प्रफुल्ल कोलख्यान
चाहे किसी के पास जितना भी धन हो, जितनी भी बुद्धि हो, जितना भी ज्ञान हो उसके भी वोट की उतनी ही कीमत होती है। वोट देने की ताकत, मताधिकार के लिए मनुष्य का नागरिक होना ही है। चाहे जितनी भी तरह की विषमता हो वोट देने की शक्ति में कोई विषमता नहीं है। मताधिकार की शक्ति में समानता वह ताकत है जिसका जागरूक इस्तेमाल मनुष्य की बनाई विषमता की हर खाई को पाट सकता है। इसलिए समता के प्रति जिन के मन में सम्मान हो उन्हें सिर्फ चुनाव के दरम्यान मौसमी तौर पर ही नहीं हर समय मताधिकार की शक्ति की समानता का अलख जगाते रहना होगा।
लोकतंत्र से विमुख होनेवालों को, लोकतांत्रिक अधिकारों के प्रति यथोचित सम्मान न रखनेवालों को यह बात बार-बार याद दिलाते रलना होगा कि न सिर्फ राजनीतिक बल्कि विभिन्न तरह की सत्ताओं के लिए व्यक्तियों और समुदायों के बीच संघर्ष कभी रुकनेवाला नहीं है। सत्ता-संघर्ष में रक्तपात से मुक्त रखने के लिए लोकतंत्र से अधिक कारगर उपाय मनुष्य के पास नहीं है। लोकतंत्र को बाधित करना रक्तपात की परिस्थितियों को खुला न्योता देना है।
घर जलाने वालों को खुशी करने के लिए कोई घर नहीं बनाता है और न घर में आग लग जाने के डर से कोई चिराग जलाना छोड़ देता है। इन बातों से इनकार नहीं किया जा सकता है कि घर जलाये जाते हैं, घर के चिराग से घर में आग लग जाया करती है। यह सच है कि लोकतांत्रिक की प्रक्रिया भी लोकतंत्र के मूल्यों को खतरे में डाल देती है।
लोकतांत्रिक प्रक्रिया की निष्फलता के कारण लोकतंत्र से विमुख होना या कोई दूसरा ही रास्ता अख्तियार करने का राजनीतिक दुस्साहस कहीं अधिक नुकसानदेह साबित हो सकता है। चाहे सत्ता बैलेट से निकले या बुलेट से निकले मनुष्य के पक्ष में सत्ता के होने के लिए अंततः लोकतंत्र ही काम आता है। युद्ध और संघर्ष की महागाथाओं का अंतिम अध्याय आमने-सामने की बात-चीत ही लिखती है। इतिहास के अंतर्विरोधों से निकलने और वर्तमान की जटिलताओं के पार जाने के लिए मनुष्य हमेशा भविष्य की तरफ कदम उठाकर रखता है। सच-झूठ का अपना कोई स्व-निहित मूल्य नहीं होता है।
सच-झूठ का मूल्य मनुष्य जाति के हितपोषण की क्षमता से ही बनता-बिगड़ता है। सच से दुनिया रूठ जाती है। झूठ से विवेक आहत हो जाता है। आदमी को दुनिया में जीना है और विवेक को भी अनाहत रखना है। कैसे हो सकता है! जो सच मनुष्य जाति के हित-विरुद्ध हो वह झूठ से अधिक त्याज्य होता है। सत्य का संघर्ष असत्य और झूठ से नहीं होता है। झूठ सत्य की परछाई होती है। छाया से युद्ध और संघर्ष नहीं किया जा सकता है। छाया के विरुद्ध जाना प्रकाश के विरुद्ध जाना है। सत्य का युद्ध और संघर्ष विश्वास और आस्था से होता है। सत्य से सब कुछ का नष्ट हो जाना ही सत्यानाश कहलाता है।
जो झूठ मनुष्य जाति के लिए हितकारी हो वह हितपोषक सत्य की तरह ही संग्रहणीय होता है। यहां एक कठिन सवाल खड़ा है, मनुष्य जाति के हित को कैसे समझा जाये। यहां नैतिकता की अवधारणा काम आ सकती है। वह यह है कि जिन परिस्थितियों में जो काम कोई एक कर रहा है, उन्हीं परिस्थितियों में वही काम दुनिया के सभी लोग या अधिकतर लोग करें तो उस का परिणाम दुनिया के सभी लोगों या अधिकतर लोगों के सम्यक जीवनयापन के लिए कितना अनुकूल या प्रतिकूल हो सकता है। सम्यक जीवनयापन के लिए जिस काम का परिणाम जितना अनुकूल होगा वह काम उतना ही मनुष्य जाति के लिए हितकारी होगा; जितना प्रतिकूल होगा मनुष्य जाति के लिए उतना ही हितनाशी होगा। इस से बात स्पष्ट नहीं हुई!
हित को समझे बिना हितकारी और हितकारी और हितनाशी को नहीं समझा जा सकता है! मनुष्य जाति का हित जीवनयापन की सम्यकता में निहित है। क्योंकि जीवित रहना प्राकृतिक अधिकार है। ‘जीयो और जीने दो’ प्रकृति का संदेश और संस्कृति का सार है। अपने के साथ-साथ दूसरों के जीवित रहने के आधार की रक्षा करना प्राकृतिक कर्तव्य है। मनुष्य होने का प्राकृतिक आधार, सहयोग और सहकार का मूल तत्व है। इसलिए जीवनयापन की सम्यकता में ही मनुष्य जाति का हित सन्निहित रहता है।
यह कभी नहीं भूलना चाहिए कि प्रक्रिया में बदलाव किया जा सकता है, परिणाम में बदलाव नहीं किया जा सकता है। जीवन की सारी प्रक्रियाओं का लक्ष्य परिणाम जीवनयापन को सम्यक बनाना होता है। जीवनयापन के सम्यक बनने की रक्तपात मुक्त अधिकतम संभावना लोकतंत्र में ही होती है। एक बात तय है, पसीना के निकलने का रास्ता जितना साफ, सुखद और मुसकान की संभावनाओं से भरा होगा अश्रुपात और रक्तपात की आशंका उतनी ही कम होती है। क्या लोकतंत्र का कोई विकल्प नहीं है! है, मनुष्य की बनाई कोई भी व्यवस्था निर्विकल्प नहीं होती है। लोकतंत्र का विकल्प बेहतर लोकतंत्र है। जाहिर है कि लोकतंत्र के कई प्रकार हैं।
नाव नदी पार करने के लिए साधन है। नदी कर लेने के बाद नाव के उपयोग के अधिकार पर नदी पार कर चुके लोगों को अपना दावा छोड़ देना ही न्याय संगत हो सकता है। नदी के पार हो जाने के बाद उसे माथा पर लादकर नाचने का हक किसी को नहीं है। नाव में छेद करना तो समग्र अपराध है। यह बोध बुद्ध विचार से प्राप्त होता है। जीवन में मुश्किल से हो पाता है नदी नाव संयोग। नदी तो हर किसी को पार करनी होती है। नाव हर किसी को है मिलती है। जिन्हें नाव का सुख नहीं मिलता है, उन्हें तैर कर ही नदी करनी पड़ती है। असल में शक्तिशाली लोगों की नीयत ही होती है, खुद नदी पार करो और नाव खींच लो। मुराद यह कि बाकी लोग या तो उसी पार रह जायें या तैरकर नदी पार करते हुए मर-खप जायें। फिर भी कुछ लोग नदी पार कर ही लें तो उन से निपटने के दूसरे तरीके हैं। सच्चा लोकतंत्र ऐसी व्यवस्था करता है कि नदी पार करने के लिए अधिकतम लोगों को नाव का सहयोग हासिल हो।
बचपन में किसी चतुर को चिढ़ाते हुए कहते थे, ‘ओनामासीधं, गुरु जी गिरे चितंग!’ बाद में पता चला, ‘ओम नमः सिद्धम’ लोक विमुख होकर ‘ओनामासीधं’ हो गया! अर्थशास्त्र का टपकौआ (Trickle-down Economics) का सिद्धांत अब ‘ओनामासीधं हो गया, फेल कर गया। राज पोसुआ निजी कारोबार (Crony Capitalism) के चलते जनता का पैसा (Public Money) बहुत तेजी से ‘नव-धनिकों’ के हाथ सिमटने लगा। ‘नव-धनिकों’ को मिलने वाले अतिरिक्त लाभ देश में बढ़ती आय असमानता को जोड़ते हैं। जनता का पैसा गताल खाता (Write-off) में! एक तरफ बाईस और दूसरी तरफ सत्तर करोड़! ऐसी भयावह विषमता! यह सब कुछ संविधान, संसद, न्यायपूर्ण व्यवस्था, और लोकतंत्र के अपनी जगह ‘सुरक्षित’ रख देने और सीमित अर्थ में स्थगित किये जाने से हुआ! क्या पता!
चुनाव का समय है किसिम-किसिम के लोग, किसिम-किसिम की बातें! भांति-भांति की लूट, भांति-भांति की छूट का प्रभाव पर चर्चा हो रही है! सत्ता की लाल-लाल आंख का ‘विनम्र अनुरोध’ है, विरोध न कीजिए। ‘उपदेश’ को आचरण में उतारना जरूरी है, ‘तुलसी इह संसार में भांति-भांति के लोग। सबसों हिल मिल चलिए, नदी-नाव संजोग’। यह नहीं बताया कि जब ‘नदी-नाव संजोग’ में ‘विजोग’ करनेवाले जीवनयापन की परिस्थितियों को अमृतकाल में अमरबेल (Parasite) अपने लपेटे में फांस ले तो क्या करना चाहिए! विपक्षी गठबंधन (इंडिया अलायंस) की तरफ देखना चाहिए। कांग्रेस के न्यायपत्र पर ध्यान देना चाहिए।
‘उदार लोकतंत्र’ ने उदारता से तय किया कि “कम सरकार” एक अच्छी स्थिति है। सरकार नदी-नाव के बीच में कम-से-कम पड़े। नदी तय करे, नाव तय करे, पार उत्तीर्ण होने की आकांक्षा रखनेवालों को तय करना होगा। यानी बाजार और शक्तिशाली लोगों के बीच सरकार नहीं पड़ेगी। सब के साथ समान व्यवहार का मतलब यह निकला कि जंगल तय करे, बाघ तय करे, बकरी तय करे आपसी संबंध सरकार किसी की सरपरस्ती नहीं करेगी। समानता का मतलब इन के लिए यह है कि ‘बाघ’ और ‘बकरी’ दोनों समान रूप से आजाद!
एक विषम समाज में सकारात्मक हस्तक्षेप और समकारक (Equalizer) पक्षपात की जरूरत स्वयं-सिद्ध है। दुनिया की बहुत बड़ी आबादी के हाहाकार के बावजूद बाजार की आबद्धता को तोड़ निकलने के लिए जरा भी उत्सुकता ‘उदार लोकतंत्र’ में न दिखी। अद्भुत है नई प्रजाति की ‘उदारता’ की कट्टरता! ‘उदार लोकतंत्र’ फेल कर गया? ‘लोकतंत्र’ फेल कर गया? ‘उदारता’ फेल कर गई? लोकतंत्र फेल नहीं हुआ है। फेल करती हुई ‘उदारता’ के पैरोकारों ने अपने फेल होने का सारा ठीकरा लोकतंत्र पर फोड़ते हुए लोकतंत्र के फेल होने की बात करना शुरू किया। सकारात्मक पक्षपात की प्रवृत्ति के कारण सरकार को समस्याओं का निदान न मानकर खुद समस्या बतानेवाले रीगन अब नहीं हैं।
अतीत की महानताओं का मोह सोच को संकीर्ण बनाता है। संकीर्ण सोच से मनुष्य वर्तमान के सार्विक यथार्थ से विमुख होकर आत्म-मुग्धता के दल-दल में भविष्य के सुखद सपनों के मकरजाल बुनने में व्यस्त हो जाता है। वर्तमान की जमीन पर लोकतंत्र महानताओं से आक्रांत हुए बिना समानता के बुनियादी मूल्य के आधार पर जीवनयापन की व्यवस्था करने के लिए प्रतिबद्ध होता है।
इस अर्थ में लोकतंत्र में ‘बंदों को तौले बिना गिनने का रिवाज’ उसका बड़ा गुण है। लोकतंत्र का यह ‘बड़ा गुण’ महानताओं से आक्रांत होने से बचाता है। संविधान के बदलाव और लोकतंत्र के संकट की जड़ में लोकतंत्र के इसी ‘बड़े गुण’ को लोक-चित्त से उतारने की दुष्ट कोशिश सक्रिय रहती है। कोई कुछ कहे, लोक-चित्त में ‘बंदों को तौले बिना गिनने के रिवाज’ के प्रति सम्मान और समर्पण को हर कीमत पर बचाया जाना जरूरी है।
‘लोक-कल्याणकर लोकतंत्र’ को दुत्कारते हुए जिंदा रहने की शर्त पूरी करने के चलते आज राहत और रियायत पर रेहन है जिंदगी तो यह किस का कमाल है! लोकतंत्र की ‘उदारता’ का कमाल है। लोकलुभावन ‘उदारता’ के फांस से बाहर निकलकर ‘लोक-कल्याणकर लोकतंत्र’ की ‘कट्टरता’ को अपनाने की कोशिश करनी होगी। आबादी को बाजारवाद की लाभार्थी योजना के कृपा-प्रसाद से बाहर संविधान सम्मत लोक-कल्याणकारी योजना से प्राप्त अधिकार के सारे सभ्य, शांत और बेहतर जीवन ‘हम भारत के लोगों’ का हक है। हक कोई भी हो, निष्क्रियता से न तो मिलता है, न टिकता है।
समझदार सक्रियता के कमाल दिखाने का लोकतांत्रिक अवसर सामने है! अभी नजर में लोकतंत्र है। नजारा आम चुनाव का है। जिंदगी को राहत और रियायत पर रेहन नहीं रखा सकता है। गनीमत है कि अभी तक संविधान का सहारा है। यह भी ध्यान में रखना होगा कि संविधान को भी, कम-से-कम इस समय, ‘हम भारत के लोगों’ के सहारे की जरूरत है। जरूरत को पूरा करने का फैसला! चार जून को। फिलहाल, विश्व-गुरु के ‘ओनामासीधं के लिए चार जून का इंतजार।