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बजट की सर्वोच्च प्राथमिकता बने रोजगार, शिक्षा, स्वास्थ्य और कृषि

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लाल बहादुर सिंह

लोकसभा चुनाव में रोजगार का सवाल तथा लोगों की जिंदगी के अन्य आर्थिक सवाल प्रमुख मुद्दा बने थे और उन्होंने भाजपा को अल्पमत में धकेल दिया, ऐसे में क्या मोदी सरकार नए बजट में कोई सुधार करेगी?

आज हालत यह है कि देश के सर्वोत्कृष्ट शिक्षण संस्थानों में पढ़ रहे छात्र भी रोजगार को लेकर आश्वस्त नहीं हैं। दूसरी ओर प्राथमिक से लेकर उच्च शिक्षा तक दो हिंदुस्तान बन चुके हैं। कभी जिन प्राइमरी स्कूलों से पढ़कर जीवन के हर क्षेत्र में प्रतिभाएं निकलती थीं, आज उनकी गुणवत्ता इतनी गिर गई है कि गरीब से गरीब व्यक्ति भी अगर मजबूरी न हो तो अपने बच्चों को वहां न पढ़ाए। यह दो परिघटनाएं भारत में आज शिक्षा और रोजगार जो युवा पीढ़ी के भविष्य अर्थात देश के भविष्य को तय करता है, को लेकर मोदी राज के परफॉर्मेंस को परिभाषित करती हैं।

जहां तक रोजगार की बात है उसका संबंध शिक्षा नीति और अर्थ नीति दोनों से है। यह साफ है कि देश में अर्थनीति ऐसी है कि रोजगार सृजन नहीं हो रहा, जो विदेशी कंपनियां रोजगार देती हैं उनकी जरूरत के अनुरूप बड़ी संख्या में योग्य युवा हमारी शिक्षा व्यवस्था नहीं पैदा कर पा रही।

जहां तक शिक्षा की बात है, उसका बजट जो आजादी के समय संकल्प था जीडीपी के 10%खर्च का, उसके आधे तक भी नहीं हो रहा। इस समय मोदी राज में यह 2.9% है। सबसे बडी बात यह है कि किसी स्तर पर अच्छी शिक्षा आम आदमी के बच्चों के लिए उपलब्ध नहीं है। इसका समाधान जब तक नहीं होगा, शिक्षा एक microscopic अल्पसंख्या का विशेषाधिकार बन कर रह जायेगी।

इसके दो ही समाधान है, या तो सरकारी शिक्षा गुणवत्तापूर्ण बने अथवा अच्छे निजी स्कूलों में सभी छात्र पढ़ सकें, सरकार उन्हें सब्सिडी देकर उनकी बेहतर शिक्षा सुनिश्चित करे। जाहिर है इस सब के लिए बड़े पैमाने पर बजट बढ़ाना होगा।

पाठ्यक्रमों में बदलाव और शिक्षण संस्थानों को अपनी विचारधारा का अड्डा बनाने से सरकार को बाज आना चाहिए। वर्ना केवल कूप मंडूक संकीर्ण सोच के युवा ही तैयार होंगे।

शिक्षा और स्वास्थ्य सेवाओं का विस्तार अपर रोजगार सृजन की संभावनाएं लिए हुए है। स्वास्थ्य सेवाओं के बारे में जितना कम कहा जाय उतना अच्छा। अच्छी स्वास्थ्य सेवाएं आम आदमी की पहुंच के बाहर हो गई हैं। शिक्षा वाला ही हाल यहां भी है।सरकारी सेवाएं ध्वस्त हो चुकी हैं और निजी सेवाएं इतनी महंगी हैं कि गरीब आदमी लाइलाज मरने के लिए अभिशप्त है। कुपोषण की मार ऊपर से। प्रति व्यक्ति खाद्य उपभोग घटता जा रहा है। इसमें जिंदा रहना मुश्किल है। समाधान एक ही है कि सबका मुफ्त स्वास्थ्य बीमा और स्तरीय इलाज सुनिश्चित किया जाय। जाहिर है इसके लिए बजट बड़े पैमाने और बढ़ाना होगा। आज वह दो प्रतिशत के आसपास पहुंच है।

कृषि उत्पादों का प्रसंस्करण रोजगार सृजन एवं मूल्यसंवर्धन का प्रमुख श्रोत है, लेकिन भारत में उत्पाद का मात्र लगभग 3 प्रतिशत( फलों का मात्र 4.5%, सब्जियों का 2.2%) प्रसंस्करण होता है, जबकि विकसित देशों में यह 90 प्रतिशत है।

ठीक इसी तरह लघु व कुटीर उद्योग क्षेत्र जो हमारे कुल ओद्योगिक उत्पादन तथा निर्यात दोनों में 40 प्रतिशत का योगदान करता था तथा कृषि के बाद रोजगार सृजन का सबसे बड़ा क्षेत्र है, आज सरकार की नोट बंदी जैसी विनाशकारी नीतियों और उपेक्षा के कारण मरता हुआ क्षेत्र है।

वैसे तो मुकम्मल भूमि सुधार तथा चौतरफा कृषि विकास एवं कृषि आधारित उद्यमों का जाल हमारी संपूर्ण अर्थव्यवस्था के पुनर्जीवन की शर्त है, रोजगार की दृष्टि से भी इसका केंद्रीय महत्व है। कृषि एवं लघु-कुटीर उद्योग न सिर्फ स्वयं रोजगार का सबसे बड़ा क्षेत्र है वरन इसकी खुशहाली से बनने वाला घरेलू बाजार ही वैश्विक मंदी के दौर में हमारे औद्योगिक विनिर्माण क्षेत्र के पुनर्जीवन का आधार बन सकता है।

ज़ाहिर है बड़े पैमाने पर रोजगार सृजन के लिए उक्त क्षेत्रों में भारी सार्वजनिक निवेश की नयी दिशा पर अमल करना होगा। जहां अर्थव्यवस्था के पिरामिड के आधार को विस्तारित करने के जरूरत है, वहीं श्रमशक्ति को न सिर्फ एम्प्लॉयबुल बल्कि इस लायक बनाने की ज़रुरत है कि वह अपना सर्वोत्तम सृजन व उत्पादन करने में सक्षम हो।

प्रधानमन्त्री जिस चीन का 2013 14 के चुनाव अभियान में अक्सर उदाहरण देते थे उसकी आर्थिक प्रगति का राज शिक्षा, स्वस्थ्य एवं कौशल विकास में उसके द्वारा किये गए भारी सार्वजनिक निवेश में छिपा है। शिक्षित, स्वस्थ और कौशल संपन्न युवा शक्ति ने चीन की मौजूदा प्रगति का मार्ग प्रशस्त किया है, जिसके बल पर चीन आज मैन्युफैक्चरिंग हब बना है और दुनिया के विराट बाजार पर कब्ज़ा किया है। भारत से चीन की तुलना करते हुए प्रो० अमर्त्य सेन जो स्वयं एक उदारवादी चिंतक हैं इस पहलू पर काफी जोर देते हैं।

हमारे देश में शिक्षा पर 2.9 प्रतिशत तो स्वास्थ्य पर जीडीपी का महज 2.1 प्रतिशत खर्च होता है (केंद्र और राज्य मिलाकर)। यह विकसित देशों, ब्रिक्स राष्ट्रों तथा अनेक विकासशील देशों की तुलना में काफी कम है। शिक्षा और स्वास्थ्य पर भारी सार्वजनिक निवेश न सिर्फ हमारी युवा शक्ति को कार्यकुशल बनाएगा और विराट आबादी को अच्छी शिक्षा तथा स्वास्थ्य सेवा उपलब्ध करायेगा वरन शिक्षण संस्थाओं तथा स्वास्थ्य सेवाओं का बड़े पैमाने पर विस्तार करोड़ों युवाओं के लिए रोजगार के नए अवसर पैदा करेगा।

साफ़ है कि 35 वर्ष से कम आयु की 65 प्रतिशत आबादी वाले देश को इस डेमोग्राफिक डिविडेंड का लाभ उठाने हेतु आर्थिक नीतियों, नियोजन व निवेश की नयी दिशा अपनानी होगी वरना अब इसे डेमोग्राफिक डिजास्टर में बदलने में देर नहीं लगेगी।

समय आ गया है कि देश के हर नागरिक को रोजगार देने के कार्यभार को राष्ट्रीय संकल्प में बदलने तथा इस दिशा में नीति -नियोजन को सरकार के लिए बाध्यकारी बनाने हेतु काम के अधिकार को संविधान में मौलिक अधिकार का दर्ज़ा दिया जाये।
AI पर राष्ट्रीय नीति तय होनी चाहिए ताकि इससे होने वाले रोजगार ध्वंस को रोका जा सके।

फ्रांस की जनता ने रास्ता दिखाया है, भारत की जनता ने भी लोकसभा चुनाव में इसी दिशा में बढ़ने का संकल्प व्यक्त किया, लेकिन वह एजेंडा अधूरा रह गया। उसे मंजिल तक पहुंचाने के लिए रोजगार, शिक्षा, स्वास्थ्य, कृषि तथा मैन्युफैक्चरिंग को बजट में सर्वोच्च प्राथमिकता बनाने हेतु देश की युवाशक्ति, जनतांत्रिक ताकतों तथा विपक्षी गठबंधन को सड़क से संसद तक दबाव बनाना होगा।

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