जाती है। ये फ़ासीवादी विचारधारा की कार्यपद्धति की कुछ ख़ासियतें होती हैं। लेकिन इसका असली लक्ष्य होता है टुटपुँजिया वर्गों के बीच धार्मिक उन्माद भड़काकर और एक साम्प्रदायिक आम सहमति बनाकर उनका एक प्रतिक्रियावादी सामाजिक आन्दोलन खड़ा करना, जिसके ज़रिये जनता के आन्दोलनों व एकजुटता पर हमला किया जाये, उसे तोड़ा जाये, ताकि पूँजीपति वर्ग के हितों की रखवाली की जा सके। यानी, फ़ासीवाद का असली काम है टुटपुँजिया वर्गों की प्रतिक्रिया को पूँजीपति वर्ग के हितों की सेवा में सन्नद्ध कर देना, हालाँकि पूँजीपति वर्ग की लूट का शिकार स्वयं ये टुटपुँजिया वर्ग भी होते हैं। 

      लेकिन वे उन्माद और कट्टरता में बहकर अपने ही हितों के ख़िलाफ़ फ़ासीवादियों के पीछे चल पड़ते हैं और जब तक उन्हें होश आता है, तब तक अक्सर देर हो जाया करती है।

       फ़ासीवादी संगठन इन सारे कुकर्मों को एक काडर–आधारित अनुशासित ढाँचे से अंजाम देता है। यह चीज़ फ़ासीवादियों के इतालवी पितामह बेनितो मुसोलिनी ने कम्युनिस्टों से चुरायी थी। यह मूलत: मज़दूर वर्ग के क्रान्तिकारी संगठन का उसूल होता है, जिसे मुख्य तौर पर लेनिन ने व्यवस्थित किया था। फ़ासीवादियों ने काडर-आधारित संगठन के उसूल को फ़ासीवादी उद्देश्य, यानी बड़ी पूँजी की सेवा में टुटपुँजिया वर्गों के प्रतिक्रियावादी आन्दोलन को सन्नद्ध करने के उद्देश्य, को पूरा करने के लिए अपना लिया।

        इसने फ़ासीवादी पूँजीवादी पार्टी को अन्य सभी पूँजीवादी पार्टियों से इस मायने में अलग कर दिया और आर्थिक संकट के दौर में पूँजीवाद की सेवा करने के मामले में उसे विशेष तौर पर सक्षम बना दिया। अपने इस ढाँचे के आधार पर ही आज भारत में संघ परिवार और भाजपा पूँजीपति वर्ग के लिए सबसे अहम बने हुए हैं, उनकी साज़िशों और चालों का जवाब कोई भी पूँजीवादी पार्टी जैसे कांग्रेस, सपा, राजद, राकांपा, द्रमुक आदि प्रभावी तरीक़े से नहीं दे पा रहे हैं, क्योंकि ये अन्य सभी पार्टियाँ किसी ठोस विचारधारात्मक बुनियाद पर और काडर-ढाँचे पर आधारित नहीं हैं, हालाँकि ऐसा नहीं कि उनकी कोई विचारधारा नहीं है। 

     सभी पूँजीवादी पार्टियाँ कई पूँजीवादी विचारधाराओं के समुच्चय पर आधारित होती हैं। लेकिन यह एक ठोस, सजातीय विचारधारात्मक आधार नहीं होता है, जैसा कि फ़ासीवादी पूँजीवादी पार्टी के मामले में होता है।

*टुटपुँजिया वर्गों का बाहुबल :*

       यह वह अगली वजह है जिसके कारण फ़ासीवादी ताक़तें आज हावी हैं। पूँजीपति वर्ग की बहुसंख्या के ज़बर्दस्त आर्थिक समर्थन, फ़ासीवादी विचारधारा, काडर–आधारित ढाँचे के अलावा असुरक्षा व अनिश्चितता से ग्रस्त टुटपुँजिया वर्गों का प्रतिक्रियावादी उभार और विचारधारा में टुटपुँजियाकृत हो चुके लम्पट सर्वहाराओं की उन्माद में बह रही भीड़ फ़ासीवाद की पेशीय शक्ति व बाहुबल है, जिसके बूते आज वह जनता को आतंकित करता है। 

     बजरंग दल, विश्व हिन्दू परिषद् जैसे साम्प्रदायिक आतंकी संगठन, गोरक्षा दल, लव जिहाद के विरुद्ध बनने वाले गिरोह और उनके पीछे चलने वाली उन्मादी साम्प्रदायिक भीड़ मज़दूर वर्ग के प्रतिरोध, संगठन और आन्दोलन और साथ ही अल्पसंख्यकों पर हमला बोलने के लिए ही हैं। हो सकता है कि कुछ मज़दूर साथियों को यह बात अजीब लगे कि हम इन संघी गुण्डा वाहिनियों को मज़दूर वर्ग के प्रतिरोध, संगठन और आन्दोलन के ख़िलाफ़ खड़ी फ़ासीवादी ताक़त बता रहे हैं।

        लेकिन जो भी मज़दूर साथी किसी औद्योगिक क्षेत्र आदि में किसी आन्दोलन का हिस्सा रह चुके हैं वे जानते हैं कि हम किस चीज़ की बात कर रहे हैं।

       हर जगह मज़दूर आन्दोलनों पर हमला करने वाले गुण्डों की ताक़त हिन्दू रक्षा दल, गोरक्षा दल, बजरंग दल, विहिप जैसे संगठनों से ही आती है। कहीं उनमें धनी किसान-कुलक, प्रॉपर्टी डीलर आदि व उनके गुण्डे होते हैं और अधिकांश मामलों में उनमें शहरी टुटपुँजिया वर्गों से आने वाली भीड़ भी शामिल होती है। हर इलाक़े में मालिक, बड़े ठेकेदार, बड़े व्यापारी इन आतंक वाहिनियों को पालते-पोसते हैं, इनके लिए जिम खुलवाते हैं या खोलते हैं, बाउंसर तैयार करवाते हैं, इन पर संसाधनों और पैसों की बारिश करते हैं। ये आपको स्कॉर्पियो, फार्च्यूनर, एण्डीवर टाइप विशाल गाड़ियों में अपनी चौधराहट का प्रदर्शन करते घूमते मिल जायेंगे। 

      ये दीगर बात है कि जब भी मज़दूर किसी इलाक़े में एकजुट होकर खड़े हो जाते हैं, तो इनकी सारी चौधराहट और हेकड़ी निकलते भी वक़्त नहीं लगता। दरअसल, इनके पास पैसे की ताक़त है, जिसका जवाब जनबल के आधार पर दिया जा सकता है, बशर्ते कि मज़दूर वर्ग ख़ुद संगठित हो और व्यापक मेहनतकश जनता को भी अपने पक्ष में जीते।

       इनकी ताक़त को तोड़ने के लिए सर्वहारा वर्ग के संगठन को व्यापक टुटपुँजिया यानी निम्न मध्य वर्ग और मँझोले मध्य वर्ग के बीच व्यापक क्रान्तिकारी प्रचार कार्य करना होगा, उनकी सामाजिक व आर्थिक असुरक्षा के लिए ज़िम्मेदार समूची पूँजीवादी व्यवस्था और पूँजीपति वर्ग को उनके सामने बेनक़ाब करना होगा, उनके बीच सच्चे जनवाद और सेक्युलरिज़्म का प्रचार करना होगा और उनके बीच व्यापक सुधार कार्य करना होगा। यह फ़ासीवादी शक्तियों के पैरों के नीचे से ज़मीन खींचने के समान होगा।

       वे जनता के बीच के ही एक वर्ग, यानी निम्न मध्यवर्ग और मध्यवर्ग को बरगलाकर मज़दूर वर्ग के आन्दोलन के प्रतिभार, उसके जवाब के तौर पर बड़ी पूँजी की सेवा में सन्नद्ध टुटपुँजिया वर्गों का एक उभार खड़ा करते हैं। मज़दूर वर्ग को जनता के इस वर्ग के बीच अपने आधार को विकसित करना होगा। इसके लिए स्वयं मज़दूर वर्ग के आन्दोलन से अर्थवाद और मज़दूरवाद का सफ़ाया करना बेहद ज़रूरी है, जो कि मज़दूर वर्ग को अपने तात्कालिक विशिष्ट आर्थिक हितों को प्रधानता देने को मजबूर करता है और अपने दूरगामी सामान्य राजनीतिक हितों को तिलांजलि देने को बाध्य करता है।

      इसके कारण, सर्वहारा वर्ग समूची मेहनतकश जनता का राजनीतिक नेतृत्व अर्जित करने में अक्षम हो जाता है। आज देश में यही हो रहा है। यह भी फ़ासीवादी शक्तियों के हावी होने का एक कारण है।

       *पूँजीवादी राज्यसत्ता के निकायों और संस्थाओं में संघ परिवार की घुसपैठ :*

      यह पाँचवाँ प्रमुख कारण है जिससे कि आज भाजपा के लिए चुनावी मैदान में भी हावी होना आसान है। आर.एस.एस. ने आज़ादी के पहले से ही राज्यसत्ता के निकायों में अपने तत्वों को घुसाना और फिर आज़ादी के बाद विशेष तौर पर 1950 के दशक से समूचे राजकीय तन्त्र और उसकी संस्थाओं में अपने तत्वों को घुसाना व्यवस्थित तरीके़ से जारी रखा है। 

      चाहे वह पुलिस हो, सेना हो, न्यायपालिका हो या नौकरशाही हो। संघी तत्व आपको हर जगह मिल जायेंगे। 1998 से 2004 तक भाजपा-नीत गठबन्धन सरकार के दौरान, भाजपा-शासित तमाम राज्यों में और विशेष तौर पर 2014 में नरेन्द्र मोदी के सत्ता में आने के बाद से यह प्रक्रिया और भी तेज़ी से चली है।

      इसने समूची राज्यसत्ता का विचारणीय हद तक फ़ासीवादीकरण किया है। राज्यसत्ता के तमाम अंगों-उपांगों के ज़रिये ही राज्यसत्ता अपने प्रकार्य पूरे करती है। यदि वह पूरा ढाँचा ही फ़ासीवादी तत्वों के नियन्त्रण में हो, तो उनके लिए अपने मंसूबों को अंजाम देना बेहद आसान हो जाता है। फ़ासीवादी तत्व बिना किसी सज़ा के डर के समाज में दहशतगर्दी कर सकते हैं, जैसा कि आज वे कर भी रहे हैं। 

      मसलन, गोरक्षा के नाम पर की जा रही बेगुनाहों की हत्याएँ, लव जिहाद आदि के नाम पर प्रेमी जोड़ों का किया जा रहा उत्पीड़न, भाजपाई नेताओं आदि द्वारा किये जा रहे भ्रष्टाचार और बलात्कार जैसी घटनाएँ। इन पर भाजपाइयों को या तो सज़ा ही नहीं मिलती या फिर दिखावे के लिए कुछ दिन जेल में फाइव-स्टार ऐशो-आराम के साथ रखा जाता है और फिर छोड़ दिया जाता है। बाक़ायदा, अदालत से सज़ा पाये हुए गुजरात दंगों के बलात्कारियों व हत्यारों तक को छोड़ दिया जा रहा है।

      तो आप समझ ही सकते हैं कि पूँजीवादी मानकों से भी देश में न्याय, क़ानून और व्यवस्था का क्या मतलब रह गया है।

      लेकिन यही चीज़ समूची पूँजीवादी राज्यसत्ता के वर्चस्व को भी कमज़ोर बना रही है, जिसमें कि लोगों द्वारा राज्यसत्ता के प्राधिकार को स्वीकार करने की सहमति स्वयं लोगों के मस्तिष्क में निर्मित की जाती रही है। आज जनता से ली गयी सहमति के पीछे डर की एक अहम भूमिका हो गयी है। ऐसे में, लोगों के सब्र का प्याला जब छलकता है, तो वह किसी विस्फोट को जन्म देता है। यदि ऐसे में कोई क्रान्तिकारी संगठन उसे नेतृत्व देकर ऊर्जा के इस प्रस्फुटन को व्यवस्था को बदलने की ताक़त दे सके, सही दिशा दे सके तो वह सामाजिक परिवर्तन की ओर जा सकता है। लेकिन ऐसा नहीं होने पर भी हुक्मरानों को जनता के ग़ुस्से के इस प्रकार फट पड़ने का डर सताता रहता है। इसलिए राज्यसत्ता पर फ़ासीवादी शक्तियों द्वारा भीतर से कब्ज़ा कर लिया जाना भी कोई ऐसी चीज़ नहीं है जो कि उनके शासन को स्थायी बनाती हो। तात्कालिक तौर पर, जनसंघर्षों के लिए अवश्य वह चुनौतियाँ खड़ी करती है।

*फ़ासीवादी उभार के निर्णायक प्रतिरोध के लिए :*

      फ़ासीवाद मज़दूरों और आम मेहनतकश जनता जैसे कि अर्द्धसर्वहारा, ग़रीब किसान, निम्न मध्यवर्ग आदि का सबसे बड़ा दुश्मन है। दुनिया का इतिहास गवाह है कि जहाँ कहीं भी यह सत्ता में आया है, उसने इन वर्गों के आर्थिक और राजनीतिक अधिकारों पर सबसे आक्रामक तरीके़ से हमला किया है। यह दीगर बात है कि निम्न मध्यवर्ग व मध्यवर्ग के ही एक विचारणीय हिस्से को धार्मिक, नस्ली व राष्ट्रवादी उन्माद पर भड़काकर यह एक प्रतिक्रियावादी आन्दोलन खड़ा करता है, जिसके ज़रिये वह मज़दूर वर्ग व आम मेहनतकश आबादी के आन्दोलनों पर हमले करने, उन्हें आतंकित करने, अल्पसंख्यकों को लगातार डर के साये में जीने को मजबूर करता है। 

      जब तक निम्न मध्यवर्ग की आबादी में इस बात का अहसास पैदा होता है कि वास्तव में ये “धर्मध्वजाधारी”, “संस्कारी”, “संस्कृति के रक्षक”, “राष्ट्रवादी” उन्हीं के हितों के दुश्मन हैं, अव्वल दर्जे के मुनाफ़ाख़ोर, भ्रष्टाचारी, दुराचारी, अपराधी और बलात्कारी हैं, तब तक काफ़ी नुक़सान हो गया होता है। जब इटली देश के भविष्य को वहाँ के फ़ासीवादियों और उनके नेता मुसोलिनी ने डुबो दिया, तो मुसोलिनी को आम लोगों ने मारकर एक चौराहे पर उल्टा लटका दिया और उसकी लाश पर थूकने वालों में आम निम्नमध्यवर्गीय आबादी पर्याप्त मात्रा में थी, जो कि कभी मुसोलिनी को देश का पिता मान चली थी। निश्चित तौर पर, अन्त में उसे सच्चाई समझ में आयी। लेकिन तब तक काफ़ी नुक़सान हो चुका था।

      फ़ासीवादी शक्तियाँ इसलिए हावी नहीं होतीं कि वे संख्या में ज़्यादा होती हैं। वे इसलिए हावी हो जाती हैं कि वे एक काडर-आधारित संगठन और एक निश्चित जनविरोधी विचारधारा तले संगठित होती हैं, जबकि जनता की शक्तियाँ बिखरी हुई होती हैं। इसका जवाब एक क्रान्तिकारी काडर-आधारित संगठन, यानी सर्वहारा वर्ग की हिरावल पार्टी, एक वैज्ञानिक क्रान्तिकारी विचारधारा, ऐसी पार्टी के नेतृत्व में एक क्रान्तिकारी मज़दूर आन्दोलन और एक क्रान्तिकारी जनान्दोलन के ज़रिये ही दिया जा सकता है।

      ‘भारत जोड़ो यात्रा’ के बारे में

कई लोग पस्तहिम्मती में कांग्रेस व राहुल गाँधी की ‘भारत जोड़ो यात्रा’ से आस लगाये बैठे हैं। इससे पहले कि झूठी उम्मीद से काफ़ी नुक़सान हो जाये, हमें समझ लेना चाहिए कि इससे फ़ासीवाद का निर्णायक तौर पर प्रतिरोध सम्भव नहीं है। यह सच है कि ‘भारत जोड़ो यात्रा’ के दौरान राहुल गाँधी ने काफ़ी मेहनत की, 3000 किलोमीटर पैदल चले। उन्होंने भाजपा पर तीखे हमले किये, उसके भ्रष्टाचार को कठघरे में खड़ा किया और उसकी फ़िरकापरस्ती को भी पुराने गाँधीवादी, नेहरूवादी मानवतावाद की ज़मीन पर खड़े होकर निशाना बनाया।

       इसमें भी कोई दो राय नहीं है कि यह यात्रा मोदी सरकार और संघी फ़ासीवाद से नाराज़ तमाम लोगों को आकर्षित करने में एक हद तक कामयाब रही। बहुत-से लोग किसी अन्य विकल्प को मौजूद न देखकर इस यात्रा में शामिल भी हुए। यह भी सच है कि एक पूँजीवादी राजनीतिज्ञ के तौर पर पहली बार राहुल गाँधी भाजपा सरकार और उसके नेता-मन्त्रियों का जवाब नहीं दे रहे थे, बल्कि भाजपा सरकार के नेता-मन्त्री उनका जवाब दे रहे थे। यह एक अहम बात होती है। 

      इसका अर्थ होता है कि राहुल गाँधी चर्चा की शर्तें तय कर रहे थे। यात्रा के बाद भी राहुल गाँधी ने मोदी सरकार पर तीखे निशाने साधे।

     लेकिन इन सबके बावजूद फ़ासीवादी उभार का निर्णायक तौर पर मुकाबला कांग्रेस या कोई भी पूँजीवादी दल नहीं कर सकता है। ऐसा नहीं कि भाजपा की चुनावी हार असम्भव है। आज इसकी गुंजाइश तो बहुत कम दिख रही है, लेकिन 2024 में भाजपा की हार होना असम्भव नहीं है। मगर असल बात यह है कि 2024 में भाजपा की चुनावी हार का मतलब भारत में आर.एस.एस. की अगुवाई में खड़े किये गये फ़ासीवादी उभार की निर्णायक पराजय नहीं होगी। जिन्हें यह बात समझ में नहीं आती, उन्हें याद कर लेना चाहिए कि 2004 में और फिर 2009 में भाजपा की चुनावी हार को कई लोग संघी फ़ासीवाद की निर्णायक हार मानकर अति-उत्साह में उछल-कूद कर रहे थे। 2014 और 2019 में वे उतनी ही पस्तहिम्मती में पड़े हुए थे और उनमें से कई तो अपनी अकर्मण्यता और मूर्खता का ठीकरा व्यापक मेहनतकश जनता पर ही फोड़ने लगे हैं।

       पहले हम एक पल को मान लेते हैं कि राहुल गाँधी कांग्रेस का जीर्णोद्धार करने में सफल हो जाते हैं, प्रमुख विपक्षी पार्टियों को किसी कांग्रेस-नीत गठबन्धन में लाने में सफल हो जाते हैं, और अन्तत: किसी तरह से मोदी-शाह को 2024 के आम चुनावों में पराजित कर देते हैं। इसका मज़दूरों और आम मेहनतकश लोगों के लिए क्या अर्थ होगा? देश के लिए राहुल गाँधी का आर्थिक कार्यक्रम व राजनीतिक नीतियाँ क्या होंगी? केवल इसी के आधार पर आम मेहनतकश आबादी अपना रवैया तय कर सकती है।

      राहुल गाँधी ने यात्रा के दौरान ही उदारवादी पूँजीपति वर्ग के चहेते अर्थशास्त्री रघुराम राजन और नेता व अभिनेता कमल हासन को दिये साक्षात्कार में अपना आर्थिक कार्यक्रम बता दिया है। वह इस बात पर गर्व महसूस करते हैं कि देश में निजीकरण की नवउदारवादी नीतियों की शुरुआत 1991 में कांग्रेस ने की थी और इसलिए भाजपा का यह आरोप झूठ है कि वह पूँजीपति वर्ग के ख़िलाफ़ है। वह तो बस “कुछ पूँजीपतियों को फ़ायदा पहुँचाने वाले भ्रष्ट पूँजीवाद” के विरुद्ध हैं! आख़िर सभी पूँजीपतियों को मज़दूर वर्ग और प्रकृति की लूट की बराबरी से छूट और अवसर मिलने चाहिए!

       इसके साथ, राहुल गाँधी ने छोटे व मँझोले पूँजीपतियों को बड़ी पूँजी द्वारा निगल लिये जाने से बचाने के वायदे किये और गाँवों में धनी पूँजीवादी फ़ार्मरों और ज़मीन्दारों को खेत मज़दूरों की भरपूर लूट और लाभकारी मूल्य द्वारा बेशी मुनाफ़ा पीटने का पूरा अवसर देने का वायदा किया। इसके अलावा, राहुल गाँधी किस आर्थिक मॉडल का अनुसरण करना चाहते हैं? चीन मॉडल! वह कहते हैं कि भारत चीन को विश्व बाज़ार में तभी पछाड़ सकता है और केवल तभी वह आर्थिक, राजनीतिक व सामरिक तौर पर चीन के लिए चुनौती बन सकता है, जब वह चीन को पीछे छोड़कर दुनिया के लिए मैन्युफैक्चरिंग का प्रमुख केन्द्र बन जाये। लेकिन क्या श्री गाँधी को पता है कि दुनिया के पूँजी निवेश व उत्पादन का केन्द्र बनने के लिए और दुनियाभर से और चीनभर से पूँजी निवेश कोn आमन्त्रित करने के लिए चीनी नामधारी “कम्युनिस्ट” मगर वास्तव में सामाजिक फ़ासीवादी सत्ता ने क्या कदम उठाये हैं?

       ये कदम हैं मज़दूरों के सारे जनवादी और आर्थिक अधिकारों को छीन लिया जाना, लम्बे कार्यदिवस, यूनियन बनाने के अधिकार से वंचित किया जाना, कोई भी आवाज़ उठाने पर बर्बर दमन। यही तो सारे पूँजीपति चाहते हैं, कि मज़दूरों की मज़दूरी को कम-से-कम रखने के लिए उनके सारे अधिकार छीन लिये जायें, “धन्धा करने की पूरी सहूलियत” उनको हासिल हो जाये! अगर यही राहुल गाँधी का आर्थिक मॉडल है, तो स्पष्ट है कि मज़दूरों के लिए भूमण्डलीकरण, निजीकरण, व उदारीकरण की नीतियों में, श्रम क़ानूनों को तबाह किये जाने और राजकीय दमन के मामले में भाजपा की मोदी सरकार के मुकाबले कांग्रेस-नीत सरकार आने पर ज़्यादा से ज़्यादा उन्नीस-बीस का ही फ़र्क़ आयेगा। 

      मज़दूरों को दबाने की नीतियों को विशेष तौर पर गहराते संकट के दौर में किसी भी पूँजीवादी पार्टी की सरकार छोड़ नहीं सकती है। कांग्रेस के राज के दौरान ही मारुति के मज़दूरों के साथ क्या सुलूक किया गया था, क्या हम भूल सकते हैं? इसलिए जहाँ तक आर्थिक कार्यक्रम का प्रश्न है, कांग्रेस की या कांग्रेस–समर्थित किसी तीसरे मोर्चे की सरकार आ भी जाये, तो मज़दूर किसी गुणात्मक परिवर्तन की उम्मीद नहीं कर सकते हैं।

दूसरी बात: कांग्रेस की सरकार आ भी जाये, तो क्या कांग्रेस साम्प्रदायिक संघ परिवार की तमाम आतंकी टोलियों को आतंकवादी घोषित करके प्रतिबन्धित करेगी? क्या वह बजरंग दल, विहिप व तमाम गोरक्षा दल, जिनकी आतंकी व आपराधिक गतिविधियों के तमाम प्रमाण मौजूद हैं, उनको प्रतिबन्धित व उनके नेताओं को गिरफ़्तार करेगी? आज राहुल गाँधी भाजपा व संघ परिवार के बारे में चाहे जितनी गर्म बातें कर लें, यदि कांग्रेस सत्ता में आ भी जाये तो वह संघ परिवार के तमाम आतंकी गिरोहों को प्रतिबन्धित नहीं करेगी, न ही सच्चे सेक्युलरिज़्म को लागू करते हुए राजनीति में धर्म के इस्तेमाल को रोकने के लिए कोई सख़्त क़ानून लायेगी। 

       वजह यह है कि एक तो स्वयं कांग्रेस को नरम साम्प्रदायिक कार्ड खेलने की ज़रूरत पड़ती रहती है, और दूसरा यह कि पूँजीपति वर्ग को सत्ता में न होने पर भी फ़ासीवादी गिरोहों की ज़रूरत होती है, क्योंकि ये उनकी अनौपचारिक राज्यसत्ता के तौर पर काम करते हैं। इसलिए ख़ुद पूँजीपति वर्ग कांग्रेस को इस बात की इजाज़त नहीं देगा और किसी अपवादस्वरूप स्थिति में ही इसकी कल्पना की जा सकती है। इसलिए कांग्रेस यदि सत्ता में आ भी जाये तो मज़दूर वर्ग और आम मेहनतकश वर्ग को आतंकित करने के लिए पूँजीपति वर्ग फ़ासीवादी शक्तियों का ज़ंजीर में बँधे कुत्ते की तरह इस्तेमाल करता रहेगा।

तीसरी बात, यदि अपवादस्वरूप स्थिति में 2024 में भाजपा की जगह कांग्रेस या कांग्रेस-समर्थित किसी तीसरे मोर्चे की सरकार बनती भी है, तो आर्थिक संकट के जारी रहने पर अगले राउण्ड में वह और भी भयंकर और आक्रामक फ़ासीवादी प्रतिक्रिया की ज़मीन ही तैयार करेगी, जैसा कि पिछले 25 वर्षों में होता आया है।

        यही तीन असली बातें हैं जिन्हें राहुल गाँधी और उनकी ‘भारत जोड़ो यात्रा‘ के सन्दर्भ में समझा जा सकता है। बाकी सारी प्यार, मुहब्बत, इंसानियत, शान्ति और ‘प्यार की दुकान’ वगैरह की बातें डायलॉगबाज़ी होती है, जिसका राजनीति में हर दल अपनी-अपनी तरह से इस्तेमाल करता है। अगर समाज में न्याय नहीं है तो प्यार, इंसानियत और शान्ति की बातें खोखली बकवास के अलावा कुछ नहीं होतीं। ऐसे में, कांग्रेस की सरकार आ भी जाये तो फ़र्क़ बस इतना पड़ेगा कि जिस तरह से आज न सिर्फ़ फ़ासीवादी गुण्डावाहिनियाँ बल्कि स्वयं सरकार खुले तौर पर धार्मिक कट्टरपंथी दंगाई की तरह बर्ताव कर रही है, शायद वैसा न हो। 

        दमन का पाटा जिस तरह से चलाया जा रहा है, अभिव्यक्ति की सारी आज़ादी को जिस तरह से कुचल दिया जा रहा है, पत्रकारों, बुद्धिजीवियों, साहित्यकारों तक को जैसे जेलों में भरा जा रहा है, शायद (यह भी नवउदारवाद के दौर में पक्का नहीं है) उसमें कोई मामूली मात्रात्मक कमी आये। लेकिन इन मात्रात्मक परिवर्तनों से ज़्यादा से ज़्यादा मज़दूरों-मेहनतकश की नेतृत्व की ताक़तों को कुछ मोहलत मिल सकती है, हालाँकि इसकी भी कोई गारण्टी नहीं है। इतिहास गवाह है कि आर्थिक संकट के गहराने और उसके राजनीतिक संकट में तब्दील होने पर स्वयं कांग्रेस की सरकारों ने दमन और तानाशाहाना रवैया अपनाने में कोई कोर-कसर नहीं छोड़ी है। 

      किसी अन्य तीसरे मोर्चे की कांग्रेस-समर्थित सरकार भी आ जाये तो भी यही उम्मीद की जा सकती है।

        लुब्बेलुआब यह कि यदि क्रान्तिकारी सर्वहारा वर्ग अपनी राजनीतिक स्वतन्त्रता को खोकर फ़ासीवाद से लड़ने के वास्ते इस या उस पूँजीवादी पार्टी की पूँछ में कंघी करने का रास्ता अपनाता है और उसका पिछलग्गू बनता है, तो वह आत्मघाती होगा और सर्वहारा वर्ग की विजय की सम्भावनाओं को बंजर बनाने का काम करेगा। इसलिए हमें तमाम उदार वामियों, वाम उदारपंथियों को ‘भारत जोड़ो यात्रा’ की बेगानी शादी में अब्दुल्ला दीवाना बनने देना चाहिए और अपना पूरा ज़ोर अपनी क्रान्तिकारी मज़दूर पार्टी के निर्माण पर लगा देना चाहिए। 

     केवल इसी के बूते पर हम देश के आम मेहनतक़श अवाम को क्रान्तिकारी जनसंगठनों में और क्रान्तिकारी जनान्दोलनों की सूरत में संगठित कर सकते हैं और केवल यही जुझारू जनएकजुटता जनता के सबसे बड़े दुश्मन, यानी संघी फ़ासीवाद को हमेशा के लिएh ज़मींदोज़ कर सकता है, नेस्तनाबूद कर सकता है, उसे मिट्टी में मिला सकता है। केवल क्रान्तिकारी सर्वहारा वर्ग ने ही इतिहास में फ़ासीवाद को निर्णायक शिकस्त दी है और भविष्य में भी ऐसा ही होगा।

*तो करना क्या होगा?*

      सबसे पहला कार्यभार है कि देश के पैमाने पर एक क्रान्तिकारी मज़दूर पार्टी का निर्माण किया जाये। इसके लिए, एक राजनीतिक मज़दूर अख़बार का होना और मज़दूरों के अध्ययन मण्डलों का जाल बिछा देना बेहद ज़रूरी बुनियादी कार्य है। क्रान्ति और समाज के विज्ञान के बारे में ज्ञान के बिना मज़दूर वर्ग के उन्नत तत्व भला पार्टी कैसे खड़ी कर सकते हैं? यह जाने बिना कि पूँजीपति वर्ग मज़दूर वर्ग और आम मेहनतकश आबादी का शोषण और उत्पीड़न कैसे करता है, वह भला अपनी इंक़लाबी पार्टी को कैसे खड़ा कर सकता है?

       ये जाने बग़ैर कि इतिहास में मज़दूर वर्ग ने संगठित होकर किस तरह से पूँजीवादी व्यवस्था को पलट दिया था और पूँजीपति वर्ग के हाथों से सत्ता छीन ली थी, मज़दूर वर्ग अपनी हिरावल पार्टी कैसे बना सकता है? आज के पूँजीवाद में पहले से क्या बदलाव आये हैं, इसे जाने बग़ैर वह आज पूँजीवादी राज्यसत्ता का ध्वंस कर न्याय और समानता पर आधारित मेहनतकशों की सत्ता कैसे खड़ी कर सकता है? न सिर्फ़ अपने और पूँजीपति वर्ग के बीच के, बल्कि सभी वर्गों के बीच के आपसी सम्बन्धों को समझकर ही वह वास्तविक राजनीतिक दख़ल दे सकता है।

      केवल क्रान्तिकारी जनदिशा को लागू करते हुए व्यापक मेहनतकश जनसमुदायों के सही विचारों को वह विकसित कर सकता है और एक सही राजनीतिक लाइन निकाल सकता है, जिसके बूते पर वह व्यापक मेहनतकश जनता को नेतृत्व दे सकता है, उसे पूँजीपति वर्ग के विचारधारात्मक व राजनीतिक वर्चस्व से मुक्त कर सकता है। इसलिए सबसे पहला अहम बुनियादी काम है : एक क्रान्तिकारी सर्वहारा हिरावल पार्टी का निर्माण, एक क्रान्तिकारी मज़दूर पार्टी का निर्माण।

       दूसरा तात्कालिक कार्यभार है एकh क्रान्तिकारी ट्रेड यूनियन आन्दोलन का निर्माण जो कि पूँजी के हमलों का प्रभावी तरीक़े से प्रतिरोध कर सके। इसके लिए इलाक़ाई और सेक्टरगत ट्रेड यूनियनों पर ज़ोर बढ़ाना और विशेष तौर पर समूचे सेक्टरों के अस्थायी मज़दूरों को संगठित करना सबसे ज़रूरी और बुनियादी काम है। ऑटोमोबाइल से लेकर टेक्सटाइल सेक्टर तक के मज़दूरों को यह समझना होगा कि जब तक सेक्टरगत यूनियन और अस्थायी मज़दूरों को संगठित करने पर ज़ोर नहीं बढ़ाया जाता, तब तक पूँजी के हमलों का महज़ कारखाना-केन्द्रित व कारखाना-आधारित यूनियनों के आधार पर मुक़ाबला करना सम्भव नहीं है। 

      क्या पिछले दो दशकों के मज़दूर आन्दोलन के अनुभवों ने इस सच्चाई को साबित नहीं किया है? एक मज़बूत क्रान्तिकारी ट्रेड यूनियन आन्दोलन के बिना क्रान्तिकारी आन्दोलन बहुत दूर नहीं जा सकता है। इसके लिए ग्रामीण मज़दूरों की अपनी क्रान्तिकारी यूनियनों का निर्माण भी बेहद ज़रूरी है। और इस ट्रेड यूनियन आन्दोलन को शुरू से ही अर्थवाद और मज़दूरवाद से मुक्त रखना और उसे राजनीतिक तौर पर शिक्षित और प्रशिक्षित करना अनिवार्य है।

       तीसरा तात्कालिक कार्यभार है कि क्रान्तिकारी पार्टी को मज़दूर वर्ग का एक क्रान्तिकारी आन्दोलन खड़ा करने के साथ व्यापक मेहनतकश जनसमुदायों के हर हिस्से में क्रान्तिकारी जनसंगठन खड़े करने होंगे: मसलन, छात्रों-युवाओं के क्रान्तिकारी जनसंगठन, ग़रीब किसानों के जनसंगठन, जुझारू पितृसत्ता-विरोधी व जाति-विरोधी जनसंगठन, आम मेहनतकश वर्गों से आने वाले नागरिकों के जनसंगठन, इत्यादि। 

       ये जनसंगठन ही अलग-अलग विशिष्ट माँगों पर जुझारू संघर्ष करते हुए समूची मेहनतकश जनता के बीच मौजूदा पूँजीवादी व्यवस्था की सच्चाई को उजागर करते हैं। इन संघर्षों के ज़रिये ही पूँजीवादी व्यवस्था को उसके असम्भाव्यता के बिन्दु पर पहुँचाया जा सकता है।

       चौथा अहम कार्यभार है व्यापक मेहनतकश आबादी के इलाकों में संस्थागत क्रान्तिकारी सुधार कार्यों के ज़रिये जनता की समानान्तर संस्थाओं को विकसित करना और इनके ज़रिये उन्हें जागृत, गोलबन्द और संगठित करना। इसके ज़रिये ही क्रान्तिकारी ताक़तें समाज में अपनी स्थिति को मज़बूत कर सकती हैं, अपनी पोज़ीशन बाँध सकती हैं, फ़ासीवादी झूठे व साम्प्रदायिक प्रचार का मुकाबला कर सकती हैं और फ़ासीवादी आतंकी गिरोहों के हमलों को नाकाम कर सकती हैं।

        आख़िरी प्रमुख कार्यभार है एक क्रान्तिकारी वैकल्पिक जनमीडिया खड़ा करना। यानी, जनता के हितों के नज़रिये से निकलने वाले अख़बारों, पत्रिकाओं, पुस्तक प्रकाशनों, संगीत टोलियों, यूट्यूब चैनलों, व सोशल मीडिया के तमाम प्लेटफॉर्मों, जनपक्षधर सिनेमा बनान, आदि के एक व्यापक नेटवर्क का निर्माण करना। ये सारी चीज़ें जनता के बल पर की जा सकती हैं। ऐसे कलाकारों, पत्रकारों व बुद्धिजीवियों को संगठित किया जाना चाहिए जो इन कार्यभारों को अंजाम देने के लिए ज़रूरी विचारधारात्मक व राजनीतिक समझ रखते हों या विकसित कर सकते हों और इसके लिए तकनीकी कौशल भी उनके पास हों। ऐसे बुद्धिजीवी जो अपना पूरा जीवन इसी काम को समर्पित कर दें। 

        हमें याद रखना चाहिए कि कोई भी नया क्रान्तिकारी वर्ग पुराने शासक वर्ग को विचारधारात्मक तौर पर पहले ही शिकस्त दे देता है। सर्वहारा वर्ग ने भी पूँजीपति वर्ग को विचारधारात्मक व दार्शनिक तौर पर डेढ़ सदी पहले ही शिकस्त दे दी थी, लेकिन उस इतिहास पर आज धूल और राख की परतें चढ़ा दी गयी हैं। इसलिए नये सिरे से सर्वहारा विचारधारा व संस्कृति के वर्चस्व को स्थापित करने के लिए और उसे जनता के लिए एक प्राधिकार बनाने के लिए सर्वहारा पुनर्जागरण और प्रबोधन के इस कार्यभार को अंजाम देना ही होगा।

निश्चित तौर पर, उपरोक्त कार्यभारों को पूरा करने के साथ सभी क्रान्तिकारी सर्वहारा शक्तियों का फ़ासीवाद-विरोधी मोर्चा बनाना भी बेहद ज़रूरी है क्योंकि तात्कालिक तौर पर फ़ासीवाद के हमलों की मुख़ालफ़त करने के लिए यह ज़रूरी है। अफ़सोस की बात है कि क्रान्तिकारी कम्युनिस्ट आन्दोलन में राजनीतिक संकीर्णता, तात्कालिक सांगठनिक लाभ, राजनीतिक करियरवाद और अवसरवाद की प्रवृत्तियाँ इतनी हावी हैं कि ऐसा कोई संयुक्त मोर्चा फ़िलहाल बन नहीं पा रहा है। लेकिन इसके लिए प्रयास जारी रखने होंगे।

     *निष्कर्ष :*

हमने संक्षेप में मौजूदा हालात का एक जायज़ा लिया, फ़ासीवादी उभार की विशिष्टताओं पर एक बार फिर से बात की, उसका प्रतिरोध किस प्रकार से नहीं किया जा सकता है इस पर बात की और साथ ही इस पर भी चर्चा की कि उसका प्रभावी और क्रान्तिकारी सर्वहारा प्रतिरोध संगठित करने के कुछ बुनियादी कार्यभार क्या हैं। निश्चित तौर पर, उपरोक्त क़दमों के अलावा और कई क़दम उठाने की आवश्यकता है और हमने यहाँ केवल सबसे बुनियादी कार्यभारों की ही बात की है। 

      इन पर सभी मज़दूर साथियों को आपस में बातचीत और चर्चा करने की आवश्यकता है और अपनी सहमति या असहमति के मुद्दों पर बहस के ज़रिये अपनी रणनीति को अधिक से अधिक कारगर बनाने और उसे विकसित करने की ज़रूरत है। 

       इस प्रक्रिया में अपनी राय हमें ज़रूर लिखें और हमसे अपने विचार ज़रूर साझा करें। हमारे पास बहुत ज़्यादा वक़्त नहीं है। फ़ासीवाद का उभार आज भी अप्रतिरोध्य नहीं है, आज भी इसे हराने की एक लम्बी लड़ाई को संगठित करना सम्भव है।

     इसलिए आज से ही हमें सोचना होगा, अपनी तय रणनीति को अमल में लाने की शुरुआत करनी होगी।

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