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एक भी अल्पसंख्यक का न होना पूरे मंत्रिमंडल के लिए किसी कलंक से कम नहीं

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नई दिल्ली। नरेंद्र दामोदर दास मोदी ने 30 कैबिनेट मंत्रियों समेत 72 मंत्रियों के साथ आज तीसरी बार पीएम पद की शपथ ले ली। नया मंत्रिमंडल मोदी के पिछले दो कार्यकालों से कई मामलों में भिन्न है और कुछ मामलों में इनके बीच समानता भी है। मंत्रिमंडल की असली तस्वीर तो विभागों के बंटवारे के बाद ही साफ हो पाएगी। लेकिन उससे पहले आज शपथ ग्रहण समारोह में मेहमानों की भागीदारी और मंत्रिमंडल में शामिल किए गए सदस्यों और बाहर रखे गए चेहरों के आधार पर ज़रूर कुछ बातें कही जा सकती हैं। 

गठबंधन में शामिल दूसरे दलों की ओर से जिस बड़े दबाव की बात की जा रही थी वह उतनी इस शपथ ग्रहण समारोह में नहीं दिखी। मसलन कैबिनेट के लिए शुरुआत में शपथ लेने वाले कुछ चेहरों का जिक्र किया जाए तो उनमें एचडी कुमारस्वामी ही आगे की पंक्ति के सदस्य थे। और जेडीयू के राजीव रंजन उर्फ लल्लन सिंह कैबिनेट के सदस्य ज़रूर थे लेकिन उन्हें दूसरी कतार में स्थान दिया गया था। 

इस तरह से कहा जा सकता है कि कैबिनेट में वरिष्ठ पदों पर बीजेपी के नेताओं का ही वर्चस्व रहेगा। यह मंत्रियों के शपथ ग्रहण के पूरे क्रम में बिल्कुल साफ-साफ दिखा। पीएम मोदी के बाद राजनाथ सिंह और उनके बाद अमित शाह और फिर नितिन गडकरी और इस तरह से लगातार बीजेपी नेताओं के राष्ट्रपति के सामने आने का सिलसिला जारी था। इस क्रम को एचडी कुमारस्वामी ने तोड़ा जब उन्होंने अंग्रेजी में शपथ लिया। दक्षिण के ज्यादातर नेताओं ने अपने शपथ की भाषा अंग्रेजी ही रखी। वह एस जयशंकर हों कि निर्मला सीतारमन। जी कृष्ण रेड्डी इसमें एक अपवाद रहे जिन्होंने हिंदी में शपथ लिया। 

शामिल किए गए नये चेहरों में मनोहर लाल खट्टर, शिवराज सिंह चौहान, सीआर पाटिल जैसे कई कद्दावर नेता थे। इनमें खट्टर और चौहान तो मुख्यमंत्री ही रहे हैं। और शिवराज ने तकरीबन 8 लाख वोटों की मार्जिन से जीतकर एक बार फिर अपनी लोकप्रियता साबित कर दी है। लेकिन पूर्व मुख्यमंत्रियों की इस श्रेणी में उत्तराखंड में हरिद्वार से जीत कर आए त्रिवेंद्र सिंह रावत का नाम न होना लोगों को ज़रूर चौंकाया। इंद्रजीत सिंह को इस बार भी प्रमोशन नहीं मिला और उन्हें राज्य मंत्री के स्वतंत्र प्रभार से ही संतोष करना पड़ा। जबकि वरिष्ठता के मामले में शायद ही वह किसी से कम हों। आज से 15 साल पहले बनी मनमोहन सिंह सरकार तक के मंत्रिमंडल में वह शामिल थे। 

सहयोगी दलों को भी बहुत ज्यादा मोदी खुश नहीं कर पाए। सबसे बड़े घटक दल चंद्रबाबू नायडू के टीडीपी को केवल एक कैबिनेट से संतोष करना पड़ा है। और यही हाल जेडीयू का भी रहा है। लल्लन सिंह उसके कैबिनेट मंत्री बने हैं। दूसरे घटक दलों की स्थिति तो और भी बुरी रही है। अनुप्रिया पटेल का इस बार भी प्रमोशन नहीं हुआ और उन्हें राज्यमंत्री के दर्जे से ही संतोष करना पड़ा है। हां इसमें जीतन राम माझी को ज़रूर अपने कद का फायदा मिला है। और उन्हें कैबिनेट मंत्री का दर्जा मिला है। एलजेपी (राम विलास पासवान) के कोटे में कैबिनेट मंत्री की कुर्सी चिराग पासवान के हाथ लगी है। लेकिन सबसे बुरी स्थिति रालोद और एनसीपी की रही है। 

दो सांसद जीतने के बाद भी रालोद नेता जयंत चौधरी को महज स्वतंत्र राज्यमंत्री का ही दर्जा मिला है। एनसीपी की तो इससे भी बुरी स्थिति रही। उसको पीएम मोदी की ओर से स्वतंत्र प्रभार वाले राज्यमंत्री का एक पद मिल रहा था लेकिन पार्टी ने यह कहकर खारिज कर दिया कि प्रफुल्ल पटेल पहले कैबिनेट मंत्री रह चुके हैं इसलिए वह अपना डिमोशन नहीं स्वीकार कर सकते हैं। इस तरह से अंतरविरोधों का भी पिटारा खुल गया है। हालांकि पार्टी ने कहा है कि वह अगले विस्तार का इंतजार करेगी।

पीएम मोदी ने अपनी पार्टी के कई पुराने नेताओं को इस बार मंत्रिमंडल से ड्राप कर दिया। इसमें चुनाव हारने वाली स्मृति ईरानी से लेकर राजीव चंद्रशेखर, अनुराग ठाकुर और पुरुषोत्तम रूपाला समेत कई कद्दावर नेता शामिल हैं। ईरानी और चंद्रशेखर के मामले में ऐसा नहीं कहा जा सकता है कि ऐसा इसलिए हुआ क्योंकि दोनों चुनाव हार गए थे। क्योंकि रवनीत सिंह बिट्टू समेत कई हारने वाले नेताओं को भी मंत्रिमंडल में स्थान मिला है। हालांकि ईरानी, रुपाला और ठाकुर कई कारणों से विवादास्पद शख्सियत रहे हैं। शायद पीएम मोदी इनके रहते किसी नये विवाद में नहीं फंसना चाह रहे हों। दर्शकों की अगली कतार में बैठी ईरानी के चेहरे पर मंत्रिमंडल में न शामिल हो पाने की पीड़ा बिल्कुल साफ देखी जा सकती थी।

प्रतिनिधित्व के मोर्चे पर भी बहुत अच्छा संतुलन नहीं दिखा। मसलन महिलाओं की संख्या बहुत कम है। 

एक भी अल्पसंख्यक का न होना पूरे मंत्रिमंडल के लिए किसी कलंक से कम नहीं है। ऐसा नहीं है कि बीजेपी के पास चेहरे नहीं थे। या फिर किसी को बनाकर भविष्य में उसे राज्यसभा से लाया नहीं जा सकता था। लेकिन लगता है कि पिछले दो मंत्रिमंडलों की तरह  पीएम मोदी इस बार भी अपनी पुरानी अल्पसंख्यकविहीन मंत्रिमंडल की परंपरा को बनाए रखना चाहते थे। और उसके जरिये यह संदेश देना चाहते हों कि भले ही गठबंधन की सरकार बनायी है लेकिन हिंदुत्व का एजेंडा उन्होंने नहीं छोड़ा है। शपथ ग्रहण में मौजूद साधु-संतों की फौज भी कुछ इसी तरफ इशारा कर रही थी। 

बदले की भावना वैसे भी मोदी जी के व्यक्तित्व का एक अहम हिस्सा रहा है। और कहा जाता है कि वह किसी से अपना हिसाब करने से नहीं चूकते हैं। अपने इसी सिद्धांत के तहत उन्होंने अबकी बार उत्तर प्रदेश को कम सीटें देने की सजा दी है। कैबिनेट मंत्री की संख्या यहां से केवल एक है। बाकी थोक भाव में राज्यमंत्री हैं। जिनकी तादाद 9 बतायी जा रही है। रविशंकर प्रसाद और राजीव प्रताप रूड़ी जो पहले भी मोदी मंत्रिमंडल के सदस्य रह चुके हैं लेकिन बीच में उन्हें हटा दिया गया था। इस बार चुनाव जीतने के बाद भी मंत्रिमंडल में स्थान नहीं पा सके। दोनों नेता बेहद सीनियर हैं और वाजपेयी सरकार तक में मंत्री रह चुके हैं लेकिन मोदी मंत्रिमंडल में अपना स्थान न पाना उनके लिए किसी अपमान से कम नहीं है। अगली कतार में बैठे रविशंकर के चेहरे पर वह देखा भी जा सकता था।

शपथ ग्रहण में मौजूद विदेशी मेहमानों में पड़ोसी देशों के राष्ट्राध्यक्षों की मौजूदगी इस बात की तरफ इशारा कर रही थी कि मोदी-3.0 कार्यकाल में देश का पड़ोसी देशों के साथ रिश्तों पर काफी जोर रहेगा। इसको गठबंधन सरकार का असर कहा जाए या फिर उसका नतीजा लेकिन पड़ोसी देशों के साथ रिश्तों के मामले में यह शुभ संकेत है। शपथ ग्रहण के बाद मंच पर विदेशी मेहमानों के साथ राष्ट्रपति और प्रधानमंत्री का फोटो सेशन का फैसला उनकी इज्जत में चार चांद लगाने वाला था।

विपक्षी नेताओं में ज्यादातर लोग मौजूद नहीं थे। लोगों को न्योता नहीं गया या फिर उन्होंने समारोह का बहिष्कार किया इसका पूरा लेखा-जोखा बाद में ही पता चलेगा। हालांकि टीएमसी ने पहले ही समारोह के बहिष्कार की घोषणा कर रखी थी। कांग्रेस की तरफ से उसके राष्ट्रीय अध्यक्ष मल्लिकार्जुन खड़गे जरूर दिखे। 

दर्शक दीर्घा में बॉलीवुड के सुपर स्टार शाहरूख खान की मौजूदगी बेहद उल्लेखनीय थी। फिल्म जगत से अक्षय कुमार और रवीना टंडन समेत कुछ और सितारे भी मौजूद थे। इसके अलावा कारपोरेट जमात से अडानी और अंबानी अपने परिवारों के साथ मौजूद थे

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