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कानून के शासन में कानून विहीनता का लगातार बढता साम्राज्य

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मुनेश त्यागी 

     आजादी के पच्चीस साल बाद तक हमारे समाज में आजादी के महान मूल्य न्याय, समता, समानता, आपसी भाईचारा और सुशासन का असर बना रहा। देश के कुछ हिस्सों में सामंती अन्याय, शोषण और जुल्मों सितम का प्रभाव भी काम हुआ, जातिवाद का जहर भी उतना प्रकोपी नहीं था। इस दौरान देश के विभिन्न भागों में नहरों, राजवाहों, बांधो, कारखानों, सरकारी उद्योगों, सड़कों, रेल, कॉलेज, स्कूलों और अस्पतालों का जाल बिछाया गया। यह सब संविधान प्रदत्त कानून के शासन के तहत किया गया।

    80 के दशक के बाद से जैसे फिर से कानून विहीनता छाने लगी। धनी और सामंती वर्ग फिर से कानून के शासन को धराशाई करने में जुट गया और कानून का शासन धीरे-धीरे दम तोड़ने लगा। सरकार का कोई विभाग और जीवन का कोई क्षेत्र इसे अछूता न रह पाया और सब जगह कानून के शासन के स्थान पर मनमानी, अवसरवादिता और कानून विहीनता छा गई और कानून का शासन, दम तोडता नजर आने लगा।

      छात्र राजनीति करने वाले अनेक छात्र नेताओं को मनमाने तौर से ब्लैकलिस्टेड किया गया, उनके दाखिले प्रतिबंधित कर दिए गए। उनमें से अधिकांश छात्र नेताओं को मानवाने और झूठे आरोप लगाकर कालिजों से निकाल दिया गया। उनके शिक्षा के क्षेत्र में आगे बढ़ाने के सारे रास्ते बंद कर दिए गए और एक तरह से उनका जीवन बर्बाद कर दिया गया और इस प्रकार कानून के शासन को धता बताया गया। अफसोस की बात है की इन मनमाने और झूठे आरोप लगाने वाले अध्यापकों और प्रधानाचार्यों के खिलाफ कोई कार्यवाही नहीं की गई। 

    कानून के शासन का सहारा लेकर अपना शोषण और अन्याय खत्म करने के लिए और श्रम कानूनों को लागू करने के लिए, संविधान द्वारा मजदूर यूनियनें  बनाने का प्रावधान किया गया और मजदूरों ने अपने हितों की रक्षा के लिए कारखानों में यूनियन बना लीं।

जैसे बहार आने से पहले खिंजा चली आई हो। शोषण करने वाले अधिकांश कारखाना मालिकों को यह सब पसंद नहीं आया। थोड़े अंतराल के बाद  मजदूर नेताओं को मानमाने और अवैधानिक तरीके से नौकरियों से निकाला जाने लगा। कई मजदूर नेताओं और श्रम कानून प्रतिनिधियों को कारखाना मालिकों द्वारा झूठे केसों में फंसा कर जेल भिजवा दिया गया। पुलिस विभाग ने भी इन मालिकों द्वारा यह सब गैरकानूनी काम करने में पूरा साथ दिया और उन्होंने कानून के शासन को धरती में मिला दिया।

      यही हाल भारत के किसानों की एमएसपी देने, फसलों का वाजिब दाम देने की मांग करने वाले किसानों और उनके नेताओं के साथ किया गया। किसान आंदोलन में काम करने वाले अनेक किसान नेताओं को झूठ और मनमाने केसों में फंसा कर जेल भेजा गया। कानून को तोड़ने वाले कई सरकारी अधिकारी, जमींदार और सामंत मिलकर कानून के शासन को मिट्टी में मिलाते रहे, आज भी मिला रहे हैं और सरकारों द्वारा किसानों की समस्याओं का समाधान नहीं किया जा रहा है। उनको आज भी एसपी नहीं दी जा रही है। इस प्रकार किसान कल्याण के कानूनों को और कानून के शासन को बिना किसी रोक-टोक के मिट्टी में मिलाया जाता रहा है।

       कानून के शासन में सस्ते और सुलभ न्याय की मांग एक अधूरा सपना बनकर ही रह गया है। भारत के अधिकांश न्यायालयों में अदालतों के बाबू और चपरासियों द्वारा, न्यायिक अधिकारियों की आंखों के सामने खुलेआम अदालतों में वादकारियों से अवैध पैसे दिए जाते हैं, जो एक, दो रुपए से शुरू होकर आज 100, 200 और ₹500 तक पहुंच गया है। इस काम में न्यायालय के अधिकांश अधिकारी, ओफिसर ओफ दी कोर्ट, कुछ जान पूछ कर, तो कुछ परेशानियों और हालातवश शामिल रहे हैं। विरोध करने पर भी भ्रष्टाचार के इस साम्राज्य में कोई सुधार नहीं हुआ और अधिकांश न्यायालयों में भ्रष्टाचार के रूप में कानून का शासन मिट्टी में मिलाया जाता रहा है।

      नगर पालिका, तहसील और थानों में तो जैसे सारी हदें पार कर दीं और ये तमाम सरकारी विभाग भ्रष्टाचार और बेईमानी के साम्राज्य के खुले अड्डों में तब्दील हो गए। इन सारे सरकारी विभागों में धन दौलत वालों, बाहुबलियों और सेठ साहूकारों की तूती बोलती रही। लगभग सारा सरकारी अमला भ्रष्टाचार और बेईमानी की गंगा में डूब गया। इन सारे सरकारी विभागों में कानून के शासन की खुलेआम हत्या होने लगी और आज भी हो रही है।

     यही हाल अधिकांश सरकारी अस्पतालों और स्वास्थ्य केंद्रों का है। यहां छोटे मर्जों का इलाज तो मिल जाता है पर ऑपरेशन और गंभीर बीमारियों के इलाज की सुविधा भ्रष्टाचार की भेंट चढ़ गई हैं। यहां पैसे वालों ने कानून के शासन को रौंद दिया है और देश के करोड़ों गरीबों के लिए यहां कानून का शासन मर चुका है। यहां तो अधिकारियों की नैतिकता तो इस हद तक गिर चुकी है कि वे अपनी नर्सों तक से उनकी पदोन्नति के बाद मिलने वाले पैसे को देने के लिए नर्सों से पैसा मांग रहे हैं और रिश्वत न देने पर उनका बरसों बरस तक सरकारी वेतन का भुगतान उन्हें नहीं किया जा रहा है और कानून के शासन को जानपूछ कर धता बताया जा रहा है।

      सरकार के अधिकांश कार्यालयों में भ्रष्टाचार और रिश्वतखोरी का यही आलम कानूनविहीनता में तब्दील हो गया है। इनमें बिना पैसे लिए दिए कोई काम होना लगभग असंभव है। शिक्षा के क्षेत्र में भी यही आलम है और जब से निजीकरण और उदारीकरण का निजाम शुरू हुआ है तब से लगभग सभी सरकारी और निजी संस्थानों मुख्यतया शिक्षा और स्वास्थ्य संस्थानों में भ्रष्टाचार उच्च स्तर पर पहुंच गया है। यहां से कानून का शासन नदारत हो गया है।

     अधिकांश कारखानों और प्राइवेट संस्थानों में मजदूरों को न्यूनतम वेतन नहीं दिया जाता है, नियुक्ति पत्र नहीं दिया जाते हैं, वेतन पर्चियां नहीं दी जाती हैं, उनसे 12-12 घंटे काम करने के बाद भी उनका ओवर टाइम का भुगतान नहीं होता है। ये सारी हकीकतें सरकारी अमले के  निगाहों और जानकारी में हैं, मगर भ्रष्टाचार और कानून विहीनता का यह आलम है कि उनके खिलाफ कोई कानूनी कार्रवाई नहीं होती और ये खुलेआम कानून के शासन को धता बताकर उसे मिट्टी में मिलाने पर आमादा हैं।

     चुनावी बांड में के माध्यम से किए गए भ्रष्टाचार और बेईमानी ने भ्रष्टाचार की सारी हदें तोड़ दी हैं और भारत को पूरी दुनिया में भ्रष्टाचार के शिखर पर पहुंचा दिया है। इसे लेकर केंद्र की शासक पार्टी को कोई अफसोस नहीं है। सुप्रीम कोर्ट के फैसले के बाद भी सरकार चुनावी बांड की अपनी जन विरोधी, संविधान विरोधी और कानून विरोधी नीतियों का खुलेआम समर्थन कर रही है और इस प्रकार कानून के शासन को मिट्टी में मिला रही है।

     उपरोक्त विवरण से स्पष्ट है कि आज भारत में संविधान, एक नाम लेने वाली किताब बनकर रह गई है। उसके अधिकांश सिद्धांतों का को लागू नहीं किया जा रहा है। हमारी अधिकांश शासन व्यवस्था, कानून व्यवस्था, सामाजिक मूल्य और नैतिकता, आजादी मिलने के पहले समय में पहुंच गई है, जहां कानून का कोई नाम और निशान नहीं था, जहां पैसे वालों, धनपतियों, सामंतों और जमीदारों की मनमर्जी चलती थी। आजादी के 77 साल बाद भारत की अधिकांश सरकारी और निजी संस्थाओं में कानून के शासन के नाम पर कानूनविहीनता का साम्राज्य छा गया है।

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