अग्नि आलोक
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*कहानी : रोमांस*

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          पुष्पा गुप्ता 

पूर्व कथन :  यह कहानी रसियन साहित्यकार अन्तोन चेख़व की रचना का भाषिक रूपांतर है. विश्व साहित्य पर उनका प्रभाव आज भी महसूस किया जाता है।

    चेख़व के आगमन से साहित्य तथा नाट्य कला में एक नयी धारा ने जन्म लिया जो कथ्य को परोक्ष रूप में प्रस्तुत करती है। यह पात्र के चरित्र को और अधिक गूढ़ बनाने तथा उसके अत्यन्त लाक्षणिक मूल्यांकन का एक साधन है। चेख़व के जीवन की अन्तर्धारा बेहद व्यापक है। वह असाधारण रूप से नियमनिष्ठ तथा कड़े और संयत कलाकार थे – एक शब्द को जन्म देने नहीं, बल्कि उल्टे अगर कोई शब्द अनावश्यक हो तो उसे मिटा देने की कोशिश करते थे। उसके बाद जो कुछ सामने आता था, वह ख़ूब मंजा हुआ, तराशा हुआ होता था। उनके शब्दों के चुस्त तथा गठे हुए वाक्यों की हर पंक्ति पुराने सितारों की तरह मनों भारी होती हैं। उनकी विधि से मुझे सर्जरी के विशेष लैम्प की याद आती है जो आत्मा के इस कुशलतम सर्जन की आपरेशन की मेज पर रखा हुआ है: उसके प्रकाश में हर चीज़ साफ़-साफ़ दिखायी देती है, और कोई भी तफसील आदमी का ध्यान नहीं हटाती है। परन्तु बर्फ की तरह सफ़ेद इस परत के नीचे छिपी हुई लेखक की अन्तर्धाराएँ भी अत्यन्त व्यापक हैं। 

      चेख़व ने सुन्दर जीवन को इस धरती पर ले आना चाहा था, उस जीवन को जिसमें न्याय हो और गरीबी न हो और जिसमें श्रम ही अस्तित्व का आधार हो वह जानते थे कि इस सुन्दरता की कीमत बहुत भारी है परन्तु उन्हें पूर्ण विश्वास था कि उसकी जनता में इतनी बौद्धिक शक्ति है कि वह यह कीमत चुका सकती है।

_________________________

             1

चर्चा थी कि सागर तटबंध पर एक नया चेहरा नजर आ रहा है – कोई कुत्ते वाली महिला है। द्मीत्री द्मीत्रिच गूरोव के लिए याल्टा में हर चीज़ जानी-पहचानी सी हो गयी थी, उसे यहाँ आये दो हफ्ते हो चले थे, और अब वह भी नये आने वालों में दिलचस्पी लेने लगा था। वेर्ने के मण्डप में बैठे हुए उसने तटबंध पर मंझले कद की, हल्के सुनहरे बालों वाली एक महिला को घूमते देखा। वह बेरेट पहने थी, और उसके पीछे-पीछे पोमेरानियन नस्ल का छोटा-सा सफ़ेद कुत्ता दौड़ रहा था।

और फिर वह दिन में कई बार पार्क में और बगीचे में उसे दिखायी दी। वह अकेली ही घूमती होती – वही बेरेट पहने और उसी सफ़ेद कुत्ते के साथ। कोई नहीं जानता था कि वह कौन है, सो सब उसे बस कुत्ते वाली महिला ही कहते थे।

उसे देखकर गूरोव सोचता, “अगर इसका पति या कोई परिचित इसके साथ नहीं है, तो इससे जान-पहचान कर लेना बुरा नहीं होगा।”

वह अभी चालीस का भी नहीं हुआ था, पर उसके एक बारह साल की बेटी थी और दो बेटे हाई स्कूल में पढ़ रहे थे। उसकी शादी जल्दी ही कर दी गयी थी, जब वह विश्वविद्यालय में द्वितीय वर्ष का छात्र था, और अब उसकी पत्नी उससे ड्योढ़ी उम्र की लगती थी। वह रोबीली स्त्री थी – ऊँचा-कद,सीधी देह, भौंहें काली-सी; और वह स्वयं को चिंतनशील व्यक्ति कहती थी। वह बहुत पढ़ती थी, लिपि में रूढ़ियों का पालन नहीं करती थी, पर पति को द्मीत्री नहीं, बल्कि प्राचीन उच्चारण के नियमों के अनुसार दिमीत्री कहती थी। गूरोव मन ही मन उसे अदूरदर्शी, संकीर्णमना, अनाकर्षक मानता था, उससे डरता था और इसलिए घर से बाहर रहना ही उसे ज़्यादा अच्छा लगता था। बहुत पहले से ही वह उससे बेवफाई करने लगा था और अक्सर करता था। शायद यही कारण था कि स्त्रियों के बारे में उसकी राय प्रायः सदा ही ख़राब होती थी, और जब उसके सामने उनकी चर्चा चलती तो वह उन्हें “घटिया नस्ल!” ही कहता था।

उसे लगता था कि उसे इतने कटु अनुभव हो चुके हैं कि वह अब स्त्रियों को जो चाहे कह सकता है। लेकिन इस “घटिया नस्ल” के बिना दो दिन भी जीना उसके लिए मुश्किल था। पुरुषों का साथ उसे नीरस लगता था, वह अजीब-सा महसूस करता था, उनसे वह ज़्यादा बातें नहीं करता था और उसका व्यवहार बड़ा औपचारिक-सा होता था। पर स्त्रियों के बीच वह किसी तरह का संकोच नहीं अनुभव करता था, सदा बातचीत का विषय ढूँढ़ लेता था और उसका व्यवहार सहज-स्वाभाविक होता था; उनके साथ चुप रहना भी उसे आसान लगता था। उसके रूप-रंग में, उसके स्वभाव में, सारे चरित्र में ही कोई अनबूझ सम्मोहन था, जिससे स्त्रियाँ सहज ही उसकी ओर आकर्षित हो जाती थीं। उसे इस बात का आभास था, और स्वयं उसे भी कोई शक्ति उनकी ओर खींचे लिये जाती थी।

बारम्बार के सचमुच ही कटु अनुभवों से वह कब का यह समझ चुका था कि किसी भी स्त्री के साथ घनिष्ठता, जो आरम्भ में जीवन में एक सुखद विविधता लाती है और एक प्यारा-सा, हल्का-फुल्का रोमांस ही लगती है, भद्र लोगों के लिए, विशेषतः मास्कोवासियों के लिए, जो स्वभाव से ही मंथर और अनिश्चयी होते हैं, बड़ी मुश्किल समस्या बन जाती है, और अन्ततः स्थिति असह्य हो जाती है। लेकिन हर बार किसी रोचक स्त्री से भेंट होने पर पुराने अनुभव की यह कटुता जाने कहाँ खो जाती थी, और जीवन का आनन्द लेने को जी करता था, सब कुछ इतना सरल और मजेदार लगता था।

और एक दिन जब वह पार्क में खाना खा रहा था, बेरेट पहने वह महिला धीरे-धीरे आकर बगल वाली मेज के पास बैठ गयी। उसके चेहरे के हाव-भाव, उसकी चाल, उसकी पोशाक और केश विन्यास से गूरोव समझ गया कि वह सम्भ्रान्त कुल की है, विवाहिता है, याल्टा में पहली बार आयी है, कि वह अकेली है और यहाँ उसका मन नहीं लग रहा है…याल्टा जैसी जगहों में बिगड़े चाल-चलन के जो किस्से सुनने में आते हैं, उनमें बहुत कुछ झूठ होता है। गूरोव उन्हें ओछी बातें समझता था और जानता था कि ऐसे किस्से ज़्यादातर वही लोग गढ़ते हैं, जो ख़ुशी से पाप करते, बशर्ते उन्हें ऐसा करना आता। पर अब, जब वह महिला उससे तीन क़दम दूर बगल की मेज के पास आ बैठी, तो उसे सहज ही पायी जा सकने वाली विजय और पहाड़ों की सैरों के ये किस्से याद हो आये और उसके मन में एक प्रलोभन जागा, जल्दी से एक क्षणिक सम्बन्ध बना लेने का, एक अनजान स्त्री के साथ, जिसका वह नाम तक नहीं जानता, रोमांस का विचार उसके मनोमस्तिष्क पर हावी हो गया।

उसने कुत्ते को पुचकार कर बुलाया और जब वह उसके पास आ गया, तो उँगली हिलायी। कुत्ता गुर्राने लगा। गूरोव ने फिर से उँगली हिलायी।

महिला ने उसकी ओर देखा और तुरन्त ही आँखें नीची कर लीं।

“काटता नहीं है,” यह कहते हुए उसका चेहरा गुलाबी हो उठा।

“इसे हड्डी दे सकता हूँ?” और जब महिला ने “हाँ” में सिर हिलाया, तो गूरोव ने नम्रता से पूछा, “आपको याल्टा आये काफ़ी दिन हो गये?”

“पाँच दिन।”

“मैं तो दूसरा हफ्ता काट रहा हूँ”

कुछ देर तक वे चुप रहे।

“समय तो जल्दी ही बीत जाता है, पर यह जगह बड़ी उकताऊ है!” महिला ने गूरोव की ओर देखे बिना ही कहा।

“यह कहना भी एक फैशन की ही बात है कि यह जगह बड़ी उकताऊ है। किसी कस्बे-वस्बे में सारी उम्र रहते हुए तो लोग ऊबते नहीं, पर यहाँ आते ही शिकायत करने लगते हैं, ‘हाय, कितनी ऊब है!, हाय, कितनी धूल है!’ कोई सुने तो सोचे जनाब सीधे ग्रेनादा से पधारे हैं!”

वह हँस दी। फिर दोनों अपरिचितों की ही भाँति चुपचाप खाना खाते रहे, पर खाने के बाद वे साथ-साथ चल पड़े, और उनके बीच हल्की-फुल्की, हास्य-विनोद भरी बातचीत होने लगी। यह दो आजाद, सन्तुष्ट लोगों की बातचीत थी, जिनके लिए सब बराबर होता है – कहीं भी जाया जाये, कुछ भी किया जाये। वे घूम रहे थे और ये बातें कर रहे थे कि समुद्र पर कैसा विचित्र प्रकाश पड़ रहा है; जल का रंग कोमल नीला-फिरोज़ी था और चन्द्र किरणें उस पर सुनहरी चादर बिछा रही थीं। ये बातें कर रहे थे कि दिन भर की गर्मी के बाद बड़ी उमस हो रही है। गूरोव ने बताया कि वह मास्को का रहने वाला है, कि उसने भाषा और साहित्य की शिक्षा पायी थी, पर काम बैंक में करता है; कभी उसने ओपेरा में गाने की तैयारी भी की थी, पर फिर यह विचार छोड़ दिया, कि मास्को में उसके दो मकान हैं…और महिला ने गूरोव को बताया कि वह पीटर्सबर्ग में बड़ी हुई, पर विवाह उसका स- नगर में हुआ, जहाँ वह दो साल से रह रही है, कि वह और महीना भर याल्टा में रहेगी और फिर शायद उसका पति उसे लेने आयेगा – वह भी कुछ दिन आराम करना चाहता है। वह किसी भी तरह यह नहीं बता पा रही थी कि उसका पति कहाँ काम करता है – प्रदेश के सरकारी कार्यालय में या जिला कार्यालय में, और उसे स्वयं इस बात पर हँसी आ रही थी। गूरोव ने यह भी जाना कि उसका नाम आन्ना सेर्गेयेव्ना है।

होटल के अपने कमरे में लौटकर वह उसके बारे में सोचता रहा, कि कल शायद फिर उसकी भेंट होगी; ऐसा होना ही चाहिए। जब वह सोने के लिए लेटा, तो उसे ख़याल आया कि कुछ साल पहले तक वह महिला विद्यालय में ही पढ़ती थी, जैसे अब उसकी बेटी पढ़ रही है; उसे याद आया कि आन्ना सेर्गेयेव्ना की हँसी में, अपरिचित व्यक्ति के साथ बातें करने के उसके अन्दाज में अभी कितना अल्हड़ता भरा संकोच है। निश्चय ही वह जीवन में पहली बार ऐसे वातावरण में अकेली थी, जहाँ दूसरों की नजरें उस पर थीं, और मन में एक ही विचार छिपाकर पुरुष उससे बातें करते थे, और वह इस विचार को भांपे बिना नहीं रह सकती थी। गूरोव को उसकी सुकोमल गर्दन, उसकी हल्की सुरमई आँखें याद आईं।

“उसे देख कर मन में एक विचित्र दया-सी उठती है,” यह सोचते हुए वह सो गया।

2

उनकी जान-पहचान हुए एक हफ्ता बीत गया। छुट्टी का दिन था। कमरों में उमस हो रही थी, बाहर धूल के सतून उठ रहे थे, टोपियाँ उड़-उड़ जाती थीं। दिन भर प्यास सताती रही। गूरोव बार-बार मण्डप में जाता और कभी आन्ना सेर्गेयेव्ना को सोडा वाटर ले देता, कभी आइसक्रीम खाने को कहता। समझ में नहीं आता था कि कहाँ जाया जाये।

शाम को जब हवा ज़रा थम गयी, तो वे घाट पर गये स्टीमर देखने। घाट पर घूमने वालों की भीड़ थी; किसी के स्वागत के लिए लोग जमा थे, उनके हाथों में गुलदस्ते थे। और यहाँ याल्टा की सजी-धजी भीड़ की दो विशिष्टतायें साफ़ देखी जा सकती थींः अधेड़ महिलायें युवतियों जैसे वस्त्र पहने थीं और बहुत से जनरल थे।

समुद्र में ऊँची लहरें उठती रही थीं, इसलिए स्टीमर देर से आया, जब सूरज डूब चुका था, और घाट पर लगने से पहले देर तक इधर-उधर मुड़ता रहा। आन्ना सेर्गेयेव्ना आँखों के आगे लार्नेट पकड़े स्टीमर और सवारियों को देखती रही, मानो किसी परिचित को ढूँढ़ रही हो, और जब वह गूरोव से कुछ कहती, तो उसकी आँखें चमकती लगतीं। वह बहुत बोल रही थी, और उसके प्रश्न असंबद्ध थे, वह कुछ पूछती और उसी क्षण यह भूल भी जाती कि क्या पूछा है; फिर भीड़ में उससे लार्नेट खो गया।

सजी-धजी भीड़ छंट रही थी और अब लोगों के चेहरे दिखायी नहीं दे रहे थे, हवा बिल्कुल थम गयी थी। गूरोव और आन्ना सेर्गेयेव्ना यह प्रतीक्षा करते से खड़े थे कि स्टीमर से और तो कोई नहीं उतर रहा। आन्ना सेर्गेयेव्ना चुप थी, गूरोव की ओर नहीं देख रही थी, बस फूल सूंघे जा रही थी। गूरोव बोला –

“शाम को मौसम अच्छा हो गया है। अब कहाँ चलें? गाड़ी ले कर कहीं चला जाये?”

आन्ना सेर्गेयेव्ना ने कोई जवाब नहीं दिया।

तब गूरोव ने उसके चेहरे पर आँखें गड़ा दीं, सहसा उसे बांहों में भर लिया और उसके होंठों पर चुम्बन लिया, फूलों की सुगंध और नमी उसके नथुनों में भर गयी और उसने सहमी नजर इधर-उधर दौड़ायी – किसी ने देखा तो नहीं?

“चलिये, आपके यहाँ चलें…” वह हौले से बोला।

और दोनों जल्दी-जल्दी चल दिये।

आन्ना सेर्गेयेव्ना के कमरे में उमस थी, इत्र की महक आ रही थी, जो उसने जापानी दुकान में ख़रीदा था। उसकी ओर देखते हुए गूरोव अब सोच रहा था, “जीवन में कैसी-कैसी मुलाकातें होती हैं!” उसके जीवन में मृदु स्वभाव की बेफिक्र स्त्रियाँ आयी थीं, जो प्रेम से हर्षविभोर होतीं, और क्षणिक सुख पा कर भी उसका आभार मानतीं; और उसकी पत्नी जैसी स्त्रियाँ भी, जिनके प्रेम में कोई सच्चाई न थी, वे बड़बोली थीं, बहुत बनती थीं, उनका प्रेम हिस्टीरिया की तरह उठता था, और प्रेम में उनके हाव-भाव ऐसे होते थे, मानो यह प्रेम नहीं, मन की प्यास नहीं बल्कि कोई अत्यधिक महत्त्वपूर्ण चीज़ है; दो-तीन अत्यंत रूपवती स्त्रियाँ भी थीं, जिनके मन में भावनाओं का तूफान नहीं उठता था, बस कभी-कभार चेहरे पर हिंस्र भाव झलक उठता, एक ऐसी हठपूर्ण इच्छा कि जीवन जो कुछ दे सकता है उससे अधिक खसोट लें, और ये स्त्रियाँ जवानी की दहलीज लांघ चुकी थीं, नखरे भरी थीं, बुद्धिमान नहीं थीं, सोचती-विचारती नहीं थीं, पर अपना हक जमाती थीं, और गूरोव जब उनके प्रति ठण्डा पड़ जाता, तो उनका रूप उसके मन में घृणा जगाता और उनकी शमीज की लेस उसे मछली के शल्क जैसी लगती।

लेकिन यहाँ वही संकोच, अनुभवहीन यौवन की वही अनघड़ता थी और एक अजीब-सी अनुभूति थी। ऐसी सकपकाहट सी महसूस हो रही थी, मानो किसी ने सहसा दरवाज़े पर दस्तक दी हो। जो कुछ घटा था, उसपर आन्ना सेर्गेयेव्ना की, इस “कुत्ते वाली महिला” की प्रतिक्रिया विचित्र थी- अत्यंत गम्भीर, मानो यह उसका पतन ही हो; ऐसा लग रहा था और यह अजीब, बेमौके की बात थी। उसका चेहरा मुरझा गया, गालों पर बाल लटक रहे थे, दुख में डूबी वह विचारमग्न बैठी थी – हूबहू किसी प्राचीन चित्र में बनी पतिता-सी।

“यह अच्छा नहीं हुआ,” वह बोली। “अब आप ही मुझे बुरी समझेंगे।”

कमरे में तरबूज रखा हुआ था। गूरोव ने एक फांक काटी और धीरे-धीरे खाने लगा। कम से कम आधा घण्टा चुप्पी छाई रही।

आन्ना सेर्गेयेव्ना के रोम-रोम से पाकदामनी का अहसास होता था, वह भोली, भद्र स्त्री थी, उसका जीवन अनुभव अभी थोड़ा ही था; वह बड़ी मर्मस्पर्शी लग रही थी। मेज पर जल रही एकमात्र मोमबत्ती की मद्धम रोशनी उसके चेहरे पर पड़ रही थी, स्पष्ट था कि उसके हृदय में घोर उथल-पुथल हो रही है।

“मैं तुम्हें बुरी क्यों समझने लगा?” गूरोव ने पूछा। “तुम ख़ुद नहीं जानती हो क्या कह रही हो।”

“हे प्रभु, मुझे क्षमा करो!” आन्ना सेर्गेयेव्ना ने कहा और उसकी आँखें आँसुओं से भर आयीं। “बड़ी भयानक बात है यह!”

“तुम तो मानो सफाई दे रही हो।”

“मैं क्या सफाई दे सकती हूँ? मैं नीच, पतिता हूँ, मुझे अपने आप से नफरत हो रही है और सफाई की तो मैं सोच ही नहीं सकती। मैंने पति को नहीं, अपने आप को धोखा दिया है। मेरा पति, हो सकता है, ईमानदार, अच्छा आदमी हो, पर वह अरदली है! मुझे नहीं पता वह क्या नौकरी करता है, कैसा काम करता है, पर मैं जानती हूँ कि वह अरदली है। जब उससे मेरी शादी हुई थी, तो मैं बीस बरस की थी, मेरे मन में अथाह कौतूहल था, मैं अधिक अच्छे, सुन्दर जीवन की कल्पना करती थी। मैं अपने आप से कहती थी कि कोई दूसरा जीवन भी तो है! मैं जीना चाहती थी, जीना, जीना…मैं कौतूहल के मारे मरी जा रही थी…आप यह सब नहीं समझते, पर ईश्वर क़सम, अपने आप पर मेरा बस नहीं रहा था, मुझे जाने क्या होता जा रहा था, मुझे कोई रोक नहीं सकता था, मैंने पति से कहा कि मैं बीमार हूँ, और यहाँ चली आयी…यहाँ भी मैं बावली-सी, नशे की-सी हालत में घूमती रही…और अब मैं एक तुच्छ कुलटा औरत हूँ, जिससे कोई भी नफरत कर सकता है।”

गूरोव यह सुनते-सुनते उकता गया, उसे उसके भोलेपन पर, इस प्रायश्चित पर, जो इतना अप्रत्याशित और असामायिक था, खीझ हो रही थी। यदि आन्ना सेर्गेयेव्ना की आँखों में आसू न होते तो यह सोचा जा सकता था कि वह मजाक कर रही है या फिर नाटक। गूरोव हौले से बोला –

“मेरी समझ में नहीं आता तुम चाहती क्या हो?”

उसने गूरोव की छाती में अपना मुँह छिपा लिया और उससे सट गयी।

“मुझ पर विश्वास कीजिए, भगवान के वास्ते,” वह कह रही थी। “मुझे सच्चा, पाक जीवन ही अच्छा लगता है, पाप से मुझे घिन है, मैं ख़ुद नहीं जानती मैं क्या कर रही हूँ। आम लोग कहते हैं – बुद्धि मारी गयी। अब मैं भी कह सकती हूँ: शैतान ने मेरी बुद्धि भ्रष्ट कर दी।”

“बस, बस…” वह बुदबुदा रहा था।

वह उसकी निश्चल, भयभीत आँखों में आँखें डाल कर देख रहा था, उसे चूम रहा था, स्नेह भरे स्वर में हौले-हौले बोल रहा था, और वह धीरे-धीरे शान्त हो गयी, फिर से उसका मन खिलने लगा; दोनों हँसने लगे।

फिर जब वे बाहर निकले, तो तटबंध पर एक भी व्यक्ति नहीं था। सरू वृक्षों से घिरा नगर निष्प्राण लग रहा था, परन्तु तट से टकराता समुद्र अभी भी शोर कर रहा था। लहरों पर एक बड़ी नाव डोल रही थी और उस पर उनींदा-सा लैंप टिमटिमा रहा था।

एक घोड़ागाड़ी लेकर वे ओरेयान्दा चले गये।

“होटल में मुझे तुम्हारा कुलनाम पता चला – बोर्ड पर लिखा है फोन दीदेरित्स। तुम्हारा पति क्या जर्मन है?” गूरोव ने पूछा।

“नहीं, उसका दादा शायद जर्मन था, ख़ुद उसका बपतिस्मा रूसी आर्थोडोक्स चर्च में ही हुआ था।”

ओरेयान्दा में वे गिरजे से थोड़ी दूर एक बेंच पर बैठ गये और चुपचाप नीचे समुद्र की ओर देखने लगे। भोर के कोहरे के पीछे से याल्टा का हल्का-सा आभास ही होता था, पहाड़ों की चोटियों पर निश्चल सफ़ेद बादल छाये हुए थे। पेड़ों की पत्तियाँ हिल-डुल नहीं रही थीं, टिड्डे झंकार कर रहे थे और समुद्र का नीचे से आता एकसार शोर शान्ति की, चिर निद्रा की बात कह रहा था। जब यहाँ याल्टा और ओरेयान्दा नहीं थे, तब भी नीचे ऐसा ही शोर होता था, अब भी हो रहा है और जब हम नहीं रहेंगे तब भी यही उदासीन दब-दबा सा शोर होता रहेगा। और इस स्थायित्व में, हम में प्रत्येक के जीवन और मृत्यु के प्रति इस पूर्ण उदासीनता में ही शायद हमारी शाश्वत मुक्ति, पृथ्वी पर जीवन की निरन्तर गति और निरन्तर परिष्कार का ड्डोत निहित है। अब यहाँ एक युवा स्त्री के बगल में बैठे हुए, जो ऊषा वेला में इतनी सुन्दर लग रही थी, समुद्र, पर्वतों, बादलों और असीम आकाश के इस स्वार्गिक दृश्य पर विमुग्ध और शान्त गूरोव के मन में यह ख़याल आ रहा था कि इस संसार में सभी कुछ वस्तुतः कितना सुन्दर है, उस सब के अतिरिक्त, जो हम अस्तित्व के सर्वोपरि ध्येय को भूल कर, अपनी मानव गरिमा को भूल कर सोचते और करते हैं।

कोई आदमी उनकी ओर आया, शायद चौकीदार रहा होगा, उनपर नजर डाल कर वह चला गया। और यह छोटी-सी बात भी इतनी रहस्यमय और सुन्दर लग रही थी। फेओदोसिया से आता जहाज भोर के उजाले में दिखायी दे रहा था, उसपर कोई बत्ती नहीं जल रही थी।

“घास पर ओस पड़ रही है,” चुप्पी को तोड़ते हुए आन्ना सेर्गेयेव्ना ने कहा।

“हाँ, घर चलना चाहिए।”

वे शहर लौट आये।

अब वे रोज़ाना दोपहर को सागर तट की सड़क पर मिलते, जलपान करते, खाना खाते, घूमते और सागर के मनोरम दृश्य का रसपान करते। आन्ना सेर्गेयेव्ना शिकायत करती कि उसे नींद ठीक से नहीं आती, कि उसके दिल में धुकधुकी होती रहती है। कभी डाह से और कभी इस भय से कि गूरोव के मन में उसके लिए पर्याप्त आदर भाव नहीं है, वह बार-बार एक से ही सवाल पूछती रहती। और अक्सर पार्क में या बगीचे में, जब आसपास कोई न होता, तो गूरोव सहसा उसे अपनी ओर खींच लेता और ज़ोर से चुम्बन लेता। यह पूरी आरामतलबी, दिन-दहाड़े ये चुम्बन, जब यह डर लगा रहता कि कोई देख तो नहीं रहा, गर्मी और समुद्र की गंध, आँखों के सामने निरन्तर झिलमिलाती सजीली पोशाकें और आराम से टहलते सन्तुष्ट लोगों की भीड़ – इस सब ने मानो उसे एक नया आदमी बना दिया। वह आन्ना सेर्गेयेव्ना से यह कहता रहता कि वह कितनी प्यारी है, उसमें कितना सम्मोहन है; वह अपने प्रेम में अधीर हो उठा था, आन्ना सेर्गेयेव्ना से एक क़दम भी दूर न हटता; उधर वह प्रायः सोच में डूब जाती और उससे यह स्वीकार करने को कहती कि वह उसकी इज्जत नहीं करता, उसे ज़रा भी नहीं चाहता, कि उसे केवल एक तुच्छ औरत ही मानता है। प्रायः रोज़ ही शाम को वे घोड़ागाड़ी लेकर शहर से बाहर कहीं चले जाते, ओरेयान्दा या झरने पर; और उनकी सैर बड़ी अच्छी रहती, मन में अनुपम, भव्य सौन्दर्य की छाप लिये ही वे लौटते।

आन्ना सेर्गेयेव्ना के पति के आने की प्रतीक्षा थी, परन्तु उसका पत्र आया, जिसमें उसने सूचित किया था कि उसकी आँखें दुख रही हैं, और पत्नी से अनुरोध किया था कि वह शीघ्रातिशीघ्र घर लौट आये। आन्ना सेर्गेयेव्ना जल्दी-जल्दी जाने की तैयारी करने लगी। वह गूरोव से कहती –

“अच्छा हुआ जो मैं जा रही हूँ। मेरा भाग्य मुझे बचा रहा है।”

स्टेशन जाने के लिए उसने घोड़ागाड़ी की, गूरोव उसे छोड़ने चला। दिन भर के सफ़र के बाद वे स्टेशन पर पहुँचे। जब दूसरी घण्टी बज गयी, तो डिब्बे में बैठते हुए वह गूरोव से कह रही थी –

“एक बार और आपको देख लूँ…एक बार और। बस।”

वह रो नहीं रही थी, पर इतनी उदास थी कि बीमार लगती थी और उसका चेहरा काँप रहा था।

“मुझे आपकी याद आयेगी…आपके बारे में सोचा करूँगी,” वह कह रही थी। “भगवान आपका भला करे। ख़ुशी से रहिये। भूल-चूक माफ करना। हम सदा के लिए जुदा हो रहे हैं, यही ठीक है, क्योंकि हमें मिलना ही नहीं चाहिए था। अच्छा, भगवान आपका भला करे!”

गाड़ी तेजी से चली गयी, शीघ्र ही उसकी बत्तियाँ ओझल हो गयीं, और पल भर में ही उसकी आवाज़ भी सुनायी देनी बन्द हो गयी, मानो सब ने मिल कर इस मधुर सपने, इस पागलपन को जल्दी से समाप्त कर देने का षड्यंत्र रच रखा हो। और प्लेटफार्म पर अकेला खड़ा गूरोव अँधेरे में आँखें गड़ाये टिड्डों की झंकार और तार लाइनों की गूंज को यों सुन रहा था, मानो अभी होश में आया हो। और वह यह सोच रहा था कि उसके जीवन में यह भी एक घटना, एक अध्याय था, जो समाप्त हो गया और अब बस एक याद रह गयी है…वह विह्वल था, उदास था और उसे हल्का-सा प्रायश्चित हो रहा था, इस युवा नारी को भी तो, जिससे उसकी मुलाकात फिर कभी नहीं होगी, वह कोई सुख नहीं दे सका था। उसके साथ आत्मीयता भरा, सौहार्द भरा व्यवहार किया था, लेकिन उसके इस व्यवहार में भी, उसके लाड़-दुलार में, उसके लहजे में हल्के से व्यंग्य का पुट था, सुखी पुरुष का रूखा-सा दंभ था, जो ऊपर से उम्र में भी उससे दुगुना बड़ा था। वह उसे सदा-भला, अद्भुत, उदात्त कहती थी; प्रत्यक्षतः वह उसे वैसा नहीं लगता था, जैसा वास्तव में था, और इस तरह अनचाहे ही उसे धोखा देता रहा था।

यहाँ स्टेशन पर शरद के आगमन का आभास हो रहा था, शाम की हवा में ठण्डक थी।

प्लेटफार्म से चलते हुए गूरोव सोच रहा था, “मुझे भी अब उत्तर को लौट जाना चाहिए।”

3

मास्को में घर पर सब कुछ जाड़ों जैसा था, कमरे गर्म किये जाने लगे थे, सुबह जब बच्चे स्कूल जाने को तैयार होते और चाय पीते, तो बाहर अँधेरा होता और धाय थोड़ी देर को लैम्प जलाती। पाला भी पड़ने लगा था। जब पहला हिमपात होता है, तो पहली बार स्लेज पर जाते हुए हिमधवल धरती, सफ़ेद छतें बड़ी अच्छी लगती हैं, शीतल हवा में साँस खुल कर आती है, और ऐसे समय में जवानी के दिनों की याद आती है। तुषार का परिधान ओढ़े भोज और लिण्डन के पुराने वृक्ष सहृदय प्रतीत होते हैं और उत्तरवासी को वे दक्षिण के सरू वृक्षों से अधिक चित्ताकर्षक लगते हैं और उनके निकट पर्वतों और समुद्र की बातें सोचने की इच्छा नहीं होती।

गूरोव मास्कोवासी था। जिस दिन वह मास्को लौटा, उस दिन मौसम बड़ा सुहावना था, हल्का पाला पड़ रहा था और जब उसने अपना मोटा ओवरकोट और गर्म दस्ताने पहने, और पेत्रेव्का सड़क का चक्कर लगाया, और जब शनिवार की संध्या का गिरजों के घण्टों का कर्णप्रिय नाद सुना, तो हाल ही की यात्रा का और उन स्थानों का, जहाँ वह हो कर आया था, सारा आकर्षण फीका-सा पड़ गया। वह धीरे-धीरे मास्को के जीवन में रमने लगा, अब वह हौके से तीन-तीन अखबार पढ़ता और कहता कि मास्को के अखबार तो वह उसूल के तौर पर नहीं पढ़ता, अब उसका मन रेस्तरां और क्लबों में, दावतों और जयन्ती समारोहों में जाने को करता, और उसके अहम् की इस बात से तुष्टि होती कि नामी वकील और कलाकार उसके यहाँ आते हैं, कि डाक्टर क्लब में प्रोफेसर के साथ वह ताश खेलता है। अब वह छक कर अपने प्रिय व्यंजन खाता था…

उसे लगता था कि यही कोई एकाध महीना बीतते न बीतते आन्ना सेर्गेयेव्ना की याद धुँधली पड़ जायेगी और बस कभी-कभी ही हृदयग्राही मुस्कान लिये वह उसके सपनों में आया करेगी, जैसे उससे पहले दूसरी स्त्रियाँ आया करती थीं। लेकिन महीने से अधिक बीत गया था, जाड़ा अपने पूरे ज़ोर पर आ गया था और उसकी स्मृति में सब कुछ इतना स्पष्ट था मानो वह कल ही आन्ना सेर्गेयेव्ना से बिछुड़ा हो। और यादें दिन पर दिन ताजी होती जा रही थी। संध्या की नीरवता में जब उसे अपने कमरे में बच्चों की आवाज़ें सुनायी देतीं, या जब वह रेस्तरां में गीत-संगीत सुनता, या फिर चिमनी में से बर्फीली आँधी की हू-हू आ रही होती, उसके स्मृति-पटल पर सहसा सब कुछ स्पष्टतः उभर आताः घाट पर वह शाम, और पहाड़ों में भोर का कोहरा, और फेओदोसिया से आया जहाज और वे चुम्बन। वह कमरे के चक्कर काटता सब कुछ याद करता रहता और मुस्कुराता जाता, और फिर यादें स्वप्नों का रूप ले लेतीं और कल्पना में अतीत उस सब के साथ घुल-मिल जाता, जो आगे होगा। आन्ना सेर्गेयेव्ना को वह सपनों में नहीं देखता था, वह तो हर पल परछाई की भाँति उसके साथ रहती थी, और उस पर नजर लगाये रहती थी। आँखें मूँदता, तो वह उसके सामने जीती-जागती खड़ी होती, और वह वास्तविकता से भी अधिक सुन्दर, युवा और सुकोमल लगती; और उसे लगता कि वह स्वयं भी याल्टा में जैसा था, उससे अब कहीं अधिक अच्छा है। संध्या समय किताबों की अलमारी में से, कमरे में बनी अंगीठी में से वह उसकी ओर ताकती, वह उसकी साँसें, उसके वस्त्रें की प्यारी सरसराहट सुनता। सड़क पर वह आती-जाती औरतों को देखता, उसकी आँखें यही खोजती रहतीं कि कोई उसके जैसी है क्या…

और अब उसके लिए अपनी यादें अपने मन में ही बनाये रखना मुश्किल हो गया था। लेकिन घर पर तो वह अपने प्रेम की चर्चा कर नहीं सकता था और घर से बाहर कोई ऐसा था नहीं, जिससे वह अपने मन की बात कह सके। किरायेदारों से या बैंक में थोड़े ही ये बातें की जा सकती थीं। और वह कहता तो कहता भी क्या? क्या तब वह प्रेम करता था? क्या आन्ना सेर्गेयेव्ना के साथ उसके सम्बन्धों में कोई सौन्दर्य था, कोई काव्यात्मकता, कोई शिक्षाप्रद बात या मात्र कोई रोचक बात ही थी? और वह बस सामान्य तौर पर प्रेम की, स्त्रियों की बातें ही किया करता। और किसी को भी यह ख़याल न आता कि मामला क्या है, बस उसकी पत्नी ही अपनी घनी भौंहें हिलाते हुए कभी-कभार कहती –

“दिमीत्री, तुम्हें यह रसिया बनना नहीं जंचता।”

एक शाम को ताश के अपने साथी के साथ डाक्टर क्लब से निकलते हुए उससे रहा न गया और वह कह उठा –

“काश, आपको पता होता याल्टा में कैसी मोहिनी से मेरी मुलाकात हुई थी!”

वह आदमी अपनी स्लेज पर बैठ कर चल पड़ा, पर सहसा मुड़ कर उसने पुकारा –

“द्मीत्री-द्मीत्रिच!”

“क्या है?”

“आप तब ठीक ही कह रहे थे – मछली बासी थी।”

जाने क्यों ये मामूली से शब्द सुन कर वह आग बबूला हो उठा, उसे ये शब्द गन्दे, अपमानजनक लगे। कैसी वहशियत है, कैसे बेहूदे चेहरे हैं! कैसी बेकार रातें हैं, कैसे नीरस, फीके दिन हैं! बदहवास हो कर ताश खेलना, ठूस-ठूस कर खाना, शराबें पीना, वही घिसी पिटी बातें करना। निरर्थक कामों और घिसी-पिटी बातों में ही सबसे अच्छा समय बीता जाता है, शक्ति का बड़ा भाग खप जाता है, और अन्ततः रह जाता है एक तुच्छ, निरुत्साह जीवन, मात्र बकवास, और इससे बचने का, कहीं भाग जाने का कोई रास्ता नहीं मानो तुम किसी पागलखाने में या जेल में बन्द हो!

गूरोव सारी रात नहीं सोया, उसका मन विद्रोह करता रहा, फिर सारा दिन उसके सिर में दर्द होता रहा। इसके बाद की रातों में भी उसे ठीक से नींद नहीं आयी, वह बिस्तर में बैठा सोचता रहता या कमरे में चक्कर काटता रहता। बच्चों से वह तंग आ गया था, बैंक से तंग आ गया था, न कहीं जाने का मन करता था, न कुछ बात करने का।

दिसम्बर में बड़े दिन की छुट्टियों में वह सफ़र को तैयार हो गया, पत्नी से कहा कि एक नौजवान के काम से पीटर्सबर्ग जा रहा है, और स- नगर को रवाना हो गया। किसलिए? वह स्वयं भी नहीं जानता था। वह बस आन्ना सेर्गेयेव्ना को देखना, उससे बात करना और हो सके तो उससे एकान्त में मिलना चाहता था।

वह सुबह-सुबह स- नगर पहुँचा। होटल में उसने सबसे अच्छा कमरा लिया, जिसके फर्श पर मोटा कपड़ा बिछा हुआ था, मेज पर धूल से बदरंग हुआ कलमदान था और कलमदान पर हाथ में टोप उठाये घुड़सवार जड़ा हुआ था, घुड़सवार का सिर टूटा हुआ था। दरबान ने उसे आवश्यक जानकारी दी – फोन दीदेरित्स पुरानी कुम्हारोंवाली गली में रहता है, अपने मकान में, जो होटल से ज़्यादा दूर नहीं है, अच्छा खाता-पीता आदमी है, उसके पास अपने घोड़े हैं और शहर में सब उसे जानते हैं।

गूरोव धीरे-धीरे चलता हुआ पुरानी कुम्हारोंवाली गली में गया, वहाँ मकान ढूँढ़ लिया। मकान के ऐन सामने काफ़ी लंबा, बदरंग-सा जंगला था, जिस पर कीलें ठुकी हुई थीं।

“ऐसे जंगले की कैद से तो कोई भी भाग जाना चाहेगा,” कभी खिड़कियों और कभी जंगले की ओर देखते हुए गूरोव को ख़याल आ रहा था।

वह मन ही मन सोच रहा था – आज छुट्टी का दिन है, और शायद पति घर पर ही होगा। वैसे भी यों एकदम घर में घुस जाना और आन्ना सेगेर्येव्ना को सकपका देना बड़ी बेहूदा बात होगी। अगर रुक्का भेजा जाये, तो वह भी शायद पति के हाथ लगेगा, और तब सारा मामला बिगड़ जायेगा। सबसे अच्छा यही होगा कि मौके का इन्तज़ार किया जाये। सो वह सड़क पर चक्कर काट रहा था और इस मौके की ताक में था। उसने देखा कैसे एक भिखमंगा फाटक के अन्दर गया और उसपर कुत्ते झपटे, फिर घण्टे भर बाद उसे पियानो के स्वर सुनायी दिये, स्वर अस्पष्ट से थे। शायद आन्ना सेर्गेयेव्ना पियानो बजा रही थी। सहसा बड़ा फाटक खुला और उसमें से कोई बुढ़िया निकली, उसके पीछे वही सफ़ेद कुत्ता दौड़ा चला आ रहा था। गूरोव कुत्ते को बुलाना चाहता था, पर सहसा उसका दिल ज़ोर-ज़ोर से धड़कने लगा और वह घबराहट के मारे यह याद नहीं कर पाया कि कुत्ते का नाम क्या है।

वह टहल रहा था और इस बदरंग जंगले के प्रति घृणा उसके मन में तीव्रतर होती जा रही थी। वह खिसियाता हुआ यह सोच रहा था कि आन्ना सेर्गेयेव्ना उसे भूल चुकी है और शायद किसी दूसरे के साथ मन बहला रही है, और एक युवा स्त्री के लिए, जिसे सुबह से शाम तक यह कमबख्त जंगला देखना ही बदा है, ऐसा करना बिल्कुल स्वाभाविक ही है। वह होटल के अपने कमरे में लौट आया, बड़ी देर तक किंकर्त्तव्यमूढ़-सा बैठा रहा, फिर उसने खाना खाया, और फिर देर तक सोता रहा।

जागा तो बाहर अँधेरा हो चुका था। अँधेरी खिड़कियों पर नजरें गड़ाये वह सोच रहा था, “क्या बेवक़ूफ़ी है यह सब, नाहक की परेशानी। जाने क्यों सो भी लिया। अब रात को क्या करूँगा?”

वह अपने बिस्तर पर बैठा हुआ था, जिस पर अस्पतालों जैसा मटमैला सा कम्बल बिछा हुआ था, और झुंझलाता हुआ अपने आप को चिढ़ा रहा था –

“लो, मिल गयी कुत्ते वाली महिला…लो, हो गया रोमांस…बैठे रहो अब यहाँ।”

सुबह स्टेशन पर ही उसे बड़े-बड़े अक्षरों में लिखा इश्तहार दिखायी दिया था – ‘गेशा’ का पहला प्रदर्शन होने वाला था। उसे यह याद आया और वह थियेटर को चल दिया।

“बहुत मुमकिन है कि वह पहला शो देखने आती हो,” वह सोच रहा था।

थियेटर भरा हुआ था। छोटे शहरों के सभी थियेटरों की भाँति यहाँ भी फानूस के ऊपर धुन्ध छाई हुई थी, ऊपरी बाल्कनियों में ख़ूब शोर हो रहा था; पहली कतार के आगे शो शुरू होने से पहले स्थानीय छैले पीठ पर हाथ बांधे खड़े थे; यहाँ भी गवर्नर के बॉक्स में गवर्नर की बेटी गले में कीमती फर डाले बैठी थी, और स्वयं गवर्नर पर्दे की ओट में था, उसके बस हाथ दिखायी दे रहे थे; रंगमंच का पर्दा हिल रहा था, आर्केस्ट्रा के वादक देर तक अपने साजों के सुर मिलाते रहे। जब तक लोग अन्दर आ-आ कर अपनी सीटों पर बैठते रहे, गूरोव की नजरें उतावली-सी इधर-उधर दौड़ती रहीं।

आन्ना सेर्गेयेव्ना भी आयी। वह तीसरी कतार में बैठी, और जैसे ही गूरोव ने उसे देखा उसका दिल धक से रह गया और उसके लिए यह एकदम स्पष्ट हो गया कि अब सारे संसार में आन्ना सेर्गेयेव्ना ही उसके लिए सबसे बढ़ कर है, और कोई भी उसे इतना प्यारा नहीं है, उसके दिल के इतने निकट नहीं है। प्रान्तीय भीड़ का ही एक कण लगती, हाथ में भद्दा-सा लार्नेट लिये यह छोटी-सी नारी, जो किसी भी दृष्टि में असाधारण नहीं थी, वही अब उसका सर्वस्व थी, उसका दुख, उसकी खुशियाँ, उसका एकमात्र सुख वही थी, बस इसी एक सुख की उसे कामना थी। और इस भौंड़े से आर्केस्ट्रा के, घटिया वायलिनों के स्वर सुनते हुए वह सोच रहा था कि वह कितनी प्यारी है। वह सोच रहा था और सपनों में खोता जा रहा था।

आन्ना सेर्गेयेव्ना के साथ एक नौजवान भी अन्दर आया और उसकी बगल में बैठ गया, छोटे-छोटे गलमुच्छों और ऊँचे कद का झुके कन्धों वाला यह आदमी हर क़दम पर सिर हिलाता, लगता था जैसे हर दम सलाम बजा रहा हो। शायद यह उसका पति ही था, जिसे तब याल्टा में आन्ना सेर्गेयेव्ना ने कटुता के आवेग में अरदली कह डाला था। सचमुच ही उसकी लंबी आकृति, उसके गलमुच्छों और हल्के से गंजेपन में अरदलियों जैसा जीहजूरी का भाव छलकता था, उसकी मुस्कान में मिठास घुली हुई थी, और कोट के फ्लैप में किसी वैज्ञानिक संस्था का बिल्ला चमक रहा था, बिल्कुल अरदलियों के नंबर के बिल्ले जैसा।

पहले इंटरवल में पति सिगरेट पीने चला गया, आन्ना सेर्गेयेव्ना अपनी सीट पर ही बैठी रही। गूरोव उसके पास गया और बलात मुस्कुराते हुए, काँपते स्वर में बोला –

“नमस्ते।”

आन्ना सेर्गेयेव्ना ने नजरें उठा कर उसकी ओर देखा और उसका चेहरा फक पड़ गया, फिर एक बार और भयभीत नजर उस पर डाली, उसे अपनी आँखों पर विश्वास नहीं हो रहा था, उसने पंखा और लार्नेट एक ही हाथ में कस कर भींच लिये – प्रत्यक्षतः वह अपने आप को संभालने की कोशिश कर रही थी, ताकि बेहोश न हो जाये। दोनों चुप थे। वह बैठी हुई थी, गूरोव खड़ा था,उसके यों सकते में आ जाने से भयभीत सा। साजों के सुर मिलाने के स्वर आने लगे, सहसा सब कुछ बहुत भयानक लगने लगा, मानो चारों ओर से सब उनकी ओर ही देख रहे हों। तब वह उठी और तेज क़दमों से बाहर को चल दी; गूरोव उसके पीछे-पीछे चला, दोनों बेढंगे से चले जा रहे थे गलियारों में, सीढ़ियों पर कभी ऊपर, कभी नीचे; उनकी आँखों के सामने भाँति-भाँति की वर्दियाँ पहने लोग, सबके सब बिल्ले लगाये, झिलमिला रहे थे, महिलाएँ झिलमिला रही थीं और खूंटियों पर टंगे ओवरकोट भी। आर-पार की हवा आ रही थी और उसके साथ तम्बाकू की तेज गंध। गूरोव का दिल बुरी तरह धड़क रहा था और वह सोच रहा था, “हे भगवान! किसलिए हैं ये लोग, यह आर्केस्ट्रा…”

और इसी क्षण उसे याद आया कि कैसे तब स्टेशन पर आन्ना सेर्गेयेव्ना को विदा करके उसने मन ही मन कहा था कि सब कुछ समाप्त हो गया, कि अब वे फिर कभी नहीं मिलेंगे। लेकिन यह अन्त अभी कितनी दूर है!

संकरी, अँधेरी सीढ़ी पर, जिस पर लिखा था ‘एंफिथियेटर को रास्ता’, वह थम गयी। अभी भी स्तब्ध सी, चेहरे का रंग उड़ा हुआ, हाँफती हुई वह बोली –

“आपने तो मुझे डरा ही दिया! हे भगवान, कितना डरा दिया! मेरे तो प्राण ही निकल गये। क्यों आ गये आप? क्यों?”

“पर, आन्ना, देखिये न…” वह जल्दी से, दबे-दबे स्वर में बोला, “भगवान के वास्ते, समझने की कोशिश कीजिये…

आन्ना सेर्गेयेव्ना उसकी ओर देख रही थी, उसकी आँखों में भय था, विनती थी, प्रेम था – वह टकटकी लगाये उसे देख रही थी, ताकि उसके चेहरे-मोहरे को अच्छी तरह याद कर ले।

“मैं इतनी दुखी हूँ,” उसकी बात अनसुनी करती हुई वह कहती जा रही थी। “मैं सारा समय आपके बारे में ही सोचती रही हूँ, इन्हीं विचारों से मैं ज़िन्दा हूँ। और मैं भूल जाना चाहती थी, भूल जाना, पर आप क्यों चले आये, क्यों?”

ऊपर वाले छज्जे पर दो लड़के खड़े सिगरेट पी रहे थे और नीचे झांक रहे थे, लेकिन गूरोव को इस सब की कोई परवाह न थी, उसने आन्ना सेर्गेयेव्ना को अपनी ओर खींचा और उसके चेहरे, गालों, हाथों पर चुम्बनों की बौछार कर दी।

“यह आप क्या कर रहे हैं, क्या कर रहे हैं!” उसे परे हटाते हुए वह भयभीत सी कह रही थी। “हम दोनों तो पागल हो गये हैं। आप चले जाइये आज ही, चले जाइये अभी…भगवान के वास्ते, मैं हाथ जोड़ती हूँ…कोई आ रहा है!”

सीढ़ियों पर कोई नीचे से ऊपर आ रहा था।

“आपको चले जाना चाहिए…” आन्ना सेर्गेयेव्ना फुसफुसाते हुए कहती जा रही थी। “सुना आपने, द्मीत्री द्मीत्रिच? मैं मास्को आऊँगी। मैं कभी सुखी नहीं थी, अब भी मैं सुखी नहीं और कभी सुखी नहीं हो पाऊँगी, कभी नहीं! मेरी वेदना मत बढ़ाइये! मैं ज़रूर मास्को आऊँगी। पर अब हमें बिछुड़ना होगा। मेरे प्यारे, मेरे अच्छे, विदा!”

उसने गूरोव का हाथ दबाया और जल्दी से नीचे उतरने लगी, मुड़-मुड़कर उसकी ओर देखती जाती। उसकी आँखों से स्पष्ट था कि वह सचमुच ही सुखी नहीं है…गूरोव थोड़ी देर खड़ा रहा, नीचे से आती आवाज़ें सुनता रहा, और जब सब शान्त हो गया, तो उसने अपना ओवरकोट ढूँढ़ा और थियेटर से बाहर निकल गया।

4

और आन्ना सेर्गेयेव्ना उससे मिलने मास्को आने लगी। दूसरे-तीसरे महीने वह पति से कहती कि अपने स्त्री-रोग के मामले में प्रोफेसर को दिखाने जा रही है और मास्को चली आती। उसका पति उस पर विश्वास करता भी और नहीं भी। मास्को आ कर वह ‘स्लाव बाजार’ होटल में ठहरती और तुरन्त ही लाल टोपी वाले दरबान के हाथ गूरोव को सन्देशा भेजती। गूरोव उससे मिलने जाता, और मास्को में कोई यह बात नहीं जानता था।

जाड़ों की एक सुबह को इसी भाँति वह उससे मिलने जा रहा था (दरबान पिछली शाम को आया था, पर वह घर पर नहीं था)। उसकी बेटी उसके साथ थी, जिसे वह रास्ते में स्कूल छोड़ते जाना चाहता था। बड़े-बड़े फाहों के रूप में हिम गिर रहा था। गूरोव बेटी से कह रहा था –

“देखो, इस समय तापमान शून्य से तीन डिग्री ऊपर है, फिर भी हिमपात हो रहा है। बात यह है कि पृथ्वी की सतह पर ही ज़रा गर्मी है, वायुमण्डल के ऊपरी स्तरों में तो तापमान बिल्कुल दूसरा है।”

“पिता जी, जाड़ों में बिजली क्यों नहीं कड़कती?”

उसने बेटी को इसका कारण भी समझाया। वह बोल रहा था और मन ही मन सोच रहा था कि अब वह आन्ना सेर्गेयेव्ना के पास जा रहा है, और कोई भी आदमी ऐसा नहीं जिसे यह पता हो, और शायद कभी पता होगा भी नहीं। उसके दो जीवन थे – एक प्रत्यक्ष जीवन, जिसे वे सब लोग देखते और जानते थे, जिन्हें इसकी आवश्यकता थी, जो सापेक्षिक सत्य और सापेक्षिक असत्य से पूर्ण था और उसके सभी परिचितों व मित्रों के जीवन जैसा ही था, और दूसरा जीवन सब की नजरों से छिपा हुआ था। और परिस्थितियों का कुछ ऐसा विचित्र, शायद आकस्मिक ही संयोग था कि उसके लिए जो कुछ महत्त्वपूर्ण, रोचक और आवश्यक था, जिसमें वह सच्चा था और अपने आपको धोखा नहीं देता था, जो उसके जीवन का सारतत्व था, वह सब लोगों की नजरों से छिपा हुआ था, गुप्त था; और वह सब, जो उसका झूठ था, वह नकाब था, जिसे वह अपनी सचाई छिपाने के लिए पहने रखता था, जैसे कि बैंक में उसकी नौकरी, क्लब में बहसें, उसकी “घटिया नस्ल”, जयंतियों में पत्नी के साथ उसका भाग लेना – यह सब खुला था, प्रत्यक्ष था। और अपने जैसा ही वह औरों को भी समझता था, जो देखता उसपर विश्वास न करता, और सदा यही सोचता कि हर आदमी के सच्चे और सबसे रोचक जीवन पर रात्रि के अन्धकार जैसी रहस्य की चादर पड़ी होती है। हर किसी का निजी अस्तित्व रहस्य के आवरण में छिपा रहता है, और शायद इसीलिए हर सभ्य आदमी इस बात के लिए बेचैन रहता है कि निजी रहस्य का पर्दा उठाने की कोई कोशिश न हो।

बेटी को स्कूल छोड़ कर गूरोव ‘स्लाव बाजार’ को गया। होटल में नीचे ही अपना ओवरकोट उतारा, ऊपर गया और हौले से दरवाज़े पर दस्तक दी। आन्ना सेर्गेयेव्ना हल्के सुरमई रंग की उसकी मनपसन्द पोशाक पहने थी, सफ़र और इन्तज़ार से थकी वह पिछली शाम से उसकी राह देख रही थी। उसके चेहरे का रंग उड़ा हुआ था और वह मुस्कुरा नहीं रही थी। गूरोव अन्दर आया ही था कि आन्ना सेर्गेयेव्ना ने उसकी छाती में सिर छिपा लिया। वे मानो बरसों से न मिले हों – उनका चुम्बन इतना लंबा था।

“कहो, कैसी हो? क्या ख़बर है?” गूरोव ने पूछा।

“ठहरो, अभी बताती हूँ…बोला नहीं जाता।”

उससे बोला नहीं जा रहा था, क्योंकि वह रो रही थी। गूरोव की ओर पीठ करके उसने आँखों पर रूमाल रख लिया।

“कोई बात नहीं, थोड़ा रो ले, मैं ज़रा देर बैठ लूँ,” यह सोचते हुए गूरोव आरामकुर्सी पर बैठ गया।

फिर उसने घण्टी बजायी और चाय मंगायी; और जब वह चाय पी रहा था, तब भी आन्ना सेर्गेयेव्ना खिड़की की ओर मुँह किये खड़ी रही…वह भावावेग से, इस शोकमय चेतना से रो रही थी कि उनका जीवन कितना दुखद है; वे छिप-छिप कर ही मिलते हैं, चोरों की तरह लोगों की नजरों से बचते हैं! क्या उनका जीवन बरबाद नहीं हो गया है?

“बस, अब रहने भी दो!” गूरोव ने कहा।

उसके लिए यह स्पष्ट था कि उनके इस प्रेम का अन्त शीघ्र ही नहीं होगा, जाने कब होगा। आन्ना सेर्गेयेव्ना का उससे लगाव बढ़ता जा रहा था, वह उसकी पूजा करती थी और उससे यह कहने की तो कल्पना ही नहीं की जा सकती थी कि आखि़र कभी तो इस सब का अन्त होना ही चाहिए; वह तो इसपर विश्वास ही न करती।

गूरोव ने उसके पास जाकर उसके कन्धों पर हाथ रखे, ताकि उसे दुलारे, कोई ख़ुश करने वाली बात कहे, पर तभी उसकी नजर शीशे में अपनी परछाई पर पड़ी।

उसके बाल सफ़ेद होने लगे थे। उसे यह अजीब लगा कि पिछले कुछ वर्षों में उस पर ढलती उम्र की छाप इतनी स्पष्ट हो गयी है, उसमें एक फीकापन आ गया है। वे कन्धे, जिन पर उसके हाथ थे, अभी गर्म थे, काँप रहे थे। उसके मन में इस जीवन के प्रति सहानुभूति उमड़ रही थी, जिसमें अभी इतनी गर्माहट थी, जो अभी इतना सुन्दर था, पर शायद जो उसके जीवन की ही भाँति शीघ्र ही मुरझाने लगेगा, फीका पड़ने लगेगा। वह उससे इतना प्यार क्यों करती है? स्त्रियों ने सदा ही उसे वैसा नहीं समझा था जैसा वह वास्तव में था और वे स्वयं उससे नहीं, बल्कि उस व्यक्ति से प्रेम करती थीं, जो उनकी कल्पना की उपज होता और जिसे वे जीवन में इतनी अधीरता से ढूँढ़ती थीं; और फिर जब उन्हें अपनी ग़लती का अहसास होता, तब भी वे उससे प्रेम करती रहतीं। और उनमें से कोई भी उसके साथ सुखी नहीं हो पायी थी। समय बीतता गया था, कइयों से उसका सम्बन्ध जुड़ा और टूटा, लेकिन एक बार भी उसने प्रेम नहीं किया था; जो कुछ हुआ था उसे कुछ भी कहा जा सकता था, बस वह प्रेम नहीं था।

अब कहीं जाकर, जब उसके बाल सफ़ेद होने लगे थे, उसके मन में सच्चा प्रेम जागा था – जीवन में पहली बार।

आन्ना सेर्गेयेव्ना और वह एक दूसरे से प्रेम करते थे, बहुत ही करीबी, सगे लोगों की भाँति, पति-पत्नी की भाँति, स्नेही मित्रों की भाँति; उन्हें लगता था कि स्वयं भाग्य ने उन्हें एक दूसरे के लिए बनाया है और यह बिल्कुल समझ में नहीं आता था कि वह क्यों शादीशुदा है और आन्ना सेर्गेयेव्ना क्यों विवाहिता है; ये मानो दो पक्षी थे, नर और मादा, जिन्हें पकड़ कर अलग-अलग पिंजरों में बन्द कर दिया गया था। उन्होंने एक दूसरे को उन सब बातों के लिए क्षमा कर दिया था, जिनके कारण वे अपने अतीत पर लज्जित होते थे, वर्तमान में भी वे एक दूसरे को सब कुछ क्षमा करते थे और दोनों यह अनुभव करते थे कि उनके प्रेम ने उन्हें कितना बदल दिया है।

अतीत में उदासी के क्षणों में वह मन में जो भी तर्क आते उनसे अपने को शान्त कर लेता था, परन्तु अब उसके मन में कोई तर्क नहीं आते थे, उसका हृदय गहरी सहानुभूति से भरा हुआ था, वह सच्चा और स्नेही होना चाहता था।

“बस करो, रानी” वह कह रहा था। “बहुत रो लीं, अब बस करो…चलो, अब कुछ बातें करते हैं, कोई उपाय सोचते हैं।”

फिर वे देर तक बातें करते रहे, सोचते रहे कि कैसे इस तरह छिप-छिप कर मिलने की, धोखा देने की, अलग-अलग शहरों में रहने और देर तक न मिलने की लाचारी से छुटकारा पा सकें। कैसे इन असह्य बंधनों से छूटें?

“कैसे? कैसे?” हैरान-परेशान सा वह पूछ रहा था। “कैसे?”

और लगता था कि बस थोड़ा सा जतन और करने पर वे कोई हल ढूँढ़ लेंगे, और तब नया, सुन्दर जीवन आरम्भ होगा; और दोनों के लिए यह बिल्कुल स्पष्ट था कि मंजिल अभी बहुत दूर है और सबसे जटिल, सबसे कठिन रास्ता तो अभी शुरू ही हुआ है।

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