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आख़िर मोदी सरकार को बनाए रखने का औचित्य ही क्या है?

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        पुष्पा गुप्ता 

मोदी सरकार यदि बेरोज़गारी दूर नहीं कर सकती, जनता की आर्थिक व सामाजिक समस्याओं का समाधान नहीं कर सकती तो फ़िर यह है ही किसलिए ?

     सरकार के मुख्य आर्थिक सलाहकार के मुताबिक़ सरकार बेरोज़गारी जैसी आर्थिक-सामाजिक समस्याओं को दूर नहीं कर सकती! 

    असल में इन समस्याओं का तो कारण ही सरकारों की पूँजीपरस्त नीतियाँ हैं और मोदी सरकार इनमें सबसे अव्वल है!

    दोस्तो, भारत के मुख्य आर्थिक सलाहकार वी. अनन्था नागेश्वरन ने हाल ही में एक सच बात बोली। इनके अनुसार सरकार बेरोज़गारी जैसी आर्थिक, सामाजिक समस्याओं के मामले में कुछ भी नहीं कर सकती है। इन नौकरशाह महोदय का यह बयान मोदी के ही हर साल दो करोड़ नये रोज़गार पैदा करने के जुमले को बखूबी मुँह चिढ़ा रहा है। असल में भाजपा जैसी फ़ासीवादी पार्टी की सरकार बेरोज़गारी ही नहीं बल्कि अशिक्षा, बेघरी, भुखमरी, असमानता, बीमारी आदि जैसी किसी भी समस्या का समाधान नहीं कर सकती है।

      उल्टा ये समस्याएँ इतनी विकराल रूप धारण ही इसलिए कर पायी हैं क्योंकि मोदी सरकार की पूँजीपरस्त नीतियों ने जनता के हितों पर ज़बरदस्त हमला बोला है। पहले की सरकारों के दौरान भी जनता के हालात बदतर ही थे लेकिन भाजपा के फ़ासीवादी शासन ने इन्हें बिल्कुल ही नारकीय बना दिया। 

नागेश्वरन अन्य भाजपाई अनर्थशास्त्रियों की तरह बेरोज़गारी के मौजूदा हालात के लिए कोविड-19 महामारी को ही दोषी ठहरा रहे हैं। इन्होंने यह बताना ज़रूरी नहीं समझा कि मोदी सरकार द्वारा थोपी गयी नोटबन्दी ने असंगठित क्षेत्र की पहले ही कमर तोड़ दी थी। भारत की 90 प्रतिशत से भी ज़्यादा श्रमशक्ति असंगठित क्षेत्र में ही संलग्न है। इसके बाद रही-सही कसर जीएसटी ने निकाल दी थी।

      खुद भारत सरकार के संस्थान एनएसएसओ (NSSO) द्वारा जारी पीएलएफ़एस (PLFS) के आँकड़ों के अनुसार ही 2018 में बेरोज़गारी दर 2012 की तुलना में तीन गुणा बढ़ चुकी थी। भाजपा शासन से पहले के आख़िरी आँकड़ों के अनुसार 2012 में बेरोज़गारी दर 2.1 प्रतिशत थी जोकि 2018 में बढ़कर 6.1 प्रतिशत हो गयी थी। इसके बाद कोविड – 19 के दौरान मोदी सरकार की अक्षम्य लापरवाही, जानलेवा कुप्रबन्धन और फ़ासीवादी बेहयाई ने अर्थव्यवस्था को चारों खाने चित्त कर दिया और जनता को मौत के मुँह में धकेल दिया।   

       आज लगभग 32 करोड़ भारतीय बेरोज़गार हैं, जिनमें बड़ी संख्या में देश के युवा हैं। ‘आईएलओ’ (ILO) और ‘आइएचडी’ (IHD) द्वारा जारी एक हालिया रिपोर्ट के अनुसार भारत में कुल बेरोज़गारों में 83 प्रतिशत संख्या युवाओं की है। यह रिपोर्ट 2022 तक के आँकड़े सामने रखती है। यही नहीं पढ़े-लिखे बेरोज़गार युवाओं की संख्या साल 2000 के मुक़ाबले 2022 तक दोगुनी हो चुकी है। 

      देश के शिक्षित बेरोज़गारों की संख्या जोकि वर्ष 2000 में 35.2 फ़ीसदी थी वह 2022 में बढ़कर 65.7 फ़ीसदी हो गयी। स्नातक और परा-स्नातक बेरोज़गार युवाओं की संख्या क्रमशः 19.2 फ़ीसदी से बढ़कर 35.8 फ़ीसदी और 21.3% से 36.2% हो गयी। दो करोड़ नये रोज़गार देने का शिगूफ़ा उछालने वाले मोदी के राज में 10 सालों के दौरान 22 करोड़ 5 लाख युवाओं ने केन्द्र की नौकरियों के लिए फार्म भरे लेकिन नौकरी मिली कुल 7 लाख 20 हज़ार को। मोदी अपने जुमले की असलियत खुद भी भली प्रकार से समझते हैं। इसीलिए वे बीच-बीच में अपने भक्तों के बीच पकौड़े तलने और गन्दे नाले की गैस पर बर्तन उल्टा कर उससे चाय बनाने के रूप में रोज़गार माँगने नहीं बल्कि रोज़गार देने योग्य बनने के टोटके सुझाते हुए बरामद होते रहते हैं।  

भाजपा ने जीएसटी जैसी नीति लाकर जनता की जेब से आख़िरी दमड़ी तक निकाल लेने की तरक़ीब सोची है फ़िर भला वह जनता की आर्थिक-सामाजिक समस्याएँ दूर करने के लिए माथापच्ची क्यों ही करेगी। आपको शायद पता ना हो 2021-22 में जीएसटी टैक्स का ज़्यादातर यानी 64 फ़ीसदी हिस्सा आम आदमी और गरीबों की नीचे की 50 फ़ीसदी आबादी ने भरा और ऊपर के 10 फ़ीसदी अमीरों ने केवल 3 फ़ीसदी भरा। 

     यानी देश की नीचे की 50 फ़ीसदी गरीब आबादी अपनी आय की तुलना में ऊपर की 10 प्रतिशत अमीर आबादी से 21 गुणा से भी अधिक जीएसटी चुकाती है। इन्हीं लुटेरी नीतियों के कारण आज देश में अरबपतियों की आबादी 1 फ़ीसदी तक पहुँच चुकी है। देश के 5 प्रतिशत अमीरों के पास देश की सम्पत्ति का 62 प्रतिशत इकट्ठा हो चुका है जबकि देश की 50 फ़ीसदी गरीब आबादी की सम्पत्ति देश की कुल सम्पत्ति की मात्र 3 प्रतिशत है।

      कहना नहीं होगा कि फ़ासीवादी मोदी सरकार का एक-एक दिन जनता के ऊपर भारी है। प्रधानमन्त्री मोदी का परिवार वह करोड़ों-करोड़ जनता नहीं है जोकि सुबह से शाम तक काम करती है और तब भी जीवन की बुनियादी ज़रूरतों से महरूम है। मोदी का परिवार वे धन्नासेठ हैं जिनकी तिजोरियों में देश की सारी दौलत भरी जा रही है, जिनके चरणों में देश के सारे प्राकृतिक संसाधन सजाये जा रहे हैं और जिनके सामने जनता की मेहनत के दम पर खड़ी की गयी सार्वजनिक क्षेत्र की सारी कम्पनियाँ परोसी जा रही हैं। 

       वी. अनन्था नागेश्वरन जैसे भाड़े के सरकारी सलाहकार खाते तो जनता का है क्योंकि इनका वेतन सरकारी खजाने से आता है जिसका बड़ा हिस्सा अप्रत्यक्ष करों के माध्यम से जनता की खून-पसीने की कमाई से बनता है लेकिन इनका सारा चिन्तन जनता के हितों के खिलाफ़ समर्पित होता है। ऐसे लोग चन्द टुकड़ों के लिए सियाह को सफ़ेद और सफ़ेद को सियाह कह सकते हैं। 

      आज ये कह रहे हैं कि बेरोज़गारी जैसी तमाम आर्थिक-सामाजिक समस्याओं को सरकार दूर नहीं कर सकती कल को ये यह भी कह सकते हैं कि जनता के ऊपर टैक्सों का पहाड़ लादकर बेचारी मोदी सरकार तो बड़ा अहसान का काम कर रही है।

    सोचना हमें है कि यदि मोदी सरकार हमारी समस्याओं का समाधान नहीं कर सकती तो इसके होने का मतलब या इसका औचित्य ही क्या है?

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