बी.सिवरामन
(केरल की सभी 20 लोकसभा सीटों के लिए मतदान 26 अप्रैल 2024 को ही संपन्न हो चुका था। लेकिन पिछले दिनों राज्य में पहली दफा जिस प्रकार का चुनावी अभियान संचालित किया गया, उसके 4 जून को कैसे नतीजे निकलने जा रहे हैं, को लेकर जबर्दस्त गहमागहमी देखी जा सकती है। इस बारे में एक संक्षिप्त सार-संकलन प्रस्तुत है:)
इसमें सबसे प्रमुख चीज यह देखने वाली है कि राज्य में मुख्यमंत्री पिनाराई विजयन के राजनीतिक प्रभुत्व के साथ-साथ उनकी खुद की राजनीतिक पार्टी सीपीआई (एम) के ऊपर वाम निरंकुशता पर किस हद तक अंकुश लग सकता है। सीपीआई (एम) ने इंडिया ब्लॉक का हिस्सा बने रहने के बावजूद, पश्चिम बंगाल में ममता और पंजाब में आप पार्टी की तर्ज पर केरल में भी स्वतंत्र चुनाव लड़ने का फैसला लेकर गठबंधन राजनीति का मखौल उड़ाने का काम किया है।
हालांकि यह सही है कि केरल में सीपीआई (एम) और कांग्रेस ही मुख्य प्रतिद्वंदी हैं, और उनके लिए एक बैनर के तले एकजुट होकर चुनाव लड़ना संभव नहीं है। लेकिन वह चाहती को वायनाड में राहुल गांधी के खिलाफ उम्मीदवार खड़ा न कर एक सांकेतिक संदेश तो दे ही सकती थी कि सीपीआई (एम) और कांग्रेस एक स्तर पर भाजपा के खिलाफ लड़ाई लड़ रही हैं। विजयन ने न सिर्फ ऐसा कोई संकेत देने का काम किया, बल्कि पूरे चुनावी अभियान की धार को ही कांग्रेस और राहुल गांधी के खिलाफ मोड़ दिया था।
लेकिन ऐसा करते वक्त भी विजयन ने बड़ी चालाकी दिखाते हुए राहुल गांधी के खिलाफ सीपीआई (एम) उम्मीदवार की जगह सीपीआई को इस गंदे खेल में धकेल दिया। सीपीआई जो कि खुद में एक दिवालिया वाम दल होकर विलुप्त होने के कगार पर है, और पहले ही अपनी राष्ट्रीय पार्टी होने की हैसियत खो चुकी है ने झट से विजयन के प्रस्ताव को लपक लिया और राहुल के खिलाफ ट्रेड यूनियन नेता एन्नी राजा को मैदान में उतार दिया। सीपीआई के भीतर कई पुराने दिग्गज नेताओं ने इस पर सवाल खड़े किये लेकिन डी. राजा ने उनकी नामंजूरी को सिर्फ इस बिना पर नजरअंदाज कर दिया क्योंकि राष्ट्रीय राजनीति में उनके खुद का अस्तित्व असल में विजयन के रहमोकरम पर टिका हुआ है।
अगर विजयन राजनीतिक मदद न करें तो सीपीआई अपने बलबूते केरल में उसी तरह 17 विधानसभा सीटों पर जीत दर्ज नहीं कर सकती, जिस प्रकार तमिलनाडु में डीएमके की दया के बगैर वह एक भी सीट हासिल कर पाने में अक्षम है। इसे इस प्रकार से भी समझ सकते हैं: आंध्रप्रदेश में इस बार सीपीआई 14 विधानसभा क्षेत्र पर चुनाव लड़ रही है, लेकिन किसी भी बड़ी बुर्जुआ पार्टी के साथ गठबंधन के अभाव में इसके खाते में एक भी सीट नहीं आने जा रही है।
कुछ इसी प्रकार का दृश्य ओडिशा में भी देखने को मिलने जा रहा है जहां सीपीआई 11 सीटों पर लड़ रही है। सबसे अजीबोगरीब बात तो यह है कि वायनाड में राहुल गांधी के खिलाफ चुनाव लड़ने वाली सीपीआई झारखंड में कांग्रेस से समर्थन की भीख मांग रही है! बेशर्म सीपीआई के ऊपर पिनाराई विजयन का दबाव किस कदर हावी है, यह अपने आप में एक मिसाल है। एक वाम दल के दुखद पतन की स्थिति इससे बदतर और क्या हो सकती है?
लेकिन पिनाराई विजयन के लिए भी केरल में अपने साम्राज्य को बरकारर रख पाना, विशेषकर लोकसभा चुनावों के संदर्भ में एक कठिन चुनौती बनी हुई है। वास्तव में देखें तो पिनाराई विजयन के तहत केरल में एलडीएफ को 2019 लोकसभा चुनाव में भारी पराजय का सामना करना पड़ा था, जिसमें सीपीआई (एम) के हाथ में सिर्फ एक सीट आई थी, जबकि कांग्रेस के नेतृत्व में यूडीएफ 19 सीट जीतने में कामयाब रही।
इस चुनाव में यूडीएफ 47.48% वोट हासिल करने में कामयाब रही थी, जिसमें अकेले कांग्रेस के खाते में 37.46% मत आये थे। इसकी तुलना में सीपीआई (एम) को मात्र 25.97% जबकि वाम मोर्चे को कुल मिलाकर 36.29% मत हासिल हो सके थे।
क्या कांग्रेस एक बार फिर से 2019 की सफलता को दोहराने जा रही है?
सत्तारूढ़ सीपीआई (एम) ने 2021 विधानसभा चुनावों में जीत दर्ज कर इस अंतर को काफी हद तक कम करने में सफलता प्राप्त कर ली है। राज्य विधानसभा की 140 सीटों में एलडीएफ 99 सीटों को जीतने में सफल रही, जो 2016 की तुलना में 8 सीटों पर उसकी बढ़त को दर्शाता है। 75 सीटों पर लड़कर सीपीआई (एम) 62 सीट जीतने में कामयाब रही, जबकि वाम मोर्चे के अन्य सहयोगी दलों में सीपीआई 23 सीटों पर लड़कर 17 सीटों पर जीत दर्ज करने में कामयाब रही थी।
विधानसभा चुनावों में यूडीएफ सिर्फ 41 सीट पर ही जीत दर्ज कर पाई थी। कांग्रेस ने 93 सीट पर लड़कर सिर्फ 21 सीटों पर जीत हासिल की थी, जबकि आईयूएमएल ने 25 सीट पर लड़कर 15 सीट और केरल कांग्रेस (मणि) ने 12 पर लड़कर 5 सीटें हासिल की थीं। एनसीपी, आईएनएल, जनादिपथ्य केरल कांग्रेस (जेकेसी), केरल कांग्रेस (जोसफ) और 6 निर्दलीय बाकी सीटों पर विजयी हुए थे।
इस प्रकार विधानसभा चुनाव में एलडीएफ 45.43% वोट हासिल करने में कामयाब रही, जबकि यूडीएफ को मात्र 39.47% मत प्रतिशत से संतोष करना पड़ा था।
क्या सीपीआई (एम) और एलडीएफ 2024 लोकसभा चुनाव में भी 2021 विधानसभा वाले प्रदर्शन को दोहराने में कामयाब हो सकती है?
यही वह मूल प्रश्न है जिसके जवाब के लिए 4 जून 2024 का बेसब्री से सबको इंतजार है। इस संदर्भ में जनचौक को मिलने वाले सभी चुनावी सर्वेक्षणों और ग्राउंड रिपोर्टों से जो संकेत मिल रहा है, उसके मुताबिक़ कांग्रेस के नेतृत्व में यूडीएफ एक बार फिर से अधिकांश सीटों पर जीत दर्ज करने जा रही है, वहीं एलडीएफ के हिस्से में 20 में से ज्यादा से ज्यादा 3 सीटें जा सकती हैं।
पिनाराई विजयन के राजनीतिक सितारे कैसे एक बार फिर गर्दिश में नजर आ रहे हैं?
क्या इसके पीछे केरल के मतदाताओं का एक खास वोटिंग पैटर्न देखने में आ रहा है कि उसे राज्य की सत्ता में एलडीएफ पसंद है लेकिन केंद्र में वह यूडीएफ को वरीयता देकर, राज्य में उभरने की कोशिश में लगी भाजपा को तीसरी ताकत नहीं बनने देना चाहता है? या, कहीं यह पिनाराई विजयन की नव-उदारवाद समर्थक वाम निरंकुशता के खिलाफ सत्ता-विरोधी लहर है?
पिनाराई विजयन का व्यक्तिगत अधिनायकवाद और वाम नव-उदारवाद
इस बारे में जानने के लिए आइये चलते हैं पिनाराई विजयन के पिछले 3-5 वर्षों के राजनीतिक आंकड़ों की पड़ताल करते हैं। पिनाराई विजयन अपने आप में एक वाम निरंकुश शासक हैं जिन्हें अपनी खुद की पार्टी सीपीआई (एम) के भीतर तक अपने सिवाय कोई दूसरा लोकप्रिय नेता होना नाकाबिले-बर्दाश्त है। उदाहरण के लिए, पूर्व स्वास्थ्य मंत्री केके शैलजा हैं। कोविड-19 महामारी के दौरान स्वास्थ्य मंत्री के तौर पर उनके द्वारा बेहतरीन कार्य किये जाने पर उन्हें अंतर्राष्ट्रीय स्तर पर प्रशंसित किये जाने के बावजूद पिनाराई विजयन द्वारा 2021 में मंत्रिमंडल में स्थान नहीं दिया जाता है। इस मामले में सीपीआई (एम) की समूची पोलित ब्यूरो हाथ पर हाथ धरे बैठी रह जाती है।
इससे पहले भी पिनयारी विजयन ने कुछ इसी प्रकार की हरकत 2019 के पूर्वार्ध में अच्युतानंदन जैसे बेहद लोकप्रिय नेता को किनारे लगाकर की थी, जिस पर सीपीआई (एम) की केंद्रीय कार्यकारिणी ने विरोध में चूं तक नहीं की थी। उन्हें चुनाव प्रचार तक में शामिल नहीं होने दिया गया, और यही कारण है कि सीपीआई (एम) 2019 लोकसभा चुनाव में 20 सीटों में से सिर्फ एक सीट ही जीत पाई।
वामपंथ का एकमात्र आधारक्षेत्र आज केरल ही बचा है, जिसकी सत्ता की कमान विजयन के हाथों में होने के कारण पार्टी उनके दिशानिर्देश पर चलने को मजबूर है। हालत यह है कि विजयन ने पार्टी के महासचिव सीताराम येचुरी को रिपोर्ट करने और उनसे दिशानिर्देश लेने के बजाय, येचुरी आज विजयन को रिपोर्ट करते हैं। सीपीआई (एम) के भीतर ताकतवर मुख्यमंत्रियों और सरकार में शामिल नेताओं ने हमेशा पार्टी ढांचे को अपनी सत्ता पर पकड़ मजबूत बनाये रखने के लिए आधारभूत ढांचे के तौर पर इस्तेमाल किया है। पार्टी रैंक और पार्टी के तहत संचालित होने वाले विभिन्न जन-संगठनों के प्रति उनकी कोई जवाबदेही नहीं रही है।
स्थिति यह हो चुकी है कि पिनाराई विजयन ने सिर्फ केरल सीपीआई (एम) के भीतर ही नहीं बल्कि अखिल भारतीय स्तर पर पार्टी को निर्देशित करना शुरू कर दिया है और सारे केंद्रीय नेताओं ने चुपचाप उनके सामने आत्मसमर्पण कर दिया है।
वरना ऐसा कैसे संभव था कि गीता गोपीनाथ, जो कि पूर्व में आईएमएफ की एक वरिष्ठ नौकरशाह और मौजूदा दौर में आईएमएफ की उप-निदेशक होने के साथ-साथ कट्टर नव-उदारवाद समर्थक हैं, को विजयन के प्रथम कार्यकाल में सरकार के आर्थिक सलाहकार के तौर पर नियुक्त किया गया? सीपीआई (एम) के बाकी नेताओं में विरोध की फुसफुसाहट तक नहीं सुनने को मिली, जिन्होंने विजयन के जरखरीद गुलाम की तरह अपने काम से काम रखा।
एक वाम दल द्वारा एकमात्र राज्य पर शासन में होने और अकेला मुख्यमंत्री होते हुए भी उसके द्वारा सिल्वरलाइन प्रोजेक्ट को लेकर भारी दबाव बनाने पर कोई आपत्ति क्यों दर्ज नहीं की गई। बता दें कि सिल्वरलाइन प्रोजेक्ट पिनाराई विजयन का ड्रीम प्रोजेक्ट है, जैसा कि नरेंद्र मोदी के लिए गुजरात में बुलेट ट्रेन परियोजना है, जिसके लिए हजारों की संख्या में किसानों को विस्थापन का दर्द झेलने को विवश होना पड़ेगा। फरवरी 2024 में, पिनाराई विजयन ने मोदी को पत्र लिखकर विवादास्पद सिल्वरलाइन प्रोजेक्ट के लिए मंजूरी दिए जाने का निवेदन किया था। क्या उन्होंने इसके लिए अपनी पोलितब्यूरो से इजाजत मांगी थी या विजयन को इसकी जरूरत महसूस नहीं हुई?
पिनाराई विजयन के खिलाफ बढ़ता असंतोष
लेफ्ट के “स्ट्रांगमैन” वाली छवि होने के बावजूद विजयन को अब अपने खिलाफ बढ़ते असंतोष का सामना करना पड़ रहा है। लेकिन फिलवक्त सीपीआई (एम) के भीतर जो भी असंतुष्ट हैं, वे चंद्रशेखरन के नेतृत्व वाले रिवोल्यूशनरी मार्क्सिस्ट पार्टी या पालघाट के जनकीय विकासना समिति (डेमोक्रेटिक डेवलपमेंट फोरम) की तुलना में कम रेडिकल तत्व हैं, जहां पर उन्होंने शोरानुर नगर निकाय चुनाव में सीपीआई (एम) के आधिकारिक उम्मीदवार को बुरी तरह से पटखनी दी थी। इसके अलावा केरल सीपीआई (एम) के भीतर हाशिये पर पड़े होने के बावजूद कथित “वीएस अच्युतानंदन कैंप” अभी भी सक्रिय है।
इसके बजाए, सीपीआई (एम) के भीतर मौजूद असंतुष्टों की नई पीढ़ी और भी ज्यादा दक्षिणपंथी है, जिसने भाजपा में शामिल होने के लिए होड़ लगा रखी है। उदाहरण के लिए, सीपीआई (एम) केंद्रीय कमेटी सदस्य और वाम मोर्चा के संयोजक ईपी जयरंजन जैसे स्तर के व्यक्ति ने हाल ही में भाजपा नेता प्रकाश जावडेकर से मुलाक़ात की है। सीपीआई (एम) के इडुक्की से पूर्व विधायक रह चुके एस राजेंद्रन भी प्रकाश जावडेकर से मिल चुके हैं। कुछ अन्य नेता भी कथित तौर पर भाजपा के राज्य स्तरीय नेतृत्व के संपर्क में बताये जा रहे हैं।
लेकिन इसे सिर्फ व्यक्तिगत अवसरवाद और डूबते जहाज से कूदने की कोशिश समझना एक भूल साबित होगी। असल में इसके लिए पिनाराई विजयन की ओर से आधिकारिक स्वीकृति प्राप्त है, ताकि स्थानीय स्तर पर सीपीआई (एम) और भाजपा नेताओं के बीच में यूडीएफ के खिलाफ एक स्थानीय गठबंधन तैयार हो सके। लेकिन सीपीआई (एम) और भाजपा के बीच में स्थानीय स्तर पर जो हनीमून चल रहा है, इसका भारी नुकसान पार्टी को होने जा रहा है। अमित शाह के नेतृत्व के तहत भाजपा अब अन्य दलों से नेताओं की खरीद-फरोख्त की अभ्यस्त हो चुकी है, और सीपीआई (एम) भी इसका अपवाद नहीं रही।
इसका नतीजा भी अब सामने आने लगा है। केवल चंद सीपीआई (एम) नेता ही नहीं, कुछ सामाजिक आधार भी भाजपा की तरफ खिसक रहा है। केरल में बीजेपी ने अब ईसाइयों को अपनी ओर आकर्षित करना शुरू कर दिया है। पिनाराई विजयन के नेतृत्व में केरल सीपीआई (एम) ईसाई और मुस्लिम अल्पसंख्यकों को बड़े पैमाने पर अपने पाले में लाने में बुरी तरह से विफल साबित हुई है।
केरल सीपीएम के पास प्रभावी सांप्रदायिकता-विरोधी अभियान नहीं है
2011 की जनगणना के मुताबिक, केरल में 54.73% हिंदू, 26.56% मुस्लिम और 18.33% ईसाई आबादी है। इस प्रकार कहा जा सकता है कि केरल में मुस्लिमों और ईसाइयों की अच्छी-खासी तादाद है। ईसाई मुख्य रूप से मध्य केरल के जिलों में आबाद हैं, वहीं मुस्लिम आबादी ज्यादातर उत्तरी केरल में केंद्रित हैं और दोनों जगह चुनावों में इनकी भूमिका निर्णायक मानी जाती है। अजीब इत्तेफाक है कि एलडीएफ के कई बार शासन में बने रहने के बावजूद, अल्पसंख्यकों का बहुलांश हिस्सा अभी भी यूडीएफ/कांग्रेस के पाले में बना हुआ है। सीपीआई (एम) आज तक अल्पसंख्यकों के बड़े हिस्से को अपने पक्ष में ला पाने में विफल रही है।
इतनी बड़ी संख्या में तीन संप्रदायों में बंटे होने के बावजूद वामपंथी परंपरा की विरासत के चलते आरएसएस और अब्दुल नासेर मदनी और पॉपुलर फ्रंट ऑफ़ इंडिया (पीएमआई) जैसे चरमपंथी गुटों के द्वारा ध्रुवीकरण की तमाम कोशिशों के बावजूद इस प्रगतिशील राज्य में दंगों और सांप्रदायिक हिंसा के तौर पर उग्र सांप्रदायिकता अभी भी अपनी जड़ें मजबूती से नहीं जमा सकी हैं। इसके बावजूद, राज्य की मुख्यधारा की राजनीति में सांप्रदायिक कार्ड को बड़े स्तर पर खेला जा रहा है।
हाल के वर्षों में इसका उदाहरण सबरीमाला मंदिर में महिलाओं के प्रवेश के मुद्दे में देखा जा सकता है। यह मुद्दा कई वर्षों से खिंचा चला आ रहा था। 28 सितंबर 2018 को सर्वोच्च न्यायालय की पांच सदस्यीय पीठ, जिसकी अध्यक्षता न्यायमूर्ति दीपक मिश्रा कर रहे थे, ने 4:1 के बहुमत से सबरीमाला मंदिर में रजस्वला (50 वर्ष की उम्र से कम) महिलाओं के प्रवेश पर अब तक लगी रोक को असंवैधानिक करार दिया था। इस फैसले ने इस विवादास्पद मुद्दे को हमेशा के लिए खत्म करने के बजाय भड़का दिया। नतीजे के तौर पर हिंदू मुन्नानी और आरएसएस-बीजेपी ने दकियानूसी हिंदू समाज के बड़े हिस्से को भड़काकर तीखी प्रतिक्रिया करने के लिए मजबूर कर दिया। वामपंथियों ने इस मुद्दे पर अपनी सैद्धांतिक स्थिति पर कायम रहते हुए फैसले का समर्थन किया और राज्य की सत्ता में होने की वजह से इसे लागू करने के लिए आवश्यक कदम भी उठाये। इसके चलते राज्य में तीखा सांप्रदायिक ध्रुवीकरण खड़ा हो गया।
इस मुद्दे ने उन लोगों को भी प्रभावित किया जो अन्यथा सांप्रदायिक विचारधारा के प्रभाव में नहीं थे लेकिन जो हिंदू परंपराओं से जकड़े हुए थे, भले ही वह कितनी भी दकियानूसी क्यों न हों। इस प्रकार एक बड़ा तबका हिंदू दक्षिणपंथ की जद में आ चुका था, और हिंदू सांप्रदायिक भावनाओं का तेज उभार राज्य में देखने को मिल रहा था। इस सबके बावजूद, भाजपा के लिए 2019 लोकसभा चुनावों और 2021 विधान सभा चुनावों में अपना खाता खोलने की नौबत नहीं बन पाई। हालांकि केरल में भाजपा के वोट प्रतिशत में उछाल देखने को मिला। 2019 लोकसभा चुनाव में उसे 13% वोट हासिल हुए, जबकि 2014 में उसका मत प्रतिशत 10.33% और 2016 विधानसभा चुनाव में 10.53% था।
इसके उलट, 2016 में भाजपा ने केरल में 98 विधानसभा सीटों पर चुनाव लड़कर पहली बार तिरुअनन्तपुरम में नेमोम सीट जीतकर अपना खाता खोला था। लेकिन 2021 में 113 विधानसभा की सीटों पर चुनाव लड़कर भी भाजपा एक भी सीट जीत पाने में कामयाब नहीं हो सकी।
इसे विडंबना ही कह सकते हैं कि, सबरीमाला मंदिर में प्रवेश के मुद्दे पर भाजपा-आरएसएस के द्वारा जिस सांप्रदायिक उन्माद को भड़काया गया था, उसका चुनावी लाभ 2019 में 15 लोकसभा सीट जीतकर कांग्रेस ने काटा, और सीपीआई (एम) के हिस्से में सिर्फ एक सीट आ सकी, जबकि आईयूएमएल को 2 और केरल कांग्रेस (एम) और आरएसपी एक-एक सीट जीतने में कामयाब रहीं। यह भी विडंबना है कि आज भी अधिकांश मुस्लिम और ईसाई समुदाय के लोग सबरीमाला सांप्रदायिक कार्ड से फायदा उठाने वाली कांग्रेस के पीछे लामबंद हैं। शायद इसकी एक वजह यह भी है कि सबरीमाला एक लैंगिक मुद्दा होने के कारण अल्पसंख्यकों को ख़ास प्रभावित नहीं कर पाया।
यहां हमें याद रखना चाहिए कि ईएमएस नंबूदरीपाद और उनके कामरेडों ने केरल में कम्युनिस्ट पार्टी को खड़ा किया था और दुनिया में पहली बार बैलट के माध्यम से कम्युनिस्ट पार्टी को सत्ता में स्थापित कराने को सिद्ध कर दिखाया था। शायद पिनाराई विजयन भी एक नया इतिहास बनाने जा रहे हैं, जो सीपीआई (एम) को विश्व में चुनावों के माध्यम से सत्ता हासिल करने के बाद अंतिम पार्टी बनाने जा रहे हैं। 1957 से शुरू होकर 2026 तक जब केरल में अगला विधानसभा चुनाव होगा, बहुत संभव है कि संसदीय लोकतंत्र की यह मियाद पूरी हो जाये!
(बी.सिवरामन स्वतंत्र शोधकर्ता हैं