लाल बहादुर सिंह
भाजपा के अल्पमत में होने के बावजूद नीतीश, नायडू की बैसाखी के सहारे मोदी का तीसरा कार्यकाल शुरू हो चुका है। लेकिन कार्यकाल शुरू होते ही सरकार जन-असंतोष विशेषकर युवा आक्रोश के भंवर में जिस तरह घिरती जा रही है, कश्मीर, पूर्वोत्तर भारत, बिहार से लेकर पंजाब तक से जो संकेत आ रहे हैं, उसका इशारा तो यही है की इंदिरा गांधी के आखिरी कार्यकाल की तरह मोदी का अंतिम कार्यकाल भी विस्फोटक घटना क्रमों से भरा होने जा रहा है।
एक तो बेरोजगारी रिकॉर्ड स्तर पर है, दूसरे जो भी प्रतियोगी परीक्षा हो रही है, उसका पेपर लीक हो जा रहा है। एक रिपोर्ट के अनुसार पिछले 7 साल में 70 पेपर लीक हुए हैं और दो करोड़ बच्चों के भविष्य के साथ खिलवाड़ हुआ है। नई सरकार के गठन के बाद पहले NEET का पेपर लीक हुआ फिर यूजीसी-नेट (UGC- NET) का पेपर आउट हुआ, इसी दौरान सेना की किसी परीक्षा में अनियमितता की खबर आई, अब CSIR NET की परीक्षा लॉजिस्टिक्स का बहाना बनाकर निरस्त करने की खबर आ रही है। जाहिर है युवाओं का गुस्सा सातवें आसमान पर है। विपक्ष और छात्र- युवा संगठनों ने संसद से सड़क तक सक्षम नेतृत्व दिया तो युवा आक्रोश जनांदोलन का रूप ले सकता है और गठबंधन सरकार को हिला सकता है।
हालात को संभालने के लिए क्या मोदी सरकार अपनी रोजगार नीति और आर्थिक क्षेत्र में कोई बदलाव करेगी? इसके आसार तो नहीं लगते। राजनीतिक- सामाजिक नीतियों में इस नए कार्यकाल में गठबन्धन की मजबूरियों में चाहे जो बदलाव हो, अर्थनीति में शायद ही कोई दिशागत बदलाव हो। सम्भव है चुनावी मजबूरी में यहां- वहां कुछ टैक्टिकल एडजस्टमेंट या बदलाव का दिखावा हो, लेकिन मूल दिशा मोदी के पिछले 2 कार्यकालों की ही निरन्तरता में होगी। चुनाव के तुरंत बाद जिस तरह तमाम उत्पादों और सेवाओं का मूल्य बढ़ना शुरू हुआ है, वह इसकी बानगी है।
स्थिति यह है कि तमाम मोर्चों पर हालात पहले ही विस्फोटक मुकाम पर पहुंचे हुए हैं, चाहे वह आसमान छूती महंगाई हो, रिकॉर्डतोड़ बेरोजगारी हो या दुनिया की सबसे भयावह आर्थिक गैरबराबरी हो। यह निर्विवाद है कि आम जनता के जीवन की यह आर्थिक बदहाली ही वह मूल पृष्ठभूमि थी जिसने अन्य कारकों के साथ मिलकर भाजपा को बहुमत से नीचे धकेल दिया और कथित मोदी मैजिक तथा हिंदुत्व की हवा निकाल दी।
दरअसल चुनाव में बेरोजगारी, महंगाई और (वंचित तबकों के लिए ) संविधान की रक्षा सर्वप्रमुख मुद्दा बन कर उभरे, जो परस्पर जुड़े हुए हैं। बेरोजगारी विस्फोटक आयाम ग्रहण कर चुकी है, बेरोजगार तथा अल्प वेतन भोगी तबकों के लिए आसमान छूती महंगाई असह्य और जानलेवा बन चुकी है। रोजगार विशेषकर सरकारी नौकरियों के खत्म होने की यही वह परिस्थिति थी जिसमें चुनाव के दौरान वंचित तबकों के लिए आरक्षण का सवाल और भी संवेदनशील बन गया और आरक्षण तथा सामाजिक सुरक्षा के मूलाधार- बाबा साहब के बनाये सम्विधान की रक्षा का सवाल उनके लिए जीवन- मरण का सवाल बन गया। जनता की आर्थिक बदहाली ने चुनावों में क्या भूमिका अदा की इसे कुछ उदाहरणों से समझा जा सकता है।
भाजपा द्वारा महाराष्ट्र में की गई हर तोड़फोड़ और तिकड़म को शिकस्त देते हुए प्याज उत्पादक किसानों ने महाराष्ट्र की प्याज पट्टी में भाजपा और सहयोगियों को धूल चटा दिया। सरकार की किसान विरोधी निर्यात नीति, उसमें बार बार बदलाव (flip-flop ), से नाराज प्याज किसानों और उससे जुड़े व्यापारियों के गुस्से के कारण एनडीए इस बार नासिक की प्याज पट्टी में 12 में से 8 सीटें हार गई और उसके वोटों में 25.4% की भारी गिरावट हुई। इंडिया गठबंधन ने उससे 8 सीटें छीन लीं और उसका वोट 16.2% बढ़ गया। नासिक जहां से देश के 90% प्याज का निर्यात होता है, वहां की दोनों (एक एनसीपी, एक नासिक शिवसेना) सीटें इंडिया गठबन्धन ने जीत लीं, इसी तरह धुले की दोनों सीटों पर भी विपक्ष ने कब्जा कर लिया।
महाराष्ट्र जैसा ही हाल राजस्थान, हरियाणा, पंजाब, यूपी के किसान आंदोलन के इलाकों और ग्रामीण क्षेत्रों में भी रहा, जहां बदहाल किसानों की नाराजगी के कारण भाजपा को भारी नुकसान उठाना पड़ा। इसी तरह बिहार में नीतीश कुमार के अचानक पाल्हा बदलने और एनडीए के पास बड़ा सामाजिक आधार होने के बावजूद, इंडिया गठबंधन अपनी रैलियों में युवाओं की भारी स्वतः स्फूर्त भीड़ आकर्षित करने और पिछली बार की 1 सीट से बढ़कर 9 सीट तक पहुंचने में सफल रहा (हालांकि यह अपेक्षा से कम रहा), तो इसमें गठबन्धन ने रोजगार व नौकरियों को जो बड़ा मुद्दा बनाया, उसकी निश्चय ही भूमिका थी।
इसी तरह इलाहाबाद में लंबे अंतराल के बाद विपक्ष (कांग्रेस) की जीत बहुतों के लिए अप्रत्याशित थी। लेकिन याद रखना चाहिए कि नौकरियों की तलाश में पूरी जवानी प्रतियोगी परीक्षाओं की तैयारी में खपाने को अभिशप्त युवाओं का उत्तर भारत में दिल्ली के अलावा सबसे बड़ा केंद्र इलाहाबाद ही है। जाहिर है तमाम अन्य फैक्टर्स के साथ रोजगार और पेपर लीक को लेकर युवाओं के आक्रोश ने इलाहाबाद में भाजपा की पराजय और विपक्ष की जीत में बड़ी भूमिका निभाई।
इतना ही नहीं, कुछ अपवादों को छोड़कर घाघरा के दक्षिण लखनऊ-इलाहाबाद- रायबरेली से पटना- आरा- काराकाट के बीच की लगभग सारी (30 के आसपास) सीटें इंडिया गठबन्धन ने जीत लीं। दरअसल यही वह इलाका है जो पिछले दिनो रेलवे परीक्षाओं में अनियमितता के खिलाफ छात्र-युवा उभार का केंद्र था, युवाओं ने पटना से लेकर इलाहाबाद तक तमाम रेलवे ट्रेक्स पर कब्जा कर लिया था। नौजवानों के स्वतःस्फूर्त प्रतिरोध को कुचलने के लिए उनके ऊपर भाजपा सरकारों ने भारी जुल्म ढाया था और तमाम नौजवानों को गंभीर आपराधिक धाराओं में जेल भेज दिया था। इस पूरे इलाके में तमाम प्रतियोगी परीक्षाओं में पेपर लीक, अग्निवीर आदि सवालों को लेकर छात्र युवा लगातार आंदोलित रहे हैं। जाहिर है आम जनता के गुस्से के साथ युवा आक्रोश भी इस पूरे इलाके में विपक्ष की भारी जीत में बड़ा फैक्टर बना है।
ये तो चंद उदाहरण हैं जो यह दिखाते हैं कि रोजी- रोटी के सवालों ने इस चुनाव में कितनी बड़ी भूमिका निभाई। सच तो यह है कि इण्डिया गठबन्धन की पार्टियों ने शायद 4- 6 महीने पहले से एक साझा कार्यक्रम बनाकर समवेत स्वर में जनता की रोजी रोटी, आर्थिक खुशहाली के सवाल को जोरशोर से उठाया होता और मोदी सरकार के विकसित भारत के छद्म को खोल दिया होता तथा जनता के सभी तबकों को राहत और अर्थव्यवस्था को गति देने वाले अपने विकास मॉडल को सही ढंग से पेश कर ठोस विकल्प प्रस्तुत किया होता, तो शायद मोदी राज के खात्मे की जनादेश की जो दिशा थी, वह आधे रास्ते न रुककर अपने अंजाम तक पहुंच जाती।
स्वयं मोदी और गोदी मीडिया की ओर से यह सवाल बार बार उठाया जा रहा था कि अगर विपक्ष के वायदों/ गारंटियों को लागू किया गया तो देश दिवालिया हो जाएगा। कांग्रेस के घोषणापत्र को मुस्लिम लीगी ही नहीं माओवादी बताया गया और सैम पित्रोदा ने जब उत्तराधिकार कर की बात की तो उसे लेकर मोदी न सिर्फ यहां तक चले गए कि मंगलसूत्र छीन लेंगे, भैंस खोल लेंगे आदि, बल्कि मनमोहन सिंह के एक पुराने बयान को तोड़मरोड़कर, उसे सांप्रदायिक मोड़ भी दे दिया। दरअसल यह सारा दुष्प्रचार रोजगार, महंगाई आरक्षण और संविधान से डायवर्ट करने तथा पूरे मामले को सांप्रदायिक मोड़ देने के उद्देश्य से तो प्रेरित था ही, यह मध्य और उच्च वर्ग को डराने और विपक्ष के खिलाफ लामबंद करने के लिए भी था कि अगर विपक्ष जीत गया तो भारत के संपत्तिशाली वर्गों के आर्थिक हितों पर चोट पड़ेगी।
चुनाव अभियान के इस मोड़ पर कांग्रेस और विपक्ष अगर साहस करता तो यहां से बहस को मोदी पर सीधे हमले के लिए इस्तेमाल कर सकता था। वह उत्तराधिकार कर और सम्पत्ति कर के पक्ष में खड़ा होकर लड़ाई को सीधे मोदी के पाल्हे में ले जा सकता था और उनकी सबसे कमजोर नब्ज पर हाथ रख सकता था। आम जनता की कीमत पर देश के जिन कॉर्पोरेट घरानों और परम समृद्ध तबके के पक्ष में मोदी सरकार पूरे 10 साल खड़ी रही, उनके ऊपर उत्तराधिकार कर और संपत्ति कर लगाने का ऐलान कर विपक्ष उसे एक्सपोज़ कर सकता था और जनता से किए जा रहे अपने वायदों को और लोकप्रिय बना सकता था।
लेकिन मुख्य विपक्षी दल कांग्रेस जो एक ओर जनता के सभी तबकों से बड़े बड़े आर्थिक मदद के वायदे का रही थी, लेकिन दूसरी ओर यह नहीं बता रही थी कि आखिर इसके लिए धन कहां से आयेगा। इससे उसके वायदों की विश्वसनीयता संदिग्ध बनी रही।
अनेक गंभीर लोगों को यह लगता रहा कि ये वायदे वास्तविक नहीं हवा हवाई हैं। सच्चाई यह है कि समाज के 1% ऊपरी तबकों पर कर लगाने की घोषणा से विपक्ष मोदी की कॉर्पोरेटपरस्ती के खिलाफ आम मेहनतकश जनता के गुस्से को हवा दे सकता था और धन्नासेठों, थैलीशाहों के खिलाफ कुछ वैसी ही लहर पैदा कर सकता था जैसी मोदी ने नोटबंदी करके पैदा की थी। लेकिन अपनी वर्गीय सीमाओं के कारण कांग्रेस यह नहीं कर सकी।
आज देश मे आर्थिक गैर बराबरी इस मुकाम पर पहुंच गई है कि पिछले दिनों प्रकाशित World Inequality Lab की रिपोर्ट में चेतावनी दी गई है, “यह अभी स्पष्ट नहीं है कि किसी बड़ी सामाजिक राजनीतिक उथल पुथल बिना भारत मे इस स्तर की असमानता आखिर कब तक कायम रहा पाएगी।”
रिपोर्ट के अनुसार 2022-23 में देश के ऊपरी 1% के पास राष्ट्रीय आय का 22.6% तथा धन संपदा के 40% पर कब्जा है। वैसे तो यह प्रक्रिया 90 दशक के प्राम्भ में शुरू हुई नवउदारवादी अर्थनीति के साथ ही चलती रही है, लेकिन 2014-15 से 2022-23 के बीच संपत्ति के संकेन्द्रण में अभूतपूर्व तेजी आई है। यह गैर बराबरी भारत मे पूंजीवाद के गढ़ अमेरिका अथवा ब्राज़ील और दक्षिण अफ्रीका से भी अधिक है। रिपोर्ट में कहा गया है कि अच्छी शिक्षा के अभाव में अल्प वेतन भोगी सबसे निम्न 50 % तथा मध्यवर्ती 40% की ग्रोथ अवरुद्ध है या गिर रही है।
मोदी अपने राज में दुनियां में कुल जीडीपी में भारत के 5वें स्थान पर होने की डींग हांकते नहीं थकते, लेकिन यह कभी नहीं बताते की प्रति व्यक्ति जीडीपी में भारत तमाम बड़े देशों में सबसे फिसड्डी है। कुल जीडीपी में भी वह चीन के चौथाई से भी कम है। प्रति व्यक्ति जीडीपी अमेरिका के 83000 डॉलर, चीन के 13160 डॉलर की तुलना में भारत में मात्र 2850 डॉलर है।
यह दिन के उजाले की तरह साफ होने के बाद कि लोकसभा चुनाव में बेरोजगारी और अर्थव्यवस्था सबसे बड़ा मुद्दा बने, संभव है लोकसभा चुनाव के धक्के के बाद, आने वाले विधानसभा एवं उपचुनावों के मद्देनजर सरकार कुछ course correction का दिखावा करे और महंगाई-बेरोजगारी पर कुछ लगाम लगाने की कोशिश करे। लेकिन उसकी डोर देश के बड़े कारपोरेट घरानों और वैश्विक वित्तीय पूंजी के हितों से जिन असंख्य धागों में बंधी हुई है, उसमें कुछ कॉस्मेटिक कदमों/उपायों से अधिक कुछ कर पाना उसके वश में नहीं है।
प्रो. प्रभात पटनायक के शब्दों में, “बड़े थैलीशाहों पर संपत्ति कर तथा उत्तराधिकार कर के जरिए धन जुटाकर सरकार द्वारा किए जाने वाले खर्चों में वृद्धि करना, अर्थव्यवस्था में रोजगार सृजन का सबसे आसान और सीधा रास्ता है। इसके जरिए एक ही तीर से कई निशाने लगाए जा सकते हैं इससे रोजगार में बढ़ोत्तरी होगी तथा संपत्ति की गैरबराबरी पर अंकुश लगेगा जो की जनतंत्र के लिए आवश्यक है। शिक्षा तथा स्वास्थ्य के क्षेत्र में बड़े पैमाने पर भर्तियां होने तथा नए रोजगार सृजन से इन क्षेत्रों में सुधार होगा, जबकि इस समय इनका हाल बहुत ही बुरा है।” यह भी स्पष्ट है कि यही अवरुद्ध अर्थव्यवस्था को तेजी से गतिशील बनाने का भी रास्ता है।
क्या विपक्ष, नागरिक समाज और छात्र-युवा संगठन आने वाले दिनों में मोदी सरकार को रोजगार, नौकरियों, स्वच्छ प्रतियोगी परीक्षाओं के सर्वोच्च प्राथमिकता के सवाल को गंभीरतापूर्वक एड्रेस करने के लिए सड़क से संसद तक घेरेंगे और उसके लिए अर्थनीति की दिशा में जरूरी बदलाव के लिए बाध्य करेंगे?