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*कहानी : मवाली*

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       (अप्रासंगिक नहीं हुई मोहन राकेश की अभिव्यंजना)

          ~ पुष्पा गुप्ता 

उस लड़के का परिचय केवल इतना ही है कि वह शाम के वक़्त चौपाटी के मैदान में जमा होनेवाली भीड़ में घूम रहा था। चौपाटी का मैदान काफ़ी खुला है, और जब समुद्र भाटे पर हो, तो और भी खुला हो जाता है। शाम के वक़्त वहाँ पर सब तरह के लोग जमा होते हैं – वे जो वहाँ तफ़रीह के लिए आते हैं, और वे जो वहाँ आनेवालों के लिए तफ़रीह का सामान प्रस्तुत करते हैं, और वे जो दूसरों को तफ़रीह करते देखकर लुत्फ़ ले लेते हैं। वहाँ धार्मिक प्रवचनों से लेकर आदम और हौवा की परम्परा के पालन तक, सभी कुछ होता है। अँधेरे और रोशनी में इतना सुन्दर समझौता और कहीं नहीं होगा जितना चौपाटी के मैदान में है।

और वह लड़का नंगे पाँव, नंगे सिर, सिर्फ़ घुटनों तक की लम्बी मैली कमीज़ पहने, वहाँ एक सिरे से दूसरे सिरे की तरफ़ चल रहा था। एक जगह एक नेता का भाषण समाप्त हुआ था, और मज़दूर शामियाना उखाड़ रहे थे। ज़मीन पर फैले शामियाने पर से गुज़रते हुए, लड़के ने रुककर चारों तरफ़ देखा, और हाथ उठाकर भाषण देने की मुद्रा से गले में कुछ अस्पष्ट आवाज़ें पैदा कीं। जब एक मज़दूर उसे हटाने के लिए उसकी तरफ़ लपका, तो वह उसे जीभ दिखाकर भाग खड़ा हुआ। भागते हुए वह एक ऐसे आदमी से टकरा गया, जो ज़मीन पर लेटकर कराहता हुआ भीख माँग रहा था। वह आदमी ऊँची आवाज़ में उसे गाली देने लगा। लड़के ने उसकी तरफ़ होंठ बिचका दिये, और एक पत्थर को पैर से ठोकर मारकर दूर उड़ा दिया। फिर उसकी नज़र मलाबार हिल की तरफ़ से आती बसों और कारों की पंक्ति पर स्थिर हो गयी। उधर देखते हुए अनायास उसके पैरों का रुख़ बदल गया और वह दूसरी दिशा में चलने लगा।

उसकी उम्र तेरह या चौदह साल की होगी। रंग साँवला था और नक्श भी ख़ास अच्छे नहीं थे। मगर उसकी आँखों में अजब बेबाकी और आवारगी थी। आँखें सड़क की तरफ़ रहने से वह एक रेत में पड़े बड़े-से पत्थर से ठोकर खा गया, जिससे उसका घुटना थोड़ा छिल गया। उसने छिले हुए घुटने पर थोड़ी रेत डाल ली, और थोड़ी-सी रेत अपनी हथेली पर लेकर उसे फूँक से उड़ा दिया।

पचास गज़ दूर से समुद्र की उमड़ती लहरों का शब्द सुनाई दे रहा था। वह कुछ देर लहरों को किनारे की तरफ़ आते, और एक फ़ेनिल लकीर छोड़कर वापस जाते देखता रहा। हर लहर के बाद दूसरी लहर और आगे तक बढ़ आती थी। पच्छिमी क्षितिज के पास बादलों के दो लम्बे सुरमई टुकड़े, समुद्र से निकले बड़े-बड़े मगरमच्छों की तरह, एक-दूसरे से उलझे हुए थे। लड़का उन मगरमच्छों को एक-दूसरे में विलीन होते देखता रहा। फिर वह बैठकर रेत में से सीपियाँ बटोरने लगा। केकड़े और उसी तरह के दूसरे जन्तु उछलते हुए समुद्र की तरफ़ से आते थे और पास से निकल जाते। लड़का टूटी हुई सीपियों को दूर फेंक देता, और साबुत सीपियों में से जो उसे ख़ूबसूरत लगतीं, उन्हें कमीज़ से साफ़ करके जेब में डाल लेता। अँधेरा धीरे-धीरे गहरा हो रहा था, इसलिए सीपियाँ ढूँढ़ना कठिन हो रहा था। लड़का एक बड़ी-सी सुन्दर सीपी को, जो एक ओर से टूटी हुई थी, हाथ में लेकर अनिश्चित दृष्टि से देखता रहा कि उसे जेब में रख लेना चाहिए या नहीं? पर उसकी आँख ने टूटी हुई सीपी को स्वीकार नहीं किया। उसने उसे वहीं रेत में रख दिया और उठ खड़ा हुआ। उसकी आँखें कई पल गरजती हुई लहरों पर टिकी रहीं, फिर उधर को मुड़ गयीं जिधर चौराहे की बत्ती का रंग लाल से पीला और पीले से हरा हो रहा था, और लाल रंग की बसें घरघराती हुई एक-दूसरी के पीछे दौड़ रही थीं।

एक बच्चा अपनी माँ की उँगली पकड़े नाचता हुआ आ रहा था। यह उसकी तरफ़ देखकर मुस्कराया। एक गुब्बारेवाले के पास से निकलते हुए उसने उसके गुब्बारों को छेड़ दिया। गुब्बारेवाले ने घूरकर ग़ुस्से से उसे देखा, तो उसने उसकी तरफ़ मुँह करके ज़ोर की सीटी बजाई और हाथ से जेब में भरी हुई सीपियों का वज़न और फैलाव महसूस करता हुआ, तेज़-तेज़ चलने लगा।

सड़क के उस पार, चरनी रोड स्टेशन पर, एक लोकल गाड़ी मैरीन लाइंज़ से आकर रुकी थी, जो सीटी देकर अब ग्राण्ट रोड की तरफ़ चल दी। कुछ ही देर में गाड़ी से उतरे हुए लोगों की भीड़ चरनी रोड के पुल पर आ गयी। भर्इया लोग दूध बेचकर ख़ाली पीपे लिये आ रहे थे। कुछ घाटी युवतियाँ एक-दूसरे को छेड़ती हुई पुल की सीढ़ियाँ उतर रही थीं। लड़के की आँखें काफ़ी देर पुल के उस हिस्से पर लगी रहीं, जहाँ से हर पल नये-नये चेहरे प्रकट होकर पास आने लगते थे, और कुछ ही देर में सीढि़यों से उतरकर अदृश्य हो जाते थे।

“खिप्‌खिप्‌खिर्‌र्‌र्‌,” लड़के ने मुँह में दो उँगलियाँ डालकर आवाज़ पैदा की और मुस्कराकर चारों तरफ़ देखा कि लोगों पर उस आवाज़ की क्या प्रतिक्रिया हुई है। यह देखकर कि उसकी आवाज़ की तरफ़ किसी का ध्यान नहीं गया, उसने बाँहें फैला लीं और तनकर चलने लगा। काले पत्थरे के बुत के पास पहुँचकर उसने उसकी दो परिक्रमाएँ लीं, और भागता हुआ वहाँ पहुँच गया जहाँ एक परिवार के छ:-सात लोगों में एक गेंद को ऊँची से ऊँची उछालने की प्रतियोगिता चल रही थी। वह अपने रूखे बालों को खुजलाता और बीच-बीच में बायीं पिण्डली को दायें पैर से मलता हुआ, उनका खेल देखने लगा। एक पन्द्रह-सोलह साल की लड़की, जिसने अपना नीला दोपट्‌टा कसकर कमर से लपेट रखा था, गेंद के साथ ऊपर को उछलती, तो लड़के की एडि़याँ भी ज़मीन से तीन-चार इंच ऊपर उठ जातीं।

“ए लड़के!” किसी ने पास से उसे आवाज़ दी।

उसने घूमकर देखा। एक पारसी अपने सोये हुए बच्चे को कन्धे से लगाये खड़ा था और उसे हाथ के इशारे से बुला रहा था। उसने होंठ गोल करके एक बार पारसी की तरफ़ देख लिया, फिर खेल देखने में व्यस्त हो गया।

“ए लड़के, इधर आ,” पारसी ने फिर आवाज़ दी, “इस बच्चे को उठाकर सीतल बाग़ तक ले चल। एक आना मिलेगा।”

“ख़ाली नहीं है,” लड़के ने सिर और हाथ हिलाकर मना कर दिया।

“साले का दिमाग़ तो देखो,” पारसी बड़बड़ाया, “ख़ाली नहीं है।… चल, आ इधर, दो आना मिलेगा।”

“ख़ाली नहीं है,” लड़के ने और भी बेरुखी के साथ कहा, और जेब से एक सीपी निकालकर उसे हवा में उछाला और दबोच लिया।

“साला बदमाश है,” पारसी ने अपनी पत्नी से, जो गरदन एक तरफ़ को झुकाये ढीले-ढाले ढंग से खड़ी थी, कहा। फिर बच्चे को उठाये वह सड़क की तरफ़ चल दिया।

गेंद उछालने की प्रतियोगिता समाप्त हो गयी थी। वह लड़की अब अकेली ही बाँह घुमा-घुमाकर गेंद को पीछे की तरफ़ उछाल रही थी। एक बार बाँह घुमाने में गेंद ज़्यादा घूम गयी और तेज़ी से समुद्र की तरफ़ बढ़ चली। लड़की के मुँह से हल्की-सी ‘ओह’ निकली। तभी वह लड़का तेज़ी से गेंद के पीछे भाग खड़ा हुआ। इससे पहले कि गेंद सामने से आती लहर की लपट में चली जाती, उसने टखने-टखने पानी में जाकर उसे पकड़ लिया – हालाँकि अँधेरा इतना हो चुका था कि गेंद और पत्थर में फ़र्क़ कर पाना मुश्किल था। लड़का गीली गेंद को ज़रा-ज़रा उछालता हुआ, उन लोगों के पास ले आया।

“बड़ी तेज़ आँख है तेरी!” भारी गरदन वाले अधेड़ व्यक्ति ने, जो उस परिवार का पिता था, गेंद उसके हाथ से लेते हुए गिलगिली हँसी के साथ कहा।

“किस तरह चिमगादड़ की तरह लपका था!” नीले दोपट्‌टे वाली लड़की बोली। इन बातों के उत्तर में लड़के के गले से सिर्फ़ ख़ुश्क-सी हँसी का स्वर सुनाई दिया।

“चल, हमारा सामान उठाकर ले चल,” सूखी हड्डियों वाली स्त्री, जो शायद उस लड़की की माँ थी, अहसान जताती हुई बोली।

“चलेगा?” पुरुष ने उसे ख़ामोश देखकर झिड़कने के स्वर में पूछ लिया।

“चलेगा,” लड़के ने उत्तर दिया।

“तो यह दरी तह कर ले और बाक़ी सामान समेटकर टोकरी में रख ले,” उस व्यक्ति ने दरी पर रखी प्लेटों और चम्मचों की तरफ़ इशारा किया।

लड़के ने एक झिझक के साथ बिखरे हुए सामान को देखा, एक निगाह लड़की पर डाली, और झुककर वे चीज़ें इकट्‌ठी करने लगा।

“सब चीज़ें ठीक से रख, और जा, पहले प्लेटें और चम्मच धो ला,” स्त्री ने उसे आदेश दिया।

उसने जूठी प्लेटें और चम्मच इकट्‌ठी कीं और समुद्र की तरफ़ चला गया। वहाँ उसने उन सबको रेत से मलकर साफ़ किया और अच्छी तरह अपनी कमीज़ से पोंछ लिया। एक प्लेट लौटती लहर के साथ बह चली, तो उसने झपटकर उसे पकड़ लिया, और फिर से साफ़ करने लगा। जब उसे तसल्ली हो गयी कि सब चीज़ें ठीक से चमक गयी हैं, तो वह सीटी बजाता हुआ उन्हें उन लोगों के पास ले आया।

“इतनी देर क्या करता रहा वहाँ?” स्त्री ने आते ही उसे झिड़क दिया, “हम लोग रात तक यहीं बैठे रहेंगे क्या? अब जल्दी कर!”

वह बैठकर प्लेटों को टोकरी में रखने लगा। स्त्री बिलकुल उसके पास आकर खड़ी हो गयी, और बोली, “सब चीज़ें गिनकर रखना। प्लेटें पूरी छ: हैं न?”

लड़के ने प्लेटें गिनीं और सिर हिलाया।

“और चम्मच?” स्त्री झुककर देखती हुई बोली, “चम्मच तो मुझे पाँच नज़र आ रही हैं।”

लड़के ने उन्हें गिना और कहा, “हाँ, चम्मच पाँच ही हैं।”

“पाँच कैसे हैं?” स्त्री कुछ सख़्त स्वर में बोली, “पूरी छ: हैं। एक चम्मच कहाँ छोड़ आया है?”

“छोड़ कहाँ आया होगा, जेब में रख ली होगी। इसकी जेब में देखो,” पुरुष ने पास आते हुए कहा।

लड़के का हाथ सहसा अपनी जेब पर चला गया, और सीपियों के फैलाव को छूकर, उनके बचाव के लिए वहीं रुका रहा।

“निकाल चम्मच, जेब पर हाथ क्यों रखे हुए है?” पुरुष ने उसे डाँटा। लड़का सहमा-सा टोकरी के पास से उठकर दो क़दम पीछे हट गया।

“मैंने चम्मच नहीं ली,” उसने कमज़ोर आवाज़ में कहा, “मुझे नहीं पता वह चम्मच कहाँ है।”

“तुझे नहीं तो तेरे बाप को पता है?” कहते हुए उस व्यक्ति ने लड़के को बालों से पकड़ लिया और उसके मुँह पर एक तमाचा जड़ दिया।

“दे दे चम्मच, तुझसे कुछ भी नहीं कहेंगे,” स्त्री ने जैसे उस पर तरस खाकर कहा।

“मेरे पास चम्मच नहीं है,” लड़का उसी स्वर में बोला, “मेरी जेब में मेरी अपनी चीज़ें हैं।”

“तेरी अपनी चीज़ें हैं!” पुरुष बड़बड़ाया। अभी देखता हूँ तेरी कौन-सी अपनी चीज़ें हैं! और उसके लड़के के बालों को अच्छी तरह झिंझोड़कर उसका जेब पर रखा हाथ अपने मोटे हाथ में कस लिया। उस हाथ के दबाव से लड़के ने महसूस किया कि उसकी जेब में सीपियाँ टूट रही हैं। उसे जैसे उन सब सीपियों के चेहरे याद थे, और उसका हाथ पहचान रहा था कि उनमें कौन-कौन-सी सीपी टूट रही है। उसने झटके से पुरुष के हाथ से अपना हाथ छुड़ाने की कोशिश की। मगर हाथ तो क्या छूट पाता, पुरुष ने गर्दन को और दबोच लिया।

“साले, भागना चाहता है?” पुरुष होंठ चबाता हुआ बोला, “देखो, मैं कैसे अभी तेरी गत बनाता हूँ! हटा हाथ!”

लड़के का हाथ उस मोटे हाथ के शिकंजे में निर्जीव-सा होकर हट गया। पुरुष ने उसकी जेब को बाहर से दबाया, जिससे कितनी ही सीपियाँ टूट गयीं।

“है चम्मच।” उसने स्त्री की तरफ़ देखकर कहा, “हरामी ने जाने जेब में और क्या-क्या चीज़ें भर रखी हैं!”

“चोर कहीं का!” लड़की अपने छोटे भाइयों को लेकर अलग खड़ी थी, बोली।

लड़के का संघर्ष समाप्त हो गया था। पुरुष ने उसकी जेब में हाथ डालकर जेब की सब चीज़ें बाहर निकाल लीं। अधिकांश टूटी हुई सीपियाँ ही थीं। उनके अलावा और जो माल बरामद हुआ, वह था एक ताँबे का तावीज़, एक आधा खाया हुआ अमरूद, कुछ कौडि़याँ और एक पैसा…।

“नहीं निकली?” स्त्री ने सब चीज़ों पर नज़र डालकर पूछा।

“नहीं,” पुरुष खिसियाने स्वर में बोला, “जाने सूअर का बच्चा कहाँ छिपा आया है!”

“उधर धोने ले गया था, वहीं कहीं रख आया होगा।” लड़की दूर से बोली।

“ज़रा-सी उम्र में साले सब कुछ सीख जाते हैं!” पुरुष ने लड़के की चीज़ें ग़ुस्से में दूर फेंकते हुए कहा, “जा, ले जा अपनी चीज़ें माँ के पास।”

अँधेरे में ताँबे की चमक कुछ दूर तक दिखाई दी, फिर पता नहीं क्या कहाँ जा गिरा। सीपियाँ हल्की थीं, इसलिए वे अधिक दूर नहीं गयीं।

लड़का तेज़ी से उस तरफ़ भागा जिधर उसकी चीज़ें फेंकी गयी थीं। वह अँधेरे में आँखें गड़ा-गड़ाकर देखने लगा। लोगों के फेंके हुए जूठे दोने, ख़ाली नारियल और बहुत-सी मसली हुई थैलियाँ जहाँ-तहाँ पड़ी थीं। एक चमकती चीज़ को देखकर वह उसे उठाने के लिए झुका। वह सिगरेट का बरक था। एक जगह एक पत्थर को देखकर भी उसे तावीज़ का भ्रम हुआ। उसे उठाकर उसने ज़ोर से वापस पटक दिया। फिर वह थैलियों और पत्तों को पैरों से दबा-दबाकर टटोलने लगा। दो-एक ख़ाली नारियलों को भी उसने झटककर देखा। काफ़ी देर देखने पर भी कुछ नहीं मिला, तो वह सीधा खड़ा हो गया। वह पुरुष समुद्र के पास होकर वापस आ रहा था। लड़का तेज़ी से उसकी तरफ़ लपका।

“मेरा टिक्का दो!” उसने पुरुष के पास पहुँचकर ग़ुस्से के साथ कहा।

“हट!” पुरुष उसे बाँह से धकेलकर आगे बढ़ गया।

लड़के ने पीछे से उसकी बाँह पकड़ ली। बोला, “पहले मेरा टिक्का दो। मैं तुम्हें ऐसे नहीं जाने दूँगा।”

“हट जा, नहीं तेरा सिर फोड़ दूँगा,” पुरुष बाँह छुड़ाने की चेष्टा करने लगा। “भैन…मवालीगीरी करता है?”

“बहन की गाली मत दो!” लड़के का स्वर बहुत तीखा हो गया।

“कह रहा हूँ हट जा, नहीं तो…” पुरुष ने उससे बाँह छुड़ाकर उसे धक्का दे दिया। लड़के ने गिरते-गिरते किसी तरह अपने को सँभाल लिया और झपटकर उसकी बाँह में दाँत गड़ा दिये। इससे वह पुरुष एक बार तड़प गया। फिर लड़के को ज़मीन पर गिराकर वह उसे जूते से ठोकरें लगाने लगा। उसकी स्त्री और बच्चे पास आ गये। आसपास और भी कई लोग जमा हो गये। लड़का चिल्ला रहा था, “मार दे। मेरी जान ले ले, लेकिन मैं अपना टिक्का लिये बिना नहीं छोड़ूँगा। तू मार, और मार…।”

तीन-चार व्यक्तियों के रोकने पर वह व्यक्ति मारने से हटा। उसकी पत्नी लोगों को सुनाकर कहने लगी, “इतना-सा है, मगर है पक्का चोर। हमने इसे सामान उठाने के लिए तय किया और सामान टोकरी में रखने को कहा। पर हमारे देखते-देखते ही इसने एक चम्मच ग़ायब कर दी। पूछा, तो भाग खड़ा हुआ। अब उनकी बाँह पर दाँत काट रहा था। दुनिया में ऐसे-ऐसे नालायक भी होते हैं!”

और वह व्यक्ति रोकने वालों से कह रहा था, “मैंने तो इसे कुछ ठोकरें ही लगायी हैं। ऐसे हरामी को तो गोली से उड़ा देना चाहिए। साले एक तो चोरी करते हैं, ऊपर से मवालीगीरी करके दिखाते हैं।”

लड़का रो रहा था। दो व्यक्तियों की पकड़ में छटपटाता हुआ कह रहा था, “मेरा टिक्का मेरी माँ ने मुझे दिया था। मेरी माँ मर चुकी है। अब मुझे वह टिक्का कहाँ से मिलेगा? मैं इससे अपना टिक्का लेकर रहूँगा। या यह मेरी जान ले ले, या मैं इसकी जान ले लूँगा।” और वह पकड़ से छूटने के लिए और भी संघर्ष करने लगा।

उधर वह व्यक्ति कह रहा था, “मैं कहता हूँ इसे हवालात में दे देना चाहिए। इसकी तलाशी ली, तो इसकी जेब से ताँबे का एक तावीज़-सा निकला। यह भी साले ने किसी का उठाया होगा। अब भी वह यहीं-कहीं पड़ा है, पर उसके बहाने यह ख़ून करने पर उतारू हो रहा है।”

“छोडि़ए भाई साहब,” कोई उसे समझाता हुआ बोला, “आप शरीफ़ आदमी हैं। आप क्यों इसे मुँह लगाते हैं? चोरी करना और जेब काटना तो इन लोगों का धन्धा ही है। आपके साथ बाल-बच्चे हैं, आप चलिए यहाँ से।”

पास से गुज़रते हुए व्यक्ति ने दूसरे से पूछा, “क्या बात हुई है यहाँ?”

“पता नहीं,” उसे उत्तर मिला, “एक लड़के ने कुछ चोरी-ओरी की है। उसी के लिए उसे मार-आर पड़ रही है।”

“बम्बई में इन लोगों के मारे नाक में दम है।” उस व्यक्ति ने कहा।

“चौपाटी तो इन लोगों का ख़ास अड्डा है!” दूसरे ने समर्थन किया।

“देखो कैसे गालियाँ बक रहा है!”

“बकने दीजिए। आप क्यों अपना वक़्त ख़राब करते हैं?”

वह व्यक्ति दूसरों के कहने-कहाने से स्त्री और बच्चों को साथ लेकर वहाँ से चल दिया। चलते हुए वह दूसरों को समझाने लगा कि ऐसे लड़कों के साथ सख्ती का बर्ताव करना क्यों ज़रूरी है। दो व्यक्ति अब भी लड़के को पकड़े हुए थे और वह उनके हाथ से छूटने की चेष्टा करता हुआ सबको गालियाँ दे रहा था। लोग उसे खींचते हुए दूसरी तरफ़ ले गये। जब उसे छोड़ा गया, तो वह थोड़ी दूर जाकर और ज़ोर से गालियाँ देने लगा। फिर वह सिसकियाँ भरता हुआ रेत पर औंधा पड़ गया।

चौपाटी के अँधेरे भागों में अँधेरा पहले से गहरा हो गया था। मैदान में टहलने वाले लोगों की संख्या बहुत कम हो गयी थी। कहीं-कहीं कोई इक्का-दुक्का आदमी ही नज़र आता था। दूर कोने में एक आदमी एक लड़की की कमर में बाँह डाले बेंच पर बैठा उसे चूम रहा था। धीरे-धीरे समुद्र की लहरों और किनारे की बेंचों के बीच का फ़ासला कम हो रहा था। ‘स्पाश्शी’ की आवाज़ के साथ हर लहर दूसरी लहर से आगे बढ़ आती थी। दूर क्षितिज के पास मछुआ-नावों की बत्तियाँ टिमटिमा रही थीं। टिट्‌टिट्‌टिट्‌…टिट्‌टिट्‌टिट्‌…टिट्‌टिट्‌टिट्‌! वातावरण में तरह-तरह की आवाज़ें फैली थीं। अरब सागर की हवा ‘हुआँ-हुआँ’ करती सामने की इमारतों से टकरा रही थी।

काफ़ी देर पड़े रहने के बाद लड़का रेत से उठ खड़ा हुआ, और आँखों से ज़मीन को टटोलता घिसटते पैरों से चलने लगा। सहसा उसका पैर एक नारियल पर से उलटा हो गया। उसने नारियल को कसकर गाली दी और ज़ोर की एक ठोकर लगायी। नारियल लुढक़ता हुआ समुद्र की लहरों की तरफ़ चला गया। उसने पास जाकर उसे दूसरी ठोकर लगायी। नारियल सामने से आती लहर में खो गया। उस लहर के लौटते-लौटते उसे नारियल फिर दिखाई दे गया। एक और लहर उमड़ती आ रही थी। इसलिए पास न जाकर उसने वहीं से एक पत्थर नारियल को मारा, और साथ भरपूर गाली दी, “तेरी माँ को…”

     और फिर वह सामने से आती हर लहर को ज़ोर-ज़ोर से पत्थर मारने लगा, “तेरी माँ को…तेरी बहन को…।

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