(अन्तरराष्ट्रीय श्रम संगठन की रिपोर्ट)
पुष्पा गुप्ता
हमारे देश में बच्चों को यह घुट्टी की तरह पिलाया जाता है कि ‘पढ़ोगे-लिखोगे तो बनोगे नवाब’! लेकिन बड़े होने के बाद यह सच्चाई हम सभी जानते हैं कि पढ़ने-लिखने के बाद भी ज़्यादातर युवाओं को एक अदद नौकरी के लिए कितने पापड़ बेलने पड़ते हैं। दर-दर की ठोकरें खाकर भी पढ़े-लिखे ज़्यादातर लोगों को नौकरी नहीं मिलती और वे छोटे-मोटे काम-धन्धे करके या ठेला-रेहड़ी-खोमचा लगाकर किसी तरह से अपनी ज़िन्दगी काटते हैं।
सरकार इस सच्चाई पर भले ही कितने ही पर्दे डाले, लेकिन गाहे-बगाहे इस नंगी सच्चाई को उजागर करने वाले आँकड़े सामने आ ही जाते हैं। ऐसे ही कुछ आँकड़े हाल ही में अन्तरराष्ट्रीय श्रम संगठन और इंस्टीट्यूट ऑफ़ ह्यूमन डेवलपमेण्ट द्वारा संयुक्त रूप से जारी ‘भारत रोज़गार रिपोर्ट 2024’ में मौजूद हैं।
यह रिपोर्ट बताती है कि देश में हर 100 बेरोज़गारों में 83 युवा हैं। यही नहीं, कुल बेरोज़गारों में पढ़े-लिखे युवाओं की संख्या साल 2000 के मुक़ाबले 2022 तक लगभग दोगुनी हो गयी। देश के कुल बेरोज़गारों में शिक्षित बेरोज़गारों का अनुपात जोकि वर्ष 2000 में 35.2 फ़ीसदी था वह 2022 में बढ़कर 65.7 फ़ीसदी हो गया।
इस प्रकार हम देखते हैं कि विश्वविद्यालयों में मिलने वाली डिग्रियों का मोल काग़ज़ के टुकड़ों से ज़्यादा नहीं होता जा रहा है क्योंकि ज़्यादा से ज़्यादा लोगों के लिए उनका कोई मतलब नहीं रह गया है।
किसी दी गयी आबादी में कुल कितने प्रतिशत लोगों को या तो रोज़गार मिला है या जो रोज़गार की तलाश कर रहे हैं, यह श्रम शक्ति भागीदारी दर (लेबर फ़ोर्स पार्टिसिपेशन रेट) से ज़ाहिर होता है। वर्ष 2000 में यह दर 61.6 प्रतिशत थी जबकि 2018 तक आते-आते यह गिरकर 50.2 प्रतिशत रह गयी।
इसका अर्थ है कि लोग बेरोज़गारी से तंग आकर रोज़गार की तलाश करना ही छोड़ रहे हैं। महिलाओं के मामले में यह गिरावट और भी ज़्यादा है जिससे यह साफ़ है कि महिलाएँ बहुत बड़ी संख्या में रोज़गार खोजना बन्द कर रही हैं।
भारत दुनिया में सबसे कम महिला श्रम शक्ति भागीदारी दर वाले देशों में शामिल है जो हमारे समाज में महिलाओं की स्थिति का एक आइना तो है ही, लेकिन इसके साथ ही साथ यह अर्थव्यवस्था की लचर हालत की भी एक बानगी है।
रिपोर्ट में यह सच्चाई भी उजागर हुई है कि जिन लोगों को रोज़गार मिल भी रहा है उनमें पक्का रोज़गार पाने वाले लोगों की संख्या बमुश्किल 10 फ़ीसदी है। यानी 90 फ़ीसदी से ज़्यादा लोगों को अनौपचारिक क़िस्म का काम मिल रहा है, भले ही वे नियमित प्रकृति के काम कर रहे हों। जिन लोगों की गिनती रोज़गार प्राप्त लोगों में होती है उनमें से करीब दो-तिहाई स्व-रोज़गार की श्रेणी में आते हैं जो रोज़गार के नाम पर धोखा है।
ऐसे स्व-रोज़गार प्राप्त लोगों का ही उदाहरण देते हुए हमारे प्रधानमन्त्री महोदय ने अपना 56 इंच का सीना फुलाते हुए पकौड़ा बेचने को भी रोज़गार बताया था। रिपोर्ट में यह भी बताया गया है कि हाल के वर्षों में स्विगी और ज़ोमैटो जैसे प्लेटफ़ॉर्मों पर डिलीवरी का काम करने वाले गिग वर्करों की संख्या में इज़ाफ़ा हुआ है लेकिन उनके काम की ख़ून चूस लेने वाली और पीठ तोड़ देने वाली परिस्थितियों व सेवा शर्तों से हम सभी वाक़िफ़ हैं।
इसके अलावा रिपोर्ट में इस तथ्य की भी पुष्टि हुई है कि कोविड लॉकडाउन की वजह से कृषि से उद्योग अथवा गाँवों से शहरों की ओर होने वाले पलायन में कमी आयी और इस दौर में जिन लोगों ने पलायन किया उन्हें उद्योग में नहीं बल्कि निर्माण व सेवाक्षेत्रों में ही रोज़गार मिला।
रिपोर्ट में यह भी ज़िक्र किया गया है कि रोज़गार में कमी आने का एक कारण लोगों में कौशल और ख़ासकर कम्यूटर सम्बन्धी कौशल की कमी होना है। यह बताया गया है कि भारत मे 90 फ़ीसदी लोगों को एक्सेल शीट में फ़ॉर्मूला लगाने नहीं आता और 60 प्रतिशत लेागों को फ़ाइलों को कॉपी-पेस्ट तक करना नहीं आता तथा 75 प्रतिशत लोग ईमेल के साथ अटैचमेंट नहीं भेज सकते।
परन्तु रिपोर्ट में यह सच्चाई नहीं बतायी गयी है कि शिक्षा में गुणवत्ता की कमी के लिए भी लोग नहीं बल्कि सरकार ही ज़िम्मेदार है क्योंकि वह शिक्षा के क्षेत्र से धीरे-धीरे अपने हाथ खींचती गयी है। मोदी सरकार के दस सालों के दौरान यह प्रक्रिया बहुत तेज़ी से बढ़ी है।
अन्तरराष्ट्रीय श्रम संगठन की रिपोर्ट जारी करते हुए मोदी सरकार के मुख्य आर्थिक सलाहकार वी. अनन्था नागेश्वरन ने निहायत ही बेशर्मी से कहा कि सरकार बेरोज़गारी जैसी आर्थिक, सामाजिक समस्याओं के मामले में कुछ भी नहीं कर सकती है।
सलाहकार महोदय शायद यह भूल गए कि वे जनता के पैसे के बदले जिस सरकार को सलाह देते हैं वह इस देश के लोगों से हर साल दो करोड़ नये रोज़गार पैदा करने का वायदा करते हुए सत्ता में आयी थी। लेकिन चलिए इसी बहाने उन्होंने इस सरकार की इस असलियत से पर्दा तो उठा दिया कि वास्तव में वह इस देश की जनता की समस्याएँ हल करने के लिए है ही नहीं।
अच्छा होता कि उससे आगे की भी सच्चाई उनके मुँह से निकल जाती कि वास्तव में पूँजीवादी सरकार तो पूँजीपतियों की समस्याओं को दूर करने के लिए बनी है। जनता की बेरोज़गारी व बदहाली की तस्वीर तो तब पूरी होती जब उन्होंने इस आँकड़े को भी जारी किया होता कि पिछले 10 सालों में मोदी सरकार ने कितने लाख करोड़ रुपए का तोहफ़ा पूँजीपतियों को बजट रियायतों व कर्ज़माफ़ी के रूप में दिया और कितने अरब रुपये के ठेके और जनता की सम्पदा पूँजीपतियों को सौंपी।
मुख्य आर्थिक सलाहकार महोदय देश की जनता को यह भी सन्देश देना चाह रहे थे कि वे सरकार से बेरोज़गारी ही नहीं बल्कि अशिक्षा, बेघरी, भुखमरी, असमानता, बीमारी आदि जैसी किसी भी समस्या का समाधान करने की उम्मीदें न पालें।
अगर उन्होंने थोड़ी और ईमानदारी का परिचय दिया होता तो उनके मुँह से यह भी निकल जाता कि ये समस्याएँ पूँजीवादी आर्थिक नीतियों की अवश्वम्भावी परिणति हैं जिनकी शुरुआत कांग्रेस के शासन में ही हुई थी लेकिन जिन्हें फ़ासीवादी मोदी सरकार ने बिल्कुल नंगे, तानाशाहाना और विनाशकारी तरीक़े से लागू किया है।
नोटबन्दी से अर्थव्यवस्था की कमर तोड़ने और जीएसटी लगाकर जनता पर महँगाई का बोझ लादने एवं कोविड महामारी के दौरान बिना किसी योजना के सनक भरा लॉकडाउन थोपकर जनता की बर्बादी को नयी ऊँचाईयों तक पहुँचाने के बाद अब मोदी सरकार चुनावों से ठीक पहले अपने सलाहकार के ज़रिये अपनी सारी ज़िम्मेदारियों से बेशर्मी से पल्ला झाड़ रही है।
वैसे तो जब तक पूँजीवाद रहेगा तब तक बेरोज़गारी जैसे समस्याओं से पूरी तरह निजात नहीं मिलने वाली है, लेकिन आज का तात्कालिक कार्यभार यह है कि फ़ासीवादी मोदी सरकार के जनविरोधी और पूँजीपरस्त चरित्र को बेनकाब किया जाये और बेरोज़गारी महँगाई शिक्षा स्वास्थ्य आवास जैसे मुद्दों पर जनआन्दोलन छेड़ा जाये और जो पार्टी सत्ता में आए उसे इन मुद्दों को लेकर घेरा जाये।