अग्नि आलोक
script async src="https://pagead2.googlesyndication.com/pagead/js/adsbygoogle.js?client=ca-pub-1446391598414083" crossorigin="anonymous">

हलो स्पीकर जी! सरसंघ चालक ने ही इमरजेंसी का खुला समर्थन किया

Share

कनक तिवारी 

18 का नंबर महत्वपूर्ण है। भारत में बच्चा अठारहवें वर्ष में बालिग होकर वोटर हो जाता है। लड़कियां ब्याह कर सकती हैं। अपराध करने की छूट भी इसी उम्र तक कई मामलों में मिलती है। महत्वपूर्ण है कि इतिहास में अठारह दिन तक (शायद) महाभारत का युद्ध हुआ था। अब अठारहवीं लोकसभा का गठन हुआ है। जनता को उम्मीद थी कोई बड़ा बदलाव होगा। लेकिन खुद जनता ने कुछ ऐसा बटवारा किया कि सभी को लगता है कि वे जीत गए और दूसरे हार गए। एकछत्र हुकूमत करती भाजपा का साम्राज्य दरक तो गया। 303 के बदले 240 पर नीचे उतरी। उसे फिर भी दो तीन बैसाखियों का सहारा मिला। उम्मीद कर सकती है चलती रहेगी। मंत्रिपरिषद बनी। नई बोतल में सत्रहवीं लोकसभा की पुरानी शराब भर दी गई। सभी बड़े मंत्री रिपीट हो गए। स्पीकर का चुनाव हुआ। नाम अन्दरखाने में ओम बिड़ला का ही था। वणिक वृत्ति का मणिकांचन योग अन्य व्यक्तियों पर भारी पड़ गया। 

कहना बेमानी है लेकिन सब कुछ नीचे गिर रहा है। भले ही प्रचार हो कि नेहरू के बाद तीसरी बार का प्रधानमंत्री है। राजेन्द्र प्रसाद को कहां से लाएं। उसी बिहार से आदिवासी महिला को राष्ट्रपति की आसंदी पर बिठाया गया। उनके भाषणों को प्रधानमंत्री कार्यालय जांचता है। कई बार खड़ा भी रखता है। नमस्कार का जवाब भी नहीं देता। विपक्ष में राम मनोहर लोहिया कहां से लाएं। बमुश्किल एक नौजवान को इस बार अंकगणित के तौर पर नेता विपक्ष बनने का मौका मिला है। 

स्पीकर के चुनाव को लेकर बावेला मचा। हलचल भर हो पाई। प्रधानमंत्री सहित सत्ता पक्ष के मंत्री वह नहीं बोले जो संसदीय शपथ और मर्यादा के तहत बोल सकना था। अगले पांच साल तक भी शायद यही परफारमेंस रिपीट करते रहेंगे। इसके बरक्स विपक्ष के सदस्य बेहतर बोले। अपनी शालीनता और तंज में भी संसदीय मूल्यों की बिसात बिछा दी। स्पीकर का मुस्कराता चेहरा जवाब देता रहा मैं वणिक वृत्ति का हूं। सुनना मेरा फर्ज़ है। भले ही नाम स्पीकर है। जब बोलूंगा तब तुमको तिलमिलाऊंगा ज़रूर। पिछले पांच साल उन्होंने एक प्रविधि का आविष्कार और रियाज़ भी कर लिया है। वही दोहराता आत्मविश्वास चेहरे पर नाच रहा था। 

स्पीकर पद भारतीय उपज नहीं है। लोकतंत्र का ढांचा और संविधान यूरो-अमेरिकी परंपराओं और इतिहास से आयात किया गया है। वहां स्पीकर को लगभग राजनीतिक सन्यासी कहा जाता है। वैसा आचरण करता भी है। बहुमत वाली पार्टी स्पीकर बनाती है, लेकिन फिर वाणप्रस्थी हो जाता है। गृहस्थ आश्रम में अतिथि बतौर ही आता है। उसमें राजनीतिक सक्रियता नहीं रहती। बर्तानवी प्रथाएं और परंपराएं उधार या आयात करने से क्या होता है? भारतीय दुर्लभ बुद्धि के होते हैं। स्पीकर के पद का भी भारतीयकरण कर दिया। हमारा स्पीकर जब चयनकर्ता प्रधानमंत्री की ओर देखता है तो अहसान के विनम्र भाव से मुस्कराता है। विपक्ष की ओर देखता है तो गूंगे शब्दों में कहता है। बच्चू मौका आएगा तब बताऊंगा और बताता भी है। पिछली लोकसभा में इतिहास में सबसे ज़्यादा प्रतिपक्षी सदस्यों का इन्हीं स्पीकर ने निलम्बन कर दिया। राहुल गांधी और महुआ मोइत्रा जैसे सांसदों के निलंबन से सत्ता पक्ष के साथ साथ स्पीकर ने भी प्रत्यक्ष में राहत की सांस ली थी। दोनों कंटक उनके अस्तित्व को फिर से गड़ने आ गए। 

8 मार्च 1958 को कभी स्पीकर रहे विट्ठल भाई पटेल की मूर्ति का अनावरण करते प्रधानमंत्री नेहरू ने उस पद की महानता के आयामों को मानो कविता की भाषा में समझाया था। आज़ादी के बाद जी0 वी0 मावलंकर महत्वपूर्ण स्पीकर हुए लेकिन उन्होंने अंगरेजी प्रथा के उलट कांग्रेस पार्टी की सदस्यता छोड़ने से इंकार किया। अपने उत्तराधिकारी अनंत शयनम आयंगर के साथ दो दो बार जीते। संसद के सिरमौर सांसद मधु लिमये के 13 मार्च 1967 को प्रधानमंत्री इंदिरा गांधी को लिखे पत्र की ज़माना याद करना चाहेगा। उन्होंने सलाह दी थी जीतने के बाद स्पीकर अपनी पार्टी से इस्तीफा दे और अगली बार खड़ा हो तब निर्दलीय हो। सभी पार्टियां उसकी मदद करें। कई सांसदों को लोकतंत्र में जूतमपैज़ार को हथियार समझने वालों को मधु लिमये से क्या लेना देना। 

बड़ा ख़तरा कल आ ही गया। स्पीकर ने इंदिरा गांधी द्वारा लगाई गई इमरजेंसी को लेकर निंदा प्रस्ताव तंज करने की शैली में सराबोर होकर प्रस्तुत और परिभाषित किया। नहीं करते तो क्या बिगड़ जाता? उसके बरक्स राहुल गांधी, अखिलेश यादव, सुदीप बंदोपाध्याय और तमाम सांसदों ने उनसे जिस तरह की निष्पक्षता और निस्पृहता की उम्मीद की थी, स्पीकर के बोलते ही पानी का वह बुलबुला फूट गया। स्पीकर को इसी कुर्सी पर बैठे अपने पूर्वज याद आए होंगे? वे इतिहास के अमर चरित्र केवल कांग्रेसी हुकुम सिंह और बलराम जाखड़ जैसे नहीं, बल्कि कहीं ज़्यादा मार्क्सवादी सोमनाथ चटर्जी और नीलम संजीव रेड्डी भी बल्कि अब नामालूम बना दिए गए स्पीकर तेलगु देशम पार्टी के बाल योगी भी। उनके ही साहसिक संवैधानिक आदेश के कारण एक वोट से अटल बिहारी वाजपेयी की सरकार गिर गई। वाजपेयी भी अपने मौजूदा वंशजों जैसे नहीं थे। खिलाड़ी भावना से मंजू़र किया और अगली बार जीतकर दिखा दिया। यही भारतीय लोकतंत्र की खसूसियत है। कल जिस तरह स्पीकर ने निराश किया। लगता है आगे भी संसद की कार्यवाही खटराग का संग्रहालय न बनती रहे। 

इमरजेंसी को लेकर सबको अपनी बात कहने का हक है। भाजपाई सांसद यदि स्पीकर बने। तो उन्हें दो बातें कहनी चाहिए थीं। एक तो यह कि इमरजेंसी को लेकर सुप्रीम कोर्ट की संविधान पीठ ने फैसला कर दिया कि उसमें कोई गलती नहीं हुई। वह फैसला तो कायम हो गया। भाजपा अध्यक्ष जे0 पी0 नड्डा कहते हैं भाजपा कार्मिक पार्टी है और राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ हमारा वैचारिक विश्वविद्यालय। तब के सरसंघ चालक ने ही इमरजेंसी का खुला समर्थन किया और प्रधानमंत्री से रियायत मांगते उन्हें पत्र भी लिखे। इन दो परंतुकों का उल्लेख यदि स्पीकर अपने कथित निंदा प्रस्ताव में जोड़ देते। तो स्पीकर पद पर उनकी प्रत्यक्ष तटस्थता का इतिहास को सबूत मिल जाता। लेकिन न उन्होंने किया, न ही उन्हें करने दिया गया, न आगे करने दिया जाएगा, और न आगे करेंगे।

script async src="https://pagead2.googlesyndication.com/pagead/js/adsbygoogle.js?client=ca-pub-1446391598414083" crossorigin="anonymous">

Follow us

Don't be shy, get in touch. We love meeting interesting people and making new friends.

प्रमुख खबरें

चर्चित खबरें