अनामिका, प्रयागराज
देवान्भावयतानेन ते देवा भावयन्तु वः।
परस्परं भावयन्तः श्रेयः परमवापस्यथ।।
देवासुरा ह वै यत्र संयेतिर
उभये प्राजापत्यास्तद्ध देवा उद्गीथमाजह्रुरनेनैनानभिभविष्याम इति।
~छान्दोग्य उपनिषद (१/२/१)
प्रजापति के ही दोनों पुत्र हैं,और दोनों मे आदिकाल से हर क्षण युद्ध होता है लेकिन यह दोनो कोई योनि नही है। परमात्मा ने जब मनुष्य को बनाया तब मनुष्य के भाव मे ही दोनो प्रविष्ठ होकर युद्ध करने लगे और आज भी कर रहे हैं तथा भविष्य मे भी करते रहेंगे।
इसीलिए हर साल रावण मारा जाता है और मारकर लौटनेवालों के मष्तिस्क मे भाव मे तत्क्षण पुनः प्रविष्ठ हो जाता है। फिर एक क्षण देवत्व जाग उठता है तो दुसरे क्षण असुरत्व।
अब सवाल उठता है कि देवत्व क्या है? तो ,देव,शब्द द्योतनार्थक ,दिव , धातु से उत्पन्न हुआ। इसका अभिप्राय शास्त्रालोकित इन्द्रियवृत्तियाँ हैं। तथा उसके विपरीत जो अपनें की असुओं (प्राणों) मे यानी विविध विषयों मे जानेवाली प्राणनक्रियाओं मे (जीवनोपयोगी प्राणव्यापार मे) रमण करनेवाली होने के कारण स्वभाव से ही जो तमोवृत्तियाँ है वही ,असुर, कहलाती हैं।
तो इनमे युद्ध क्यों होता है?
सो इसलिए कि जव विवेक जाग्रत होता है तब मनुष्य का भाव सद् प्रवृत्ति की ओर जाता है लेकिन विवेक जाग्रत होना बहुत कठिन विषय है इसलिए देवत्व की संख्या (परिमाप) थोडी़ होती है,जबकि विषयवासनाओं की संख्या ज्यादा है।
इसलिए लक्षणार्थरूप से व्यवहार मे भी यही देखते हैं कि असुरों का बल भारी हो जाता है और हम बुरे कर्मों (काम,क्रोध,मोह,लोभ,नफरत,दंभ) मे प्रवृत्त रहते हैं और विवेक सोया रहता है। जब इसे होश आता है तो यह विष्णु(इन्द्र) की ओर भागता है। इन्द्र यानी पराक्रम।
अपने पराक्रम से इन दुष्प्रवृत्ति पर जब मनुष्य विजय पा लेता है तो असुर पराजित हो जाते है। इसीलिए श्रीकृष्ण ने भी कहा है कि हे मनुष्यों तुम देवताओं को उन्नत करो तो देवता भी तुम्हे उन्नत करेंगे और दोनों के परस्पर सहयोग से तुम लोग सुखी रहोगे।
कठोपनिषद् मे इन इन्द्रियों को घोडों की संज्ञा दी गयी है और मन को लगाम(बल) की। तो मित्रों लगाम को थोड़ा-थोड़ा खीचते रहना चाहिए ताकि विवेक जाग्रत रहे।
दूसरी बात यह कि जो इन्द्र, विष्णु, राम, कृष्ण, हिरण्यकश्यप, प्रह्लाद, सूपनखा, कुम्भकर्ण जैसे अनेक नाम देव और असुर की पुराण, मानस,गीता मे बताई गयी हैं वह लक्षणार्थ है ताकि सामान्य मनुष्य भी कम से कम भयवश ही सही सत्कर्म मे प्रवृत्त होता रहे और पृथिवी पर पाप का बोझ न बढ़े।
यदि वैज्ञानिकतापूर्वक जीवन जीने की कला समझ नही आई तो सारा पुरुषार्थ कुम्भकरण ही बन जाएगा।
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