पुष्पा गुप्ता
आजकल सिर्फ़ बेटियों का ही मायका नहीं होता, बेटों का भी होता है। फ़र्क फिर भी काफ़ी बड़ा है, विवाहोपरांत बेटियों का उतना अधिकार नहीं होता, कम से कम हमारे जमाने की बेटियों का। उनका अधिकार माँ के दिए शगुन तक सिमटकर रह जाता है, वह भी अगर माता-पिता समर्थ हुए तो, वरना उनके पेंशन पर भी उनका पूरा अधिकार नहीं होता। जबकि बेटा उस घर का आधिकारिक वारिस होता है, भले ही वह अपने कर्तव्यों का पालन सुचारू रूप से न कर सके, अपने परिवार की व्यस्तता में सालों माता-पिता से मिलने का समय भी न निकाल सके।
बेटों का वह दूसरा घर होता है। ‘दूसरा घर’ ग़लती से टाइप नहीं हुआ है। विवाहोपरांत पहला घर बेटों का वही होता है जहाँ वे अपने परिवार अर्थात पत्नी-बच्चों सँग रहते हैं, क्योंकि अक्सर उनके घर में माता-पिता के लिए जगह नहीं होती या माता-पिता उनके घर में, उनके दिनचर्या में स्वयं को व्यवस्थित नहीं कर पाते।
ग़लती किसकी है, यह मेरी इस कहानी का विषय नहीं है। पिछली कथा ‘बहू विदा हो गई’ में मैंने उन घटनाओं का वर्णन किया था जब बेटा सपरिवार कई सालों बाद मायके अर्थात अपने घर गया था। अब चूँकि बेटे का परिवार साथ था इसलिए हर कार्य-व्यवहार-दिनचर्या उनके ही हिसाब से हो रहा था। माँ-बहनों की हर ख्वाहिश धरी की धरी रह गई। बड़ी बहन अर्थात मैं इसी बात का अफसोस कर रही थी कि भाई से आने को कहा ही क्यों।
असल में हमें रत्ती भर भी उम्मीद नहीं थी कि भाभी एवं हॉस्टल में रहने वाली बेटी आने को तैयार हो जाएँगी, लेकिन शायद भाई की जिद पर वे आ गए थे। खैर, उनका घर है, अच्छा है आना भी चाहिए। लेकिन भाई को जरा सा अहसास भी नहीं हुआ होगा कि परिवार के साथ होने पर एक सप्ताह के लिए भी वह न माँ का बेटा, न बहनों का भाई बन पाया।
वापसी के लगभग दो माह पश्चात भाई से बात हो रही थी तो न चाहते हुए भी मुँह से निकल गया कि किसी की भी जिंदगी का कोई भरोसा नहीं है, फिर माँ की तो उम्र भी हो गई है, मेरी इच्छा थी कि एक बार अपने परिवारों के बगैर सिर्फ़ हम सभी भाई-बहन मायके में इकट्ठे होकर अपने बचपन के दिनों को याद कर सकते। बस माँ के बच्चों की तरह चार-छः दिन बिता पाते।
पता नहीं वह कुछ समझा या नहीं, लेकिन भाई ने कोई प्रत्युत्तर नहीं दिया, बात आई-गई हो गई। खैर, भले ही फिफ्टी प्लस के उम्र में मेरी इस ख्वाहिश को लोग बेवकूफी भरा करार दे सकते हैं लेकिन जब भी मैं मायके में होती हूँ तो मैं तो ऐसा ही महसूस करती हूँ, माँ की ममता के आँचल में सब समस्याएं कुछ समय के लिए स्थगित हो जाती हैं।
हमेशा की तरह हम बहनों ने दिसम्बर में मायके जाने का प्रोग्राम बना लिया। इंतजार के दिन समाप्त हुए और हम पहुँच गए अपने सबसे पसंदीदा डेस्टिनेशन पर।
छोटी बहन दो दिन बाद आई थी। एक-दो दिन बाद हम हमेशा की तरह सिटी मॉल जाकर फ़िल्म देखने के बाद मार्केटिंग करने वाले थे। अब बेटियाँ चाहे जितने बड़े शहर में रहती हों लेकिन मायके में मार्केटिंग करने का मजा ही अलग होता है। खाना-पीना,फ़िल्म देखना मम्मी स्पॉन्सर करती हैं लेकिन मार्केटिंग हम अपने पैसों से ही करते हैं। चौथे दिन सुबह 9 बजे मैं नाश्ता बनाने की तैयारी कर रही थी, माँ-बहन हॉल में बैठे हुए थे, तभी गेट खुलने की आवाज़ आई, हमनें ध्यान नहीं दिया, क्योंकि घर में रहने वाले दोनों बच्चे एवं उनसे मिलने वाले आते रहते हैं, जिन्हें बाहर वाले कमरे में सुरक्षा एवं मम्मी की देखरेख के लिए रखा गया है।
अचानक आवाज़ आई कि मेरे लिए भी चाय-नाश्ता बना लेना, भाई की आवाज़ पहचानकर हम भौचक्के रह गए, उसने बहन की तरफ देखते हुए हँसकर कहा,”सरप्राइज! मैं भी अपने मायके आ गया, आप सबकी तरह”। ख़ुशी के अतिरेक से हम सबकी आँखें डबडबा उठीं। आज पहली बार उसके माथे पर तनावपूर्ण शिकन नहीं था, उसकी आवाज़ में उदासी नहीं थी, आँखें खोई-खोई नहीं थीं। मम्मी से रहा नहीं गया तो पूछ ही लिया कि परिवार में सब ठीक तो है,तुम अचानक अकेले कैसे आ गए?
वह मुस्करा उठा कि दीदी ने कुछ महीने पहले कहा था कि एक बार सिर्फ़ हम सभी भाई-बहनों को मायके में एकत्रित होकर बचपन के दिनों को जीना चाहिए। इसलिए पाँच दिनों के लिए मैं आ गया। उसके फ्रेश होने तक मैंने नाश्ता एवं बहन ने चाय बना लिया।
उस दिन मॉल जाने का प्रोग्राम हमनें कैंसिल कर दिया, दोपहर के खाने में आलू की भुजिया बनाई, जो उसे बचपन में बेहद पसंद थी। शाम को हम गोरखनाथ मंदिर दर्शन करने चले गए।अगले दिन फ़िल्म देखकर वहीं फ़ूडकोर्ट में डोसा, चाऊमीन खाया। अगले दिन रामगढ़ ताल एवं जू गए, पहले भी जा चुके थे लेकिन भाई के साथ इस बार एक अलग आनन्द था।माँ ज्यादा चल नहीं पातीं,लेकिन फिर भी हम माँ को साथ ले गए कि आप एक जगह बैठ जाना।
भाई की आदत ई – रिक्शा, ऑटो जैसे सार्वजनिक वाहनों में चलने की नहीं रह गई थी लेकिन वह हमारे साथ इसका पूरा आनन्द ले रहा था। उसके बाद दो दिन हम घर में ही रहे। शाम को हमारे साथ वह भी सब्ज़ी लेने लोकल मार्केट गया, जहाँ हमनें गोलगप्पे खाए एवं लस्सी पी। इस अल्प समय में हम जितना कुछ उसकी पसंद का बना सकते थे, बनाकर खिलाया। उसे मम्मी के हाथों की खीर बेहद पसंद थी, मैंने बनाया, वह खाकर बोल उठा कि बिल्कुल मम्मी के हाथ वाला टेस्ट है।
अब इस उम्र में अपने परिवार एवं बच्चों की बात न हो यह तो सम्भव ही नहीं है, फिर भी टेंशन उतना नहीं था, यह सामान्य बात-चीत थी। पाँच दिन पँख लगाकर उड़ गए, उसे अफ़सोस था कि कम से कम एक सप्ताह का प्रोग्राम बनाना चाहिए था लेकिन अब रिजर्वेशन मिलना दूभर था, इसलिए अगले जाड़ों में फ़िर से आने की कोशिश करने के विचार के साथ वह अपने घर अर्थात परिवार के पास चला गया।
अगले सप्ताह हम भी तमाम खूबसूरत यादों को समेटे अपने कर्तव्यस्थल पर वापस लौट गए।
इकलौते बेटे की माँ होने के कारण मैं अक्सर सोचती हूँ कि आजकल के समयानुसार वृद्धावस्था में मैं भी इसी तरह बेटे के मायके आने की राह तकती रहूँगी औऱ अपनी व्यस्तता में हमारे लिए चार दिन का समय भी वह शायद ही निकाल सके। पिता का अहं बेटे को अपने दरवाजे पर देखना चाहेगा औऱ बेटा अपनी व्यस्तता में हमें अपने घर ही बुलाकर मिलना चाहेगा, इन सबके बीच मैं एक बेटी की चाह को अपने अंतर में दबाए व्यथित होती रहूँगी,हालांकि बहुधा देखा है कि वह भी आज के युग में दिवास्वप्न ही साबित होता है। खैर, यही जिंदगी है।