अग्नि आलोक
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वैदिक दर्शन : कामसंहिता का सृजन

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      डॉ. विकास मानव 

वेदों द्वारा ध्यान आधारित विशुद्ध तांत्रिक कामशास्त्र का प्रसवन हुआ। प्रस्तरों पर कामकला का तक्षण हुआ। मन्दिरों के द्वार पर कामाप्लावित यक्षिणियों की मूर्तियाँ बनीं। १२ पहियों वाले सात घोड़ों वाले रथ पर बैठे हुए सूर्य की तीन मूर्तियों वाले कोणार्क मन्दिर में मैंने सम्भोगरत कामलिप्त उन्मादकर उत्तेजक नाना मुद्राओं वाली सम्भोगरत मैथुनायत १० उत्कीर्ण चित्र देखा (प्राप्त किया)।
यह कमनीय विश्व का बहुफलकीय दर्पण है। इसमें अपना प्रतिबिम्ब देखने पर कामसत्ता की अहेतुकी अनुभूति अनुस्मृति होती है।
स्थूल भौतिक शरीर में काम का लौकिक एवं वरेण्य रूप होता है। सूक्ष्म शरीर में काम का जघन्य पैशाचिक रूप होता है। यह सबको पीडा पहुँचाता है। कारण शरीर, जिसमें तन्मात्र विषयों (शब्द स्पर्श रूप रस गन्ध) का सर्वथा अभाव होता है, काम का उदात्त उत्कृष्ट रूप होता है।
लिंग शरीर, जिसमें दस इन्दियों का नाम तक नहीं होता, केवल काम का बीज होता है। इसे अक्रिय काम कहते हैं। इसी का नाम निष्काम काम है। इससे परे जो अशरीरी तत्व है, वह काम का निस्वैगुण्य रूप है। यह अवर्ण्य अप्रमेय अज्ञेय अद्वय अग्नि है।
कामकथा के विस्तार की कोई सीमा नहीं है। स्थूल शरीर वाला मनुष्य कहलाता है। सूक्ष्म शरीर वाला प्रेत कहा जाता है। कारण शरीर वाला पितर होता है। जो पितर होता है, वही देवता है। लिंग शरीर वाला ईश्वर है। जीव की तरह ईश्वर भी अनेक हैं। ईश्वर का शरीर मन, बुद्धि, अहंकार, से निर्मित होता है।
ईश्वर निष्काम है। नाना जीवों, देवों, ईश्वरों की अधिनायिका / नियंत्रिका / मातृका महामाया है।
तस्मिन् एतस्मिन् अग्नौ देवा रेतो जुह्वति
तस्या आहुतेर्गर्भः सम्मवति।।
~छान्दोग्य उपनिषद् (५/८/२)
•तस्मिन् एतस्मिन् उस इस।
•अग्नौ= (नारी रूप) अग्नि में।
•देवाः = देवगण, विद्वान् लोग।
•रेतः= वीर्य।
•जुह्वति= होमते(डालते) हैं।
•तस्याःआहुतेः= उस वीर्य रूपी आहुति से।

  • गर्भः= गर्भ (सन्तान)।
    •सम्भवति = उत्पन्न होता है।
    यहाँ उपनिषद् वाक्यों में स्त्री को यज्ञाग्नि कहा गया है। स्त्री का उपस्थ समिधा (ज्वलनशील काष्ठ) है। स्त्री का पुरुष के साथ चुम्बन आलिंगनादि करना समिधा का धुआँ है। पुरुष जो अपने लिंग को उसकी योनि में डालता है, वह उस समिधा की ज्वाला है। स्त्री के भग से पुरुष के लिंग का जो बारम्बर घर्षण होता है, वे चिनगारियाँ ही रतिसुख हैं।
    उस / इस नारी रूप प्रज्ज्वलित अग्नि में पुरुष अपने वीर्य की आहुति गिराता है। इस मैथुन यज्ञ के सम्पन्न हो जाने पर गर्भ रूपी फल की प्राप्ति होती है- गर्भाधान क्रिया सम्पन्न होती है। जिससे सन्तानोत्पति होती है।

स्त्री – पुरुष के योग से सम्पन्न होने वाला मैथुनकर्म यज्ञ तभी कहा जायेगा जब उसका फल मिलेगा अर्थात् सन्तान की लब्धि होगी । इस यज्ञ में स्त्री की योनि हवन कुण्ड है, पुरुष का लिंग खुवा है जिससे वीर्य हवन कुण्ड में गिराया जाता है। इस यज्ञ को सर्वप्रथम ब्रह्मा जी ने किया था, जड़ प्रकृति में चैतन्य पुरुष की आहुति दे कर।
यह यज्ञ अकेले न होकर दो के साथ-साथ रहने से पूर्ण होता है। इसलिये इसे सहयज्ञ कहते हैं।
सहयज्ञाः प्रजाः सृष्ट्वा पुरोवाच प्रजापतिः।
अनेन प्रसविष्यध्यामेष वो स्पष्ट कामधुक्॥
~गीता (३/१०)
प्रजाओं को यक्षों के साथ रच कर पहले प्रजापति ब्रह्मा ने कहा- इस सहयज्ञ के द्वारा तुम लोग अधिक फूलो फलो। यह यज्ञ तुम्हारी इच्छाओं को पूरा करने वाला है।
सहयज्ञ = लिंगार्चन = सहवास = निषेचनक्रिया = गर्भाधान संस्कार। सहयज्ञाय नमः।

स्त्री और पुरुष का परस्पर भार्या भर्ता भाव के रूप में रहना मिथुनयज्ञ है। मिथुन राशि का स्वामी बुध है। इसलिये मिथुनयज्ञ करना जोड़े बना कर रहना-विवाह युक्त जीवन जीना बुध (बुद्धिमत्ता) है।
इस यज्ञ को करने के लिये ब्रह्मा ने अपने दायें अंगूठे से दक्ष को तथा बायें अंगूठे से दाक्षायणी के जोड़े को उत्पन्न किया। ब्रह्मा ने अपने शरीर को दो भागों में विभक्त कर दायें को मनु तथा बायें को शतरूपा के रूप में स्वी पुरुष का एक जोड़ा तैयार किया। विराद पुरुष ने अपने को अर्धनारीश्वर के रूप में व्यक्त कर शिव एवं शिवा का जोड़ा रचा। स्त्री- पुरुष का एक साथ रह कर जीवन जीना-संतति विस्तार करना ही इस यज्ञ का उद्देश्य है।
मिथुनयज्ञ के बाद सृष्टियज्ञ का प्रावधान है। इसके लिये पुनः मैथुनयज्ञ किया जाता है। इस यज्ञ में स्त्री नीचे की अरणों तथा पुरुष ऊपर की अरणी होता है। अरणिमन्थन स्त्री एवं पुरुष के शरीर की आपस में रगड़ होना एक स्वाभाविक क्रिया है।
इसमें स्त्री की योनि हवित्री होती है, पुरुष का शेप खुवा होता है। रेखीय गति से बारम्बार शेप का योनि में आना जाना हवन की पूर्वपीठिका है, वोर्य आन्य (घृत) है। यह आज्य (रेत) भग को अग्नि (रज) में गिरता है। इससे जो आनन्द मिलता है, वह इस यज्ञ की दक्षिणा है।
यह यज्ञ सार्थक तभी है, जब इसका फल मिले-गर्भ ठहरे और सुख पूर्वक प्रसव से शिशु की प्राप्ति हो । यह यज्ञ प्रसन्न मन से मौन धारण करते हुए सम्पन्न करना चाहिये। मैथुनयज्ञ सदैव एकान्त में करना चाहिये । यह शास्त्र की आज्ञा है।
स्त्री के द्वारा पुरुष के अपान वायु (निःश्वास) को प्राणरूप में महण करना तथा पुरुष के द्वारा स्त्री के नि: श्वास (अपान) को प्राण रूप में अन्दर लेना युग्म प्राणायाम यज्ञ है। श्लिष्ट वा समुपवद्ध अवस्था में जब पुरुष स्त्री एक दूसरे के निः श्वास पीते हैं तो वे योगयुक्त कहे जाते हैं। इस से दुःख की हानि होती है।
योगो भवति दुःखहा।
~गीता (६/१७)

स्वर शास्त्र में ऐसे गृहस्थ मिथुन को योगी की संज्ञा दी गई है। ऐसा योगी अस्खलित हुए स्त्री को पूर्ण संतुष्ट करता है। स्खलन को रोकने के लिये केवली कुम्भक का आश्रय लिया जाता है। जिसमें प्राण को गति पूर्णतः अवरुद्ध हो जाती है। ध्याता का एकाकार होना ध्यान है। कामानन्द में स्त्री का ध्येय पुरुष तथा पुरुष का ध्येय स्त्री होती है।
दोनों एक दूसरे में अपने को लीन करते हैं। इस तल्लीनता से ब्रह्मसृष्टि का सम्पादन होता है। पुरुष का आनन्द स्त्री में तथा स्त्री का आनन्द पुरुष में होता है। इस आनन्द को पाने के लिये ये दोनों परस्पर खिंचते हैं। इस खिचाव में पहले मन जुड़ता है। पश्चात् शरीर जुड़ता है।
सृष्टि प्रक्रिया का यह अभिन्न अंग है जो पुरुष अपने भीतर स्त्री तत्व को पा लेता है, उसे बाह्य स्त्री सुख की आश्यकता नहीं रहती तथा जो स्त्री अपने भीतर के पुरुष को जान लेती है, वह किसी बाह्य पुरुष की अपेक्षा नहीं रखती। इसी का नाम आत्मानन्द है। आत्मानन्दी परमकामी होता है। जीवन का चरम लक्ष्य है-भोगानन्द से आत्मानन्द में प्रवेश करना।
काम ही आनन्द है। इस के नाना रूप हैं। कामातुरता एवं काम विमुखता इस को दो पक्ष हैं।
क्रिया के मूल में काम है। समस्त क्रियाएँ कामसंचालित, कामप्रेरित, कामयुक्त हैं। कामक्रिया का फल यह संसार है। कामवेग से संसार चल रहा है। कामसमुद्र लहरा रहा है। काम नदियों इसमें गिरती हुई विलीन हो रही हैं। काम के जंगल में कामनाओं के नाना वृक्ष गुल्म, लताएँ-पत्र, पल्लव एवं पुष्पों से युक्त हैं। काम-फलों का रसास्वादन व्यक्ति एवं इतर जीव वंशानुगत हो कर रहे हैं।
कामना के आंसुओं से समुद्र भर गया है। ये आंसू खारे हैं, अपेय हैं। फिर भी ये हैं तथा आगे भी रहेंगे। इनका भुवत्व सत्य है। इस सत्य को जो जानता है, उसे मेरा नमस्कार। काम से प्रेम है। प्रेम में पाखण्ड है, दमित वासना है, स्वार्थ है, अन्थापन है आवेग है, प्रवेग है, आशा का नवोद्यान है, प्रतीक्षा की नव्य प्रभा है, विषाद है, प्रसाद है, दुःख-सुख है, आकुलता है, अशान्ति है, अजीर्णता है, अतिशयता है।
काम से भक्ति है। यह प्रेम की निष्कलुषता है। भक्ति में त्याग है, बलिदान है, श्रद्धा है, निष्ठा है, विश्वास है, आश्रयता है, निर्मलता है, नम्रता है, सेवापरायणता है, शांति है, माधुर्य है, सहिष्णुता है, सुहृदता है, धैर्य है, स्मृति है, ध्यान है। प्रेम की चरमावस्था का नाम भक्ति है। कामव्यापार द्वैत में होता है। इस लिये प्रेम में दो हैं-प्रेमी एवं प्रेमिका भक्ति में दो हैं-जीव और भगवान्।
समस्त भोग भगवान् के रूप हैं। इनकी उपेक्षा करना, इन्हें हेय ठहराना विश्वात्मा का अपमान है। भगवान् के हैं। भगवान् भोगों के (लिये) हैं। जीव का भोगों को भोगना, भोगों में डूबना और पुनः भोग भोगों के चंगुल से बाहर आना ही जीवनयात्रां को पूर्णता है।
प्राप्ति के बाद त्याग का महत्व है बिना प्राप्ति के त्याग का प्रश्न ही नहीं उठता त्याग के बिना शांति नहीं. ‘त्यागाच्छान्तिरनन्तरम्’.
त्यागात् =त्याग से। शान्तिः- शांति। अनन्तरम्= पश्चात् ।भोग से त्याग का अर्थ निकलता है। भोग से त्याग का महत्व है। शरीर के बिना कर्म नहीं कर्म के बिना बन्धन नहीं बन्धन के बिना मुक्ति नहीं। संग्रह के बिना त्याग नहीं त्याग के बिना मुक्ति नहीं। मुक्ति = आन्नद काम का निर्गुण रूप आनन्द है।
स्त्री की सार्थकता इसमें है कि वह पुरुष को आकर्षित करे, उसे चूसे, स्खलित करे, च्युत करे, झुकाए, नचाये, दौड़ाये, भ्रमित करे, मोहे, मोदे तथा रौंद कर उसकी कचूमर निकाल ले।
स्त्री की महत्ता इसमें है कि वह पुरुष को प्रेम से सींचे, सेवा से से पोषे रति से बांधे, उसे अपने से उत्पन्न कर उसका विस्तार करे तथा अन्ततः उसे फटकारे, लताड़े, विविक्ति देवे, घर से भगावे, संन्यासपथ पर चलाए और मुक्ति दे कर उसे धन्य (धनवान्) बनाये। गुण प्रकृति के हैं। प्रकृति अपने गुणों से पुरुष को बाँधती है। इस लिये प्रकृति ही मुक्तिदात्री है।
प्रकृति के सामने पुरुष बेचारा (असहाय है। प्रकृति नारी रूपा होने से पुरुष को बाँध कर उसको मुक्त कर दे। यही उसका नारीत्व है.
यह प्रकृति रूपा नारी ही भगवान् है, मुक्तिदायिनी है, माया है। मायाबद्ध जीव का नारी ही ईश्वर है।
अमजन्मा काम सृष्टि का सत्य है। सृष्टि सत्यरूप है। सृष्टि एक जागृत सत्य है, साक्षात् सत्य है, अपरोक्ष सत्य है। इस सत्य को मैं देखता हूँ, सुनता हूँ, सूंघता हूँ, चखता हूँ, छूता हूँ, मन में समाहित करता हूँ, बुद्धि से पकड़ता हूँ। यह सत्य ब्रह्मधर्मा है, इन्द्रियगम्य है। साथ ही साथ यह अवाङ्मनसगोचर अर्थात् बाकू एवं मन से परे भी है।
सत्यव्रतं सत्यपरं त्रिसत्यं
सत्यस्य योनिं निहितं च सत्ये।
सत्यस्य सत्यामृतसत्यनेत्रं
सत्यात्मकं त्वां शरणं प्रपन्नाः॥
~भागवत पुराण (१०/२/२६)
मैं इस सत्य की शरण में हूँ। इस सत्य को काम कहते हैं। इस काम की मैं स्तुति कर रहा हूँ। काम अनिन्द्य है। काम की निन्दा करना अपने जनक का अपमान करना है। काम जगत् पिता है, जगन्माता है. स्तुत्य है।
मेरे सम्मुख काम का अनन्त समुद्र है। इस समुद्र में नानाप्रकार के जीव हैं। इस के मन्यन से अमृत एवं विष दोनों निकले हैं। अमृत पीने वाले देवता है। विष पीने वाले महादेव हैं। मैं अपने दोनों नेत्रों के जल से कामदेव का अभिषेक कर रहा हूँ। मैं अपना हृदय निकाल कर दोनों हाथों की अञ्जलि में लेकर कामदेवता के चरणों पर पुष्पाञ्जलि रूप में अर्पित कर रहा हूँ। काम के समुद्र में वैराग्य के पर्वत की उच्चतम चोटी पर निवास करता हुआ में नित्य इसकी लहरों का अवलोकन करता, इसके निनाद को सुनता तथा यदा कदा इसमें गोते भी लगाता रहता हूँ। इससे जो रत्न मिले उन्हें यहाँ पूर्णतः विखेर चुका हूँ। अब और क्या चाहिये ?

जप के मूल में काम है। तप के मूल में काम है। व्रत के मूल में काम है। साधना में मूल में काम है। सिद्धि के मूल में काम है। देने के पीछे पाने का भाव होता है। बिना दिये कुछ मिलता नहीं। मूल्यहीन कुछ भी नहीं है। सब का मूल्य है। कितना मूल्य है ? इस का निर्धारण देश काल पात्र की उपलब्धता से होता है। हर वस्तु बिकाऊ है। हर व्यक्ति विकाऊ है।
व्यक्ति को खरीदने का अर्थ है, उसे अपने वश में रखना कोई धन वा द्रव्य से बिकता है। कोई बल वा शक्ति से बिकता है। कोई भय वा लोभ से बिकता है। कोई भोग सामग्री वा स्वाद से वश में होता है। कोई सेवा से प्राप्त किया जाता है। कोई प्रेम से पकड़ में आता है। किन्तु मूल्य सब का है। निर्मूल्य वा अमूल्य अपना स्वरूप है। क्यों कि यह प्राप्त है। इसे प्राप्त नहीं किया जाता।
इसे त्यागा नहीं जा सकता। इस आत्मतत्व से जो परिचित है, उस ज्ञानी को मेरा नमस्कार।
प्रेम और भक्ति में अन्तर है। प्रेम योजक तत्व है। यह दो को आपस में जोड़ता है, दो अलग-अलग प्राणियों को निकट लाता है। यह दो मूर्त प्राणियों के मध्य होता है। प्रेम से दो प्राणियों का मिलन होता है। प्रेम में संगम है, बन्धन है। प्रेम में देन रहता है-दो परस्पर युक्त होने पर भी अलग अलग अस्तित्व रखते हैं।
भक्ति का तत्व इससे आगे है। इस में दो का विलयन होता है। जैसे दूध और पानी। दोनों एक जातीय होते हैं। भिन्न जातीय में विलयन नहीं होता। जैसे तेल और पानी भाक्ति में अद्वैत है। दो चिदू तत्वों के मध्य भक्ति का प्रभवन होता है। दो अमूर्त आत्माओं के बीच भक्ति होती है। एक को दो भागों में बाँट कर रखना भी भक्ति है। ब्रह्म (परमात्मा) को मूर्त (जीव) तथा अमूर्त (ईश्वर) के रूप में अलग रखना भक्ति है। यह अलगाव विशिष्टाद्वैत है।
दो (जीव और ईश्वर ) का अभाव अभक्ति (ब्रह्मत्व) है। यह अकथ है। इस का प्रकथन कौन कर सकता है ? काम इस का पुत्र है।
ब्रह्म के दो रूप है-सम और असम (विषम) सम= एकरस, शान्त, शिव, उद्वेगरहित। विषम= ऊबड़ खाबड़ (ऊंच-नीच, अशान्त, उद्वेगयुक्त (काम) समतत्व शिव है तो विषम तत्व काम संसार सम असम होने से शिवकामात्मक है। इसमें एक ही साथ शिव और काम की युति है। पृथिवों सम विषम है।
इसीलिये शरीर भी सम-विषम है। सौन्दर्य बोध के लिये सम-विषम की आनिवार्यता समोचीन है। इस में कटिक्षीण है तो श्रोणि पृथुल है। कुक्षि गहन (खोखली है तो कुच पीन वा उत्तुंग शरीर में सर्वत्र उभार है तो गड़ड़े भी हैं।
इसी से यह सुन्दर लगता है। इस प्रकार शरीर पर काम का वर्चस्व है। अतः सभी शरीरधारी कामी हैं। कामी होने से वे सब धन्यवाद के पात्र हैं। मैं भी कामी हूँ। कामी होने से मैं भी धन्यवाद का पात्र हूँ।
कामिने नमः।
महाकामिने भगवते विष्णवे नमः।

काम वासना के सम्मुख कोई नीति नहीं, कोई सम्बन्ध नहीं, कोई जाति नहीं, कोई योनि नहीं। केवल दो होते हैं-स्त्री, पुरुष । घटित होता है-मैथुन सम्भोग आश्लेष परिरम्भ शोषण दोहन च्युतन। यह काम का आचार एवं इतिहास रहा है।
यस्मिन् सर्वं यतः सर्व सर्वे सर्वतश्च यः।
यस्मात् सर्वमयो विश्वं तस्मै रतिपतये नमः॥
नमस्तेऽस्तु योगनाथ वीर्यनाय नमोऽस्तु ते।
नस्तेऽस्तु सुखनाथ लिंगनाथ नमोऽस्तु ते।।
नमस्तेऽस्तु रात्रिनाथ वृष्यनाथ नमोऽस्तुते।
नमस्तेऽस्तु रतिनाथ रूपनाथ नमोऽस्तु ते।।
नमस्तेऽस्तु विश्वनाथ प्राणनाथ नमोऽस्तु ते।
नमस्तेऽस्तु युग्मनाथ यौननाथ नमोऽस्तु ते।।
नमस्तेऽस्तु पुष्पधन्वन् मनोभव नमोऽस्तु ते।
नहि जानामि ते भावं नम अद्भुतकर्मकृत्॥

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