लखनऊ: इस बार लोकसभा चुनाव के नतीजों ने यूपी की गणित और चेहरों की केमेस्ट्री दोनों बदल दी है। इस बार 44 चेहरे ऐसे हैं जो पहली बार लोकसभा पहुंचे हैं। आज सदन में शपथ के बीच जानते हैं इन चेहरों के बारे में:
इकरा हसन: लंदन से पढ़ी, वोटरों की कसौटी पर खरी
कभी पलायन के मुद्दे के लिए चर्चित रहे कैराना पर भाजपा ने 2014 और 2019 में जीत हासिल की थी। इकरा के दादा चौधरी अख्तर हसन सांसद रहे। उनके निधन के बाद बेटे मुनव्वर हसन ने विरासत को आगे बढ़ाया और संसद पहुंचे। मुनव्वर की सड़क दुर्घटना में निधन के बाद उनकी पत्नी तबस्सुम बेगम 2009 में बसपा के टिकट पर कैराना से सांसद बनीं। 2018 में वह उपचुनाव जीती थीं लेकिन 2019 में भाजपा के प्रदीप चौधरी ने उन्हें हरा दिया। लंदन से पढ़कर आई इकरा हसन को इस बार अखिलेश ने उम्मीदवार चुना और वह वोटरों की कसौटी पर खरी उतरीं।
रुचि वीरा : नामांकन के 24 घंटे पहले मिला टिकट
मुरादाबाद से सपा के टिकट पर जीतीं रुचि वीरा को नामांकन खत्म होने के 24 घंटे पहले तत्कालीन सांसद एसटी हसन का टिकट काट उम्मीदवार बनाया गया था। विरोध के सुर के बीच वह आसानी से जीत तक लोकसभा पहुंची हैं। आजम खां की करीबियों में गिने जाने वाली रुचि वीरा 2014 में बिजनौर उपचुनाव में पहली बार विधायक बनी थीं। 2022 का विधानसभा चुनाव उन्होंने बसपा से लड़ा था, लेकिन हार गई थी। इसके बाद सपा में वापसी कर ली।
मुरादाबाद की सपा सांसद रुचि वीरा
मोहिबुल्लाह : इनाम से संसद तक का सफर
रामपुर की चर्चित सीट से सांसद बने मोहिबुल्लाह नदवी का लोकसभा का सफर किसी चमत्कार से कम नहीं रहा है। आजम खां, उनके बेटे अब्दुल्लाह आजम और पत्नी तंजीन फात्मा के सजायाफ्ता होने के चलते अखिलेश रामपुर से उम्मीदवारी का चेहरा तलाश रहे थे। आजम खां ने सैफई परिवार से किसी चेहरे को लड़ने का प्रस्ताव दिया, जिस पर अखिलेश सहमत नहीं हुए। उन्होंने दिल्ली की पार्लियामेंट स्ट्रीट मस्जिद के इमाम मोहिबुल्लाह नदवी को उम्मीदवार बना दिया और नदवी संसद पहुंच गए।
जिया उर रहमान : दादा की विरासत बढ़ा रहा पोता
पहली बार संसद पहुंचे जिया उर रहमान बर्क संभल जिले की कुंदरकी विधानसभा से विधायक थे। उनके दादा शफीकुर्रहमान बर्क संभल से सांसद थे। बर्क मुरादाबाद से तीन बार और संभल से दो बार सांसद बने थे। 94 साल के बर्क को इस बार भी सपा ने टिकट दिया था। लेकिन, चुनाव के पहले ही उनका निधन हो गया। उनकी जगह उनके पोते जिया उर रहमान को टिकट दिया गया और वह दादा का विरासत आगे बढ़ाने में सफल रहे।
देवेश शाक्य : कल्याण के बेटे को दी थी मात
एटा लोकसभा से कल्याण सिंह के बेटे व दिग्गज नेता राजवीर सिंह उर्फ राजू भईया के सामने सपा ने देवेश शाक्य को उतारा था। दो दशक पहले राजनीति की शुरुआत करने वाले देवेश औरैया से जिला पंचायत अध्यक्ष का भी चुनाव लड़े थे लेकिन एक वोट से हार गए। हालांकि, लोकसभा में उन्होंने पहली बार में ही जीत का परचम लहरा दिया।
आदित्य यादव : सैफई परिवार से संसद पहुंचने वाले 8वें चेहरे
बदायूं से सांसद चुने गए आदित्य यादव सैफई के मुलायम परिवार के 8वें चेहरे हैं जो संसद पहुंचे हैं। शायद ही किसी राजनीतिक परिवार को यह अवसर हासिल हुआ हो। आदित्य के साथ अखिलेश यादव, डिंपल यादव, धर्मेंद्र यादव और अक्षय यादव भी लोकसभा में हैं। राज्यसभा में रामगोपाल यादव हैं। इससे पहले मुलायम सिंह यादव और उनके पोते तेज प्रताप यादव भी संसद पहुंच चुके हैं। आदित्य यादव मुलायम के भाई व जसवंतनगर से विधायक शिवपाल यादव के बेटे हैं।
बदायूं के सपा सांसद आदित्य यादव
नीरज मौर्य : स्वामी किनारे, नीरज लोकसभा पहुंच गए
आंवला की जलालाबाद से बसपा के विधायक रहे नीरज मौर्य ने 2017 के विधानसभा चुनाव में स्वामी प्रसाद मौर्य से करीबी के चलते भाजपा का दामन थाम लिया था। लेकिन, 2022 में फिर सपा आ गए। उनके राजनीतिक गुरु स्वामी भले ही सपा से किनारे होते गए लेकिन नीरज ने अपनी पैठ मजबूत की। पहली बार आंवला से सपा ने लोकसभा का टिकट उनको दिया और धर्मेंद्र कश्यप के जीत के क्रम पर उन्होंने रोक लगा दी।
उत्कर्ष वर्मा : टेनी के टशन को तोड़ा
किसानों को थार से कुचले जाने के मामले में चर्चा में आए गृह राज्यमंत्री अजय मिश्र टेनी के टशन को खीरी में उत्कर्ष वर्मा ने तोड़ दिया और सपा को जीत दिलाई। इस सीट से अमूमन पूर्व सांसद रवि प्रकाश वर्मा की दावेदारी सपा से रहती थी। लेकिन, चुनाव के ठीक पहले उन्होंने कांग्रेस का दामन थाम लिया था। अखिलेश ने पार्टी के दो बार विधायक रहे उत्कर्ष वर्मा पर दांव लगाया। पहली बार लोकसभा चुनाव लड़ रहे उत्कर्ष ने साइकल की जीत का परचम लहरा दिया।
आनंद भदौरिया : टीम अखिलेश से लोकसभा तक
लखनऊ यूनिवर्सिटी के छात्रनेता रहे आनंद भदौरिया की एक प्रदर्शन की तस्वीर खूब वायरल हुई थी। प्रदर्शन के दौरान धक्का-मुक्की में वह गिर गए और एक पुलिस अधिकारी का जूता उनके चेहरे के पास थी। इस तस्वीर ने सपा नेतृत्व का ध्यान खींचा। यहां से वह मुलायम और फिर अखिलेश के करीबी हो गए। अखिलेश ने उन्हें विधान परिषद सदस्य भी बनाया। इस बार धौरहरा से जीत कर संसद पहुंच गए हैं।
मोहनलालगंज से सपा सांसद आरके चौधरी
आरके चौधरी : चौथी बार में तोड़ा हार का क्रम
कांशीराम के समय सियासत शुरू करने वाले आरके चौधरी ने मोहनलालगंज में केंद्रीय मंत्री कौशल किशोर को हराकर पहली बार लोकसभा का दरवाजा अपने लिए खोला है। इससे पहले तीन बार उनको यहां हार का सामना करना पड़ा था। बसपा सरकार में कैबिनेट मंत्री रहे आरके चौधरी कांग्रेस से भी चुनाव लड़ चुके हैं। लेकिन, उनकी किस्मत का सिक्का तभी पलटा जब वह साइकल पर सवार हुए।
रामभुआल निषाद : गोरखपुर से आकर मेनका को हरा दिया
गोरखपुर से राजनीति करने वाले रामभुआल निषाद 2007 में बसपा सरकार में राज्यमंत्री बने थे। भाजपा का भी दामन थामा लेकिन टिकट न मिलने के चलते पाला बदल दिया। 2014 में गोरखपुर में योगी आदित्यनाथ के खिलाफ भी ताल ठोंकी थी लेकिन जीत नहीं मिली। इस बार सपा ने सुल्तानपुर से मेनका गांधी के खिलाफ भीम निषाद को उतारा था। लेकिन, आखिरी मौके पर टिकट काट रामभुआल को दे दिया। रामभुआल ने मेनका गांधी जैसे दिग्गज को मात देकर लोकसभा में एंट्री ले ली। रामभुआल के खिलाफ कई आपराधिक मुकदमे भी हैं।
मेनका को हराने वाले रामभुआल निषाद
एसपी सिंह पटेल : एमएलसी से एमपी तक
लखनऊ व आस-पास के जिलों में स्कूल की चेन चलाने वाले एसपी सिंह पटेल ग्रेजुएट व शिक्षक कोटे की विधान परिषद सीटों पर राजनीति करते थे। वह जीत कर एमएलसी भी बने। लेकिन, इस बार शिक्षक निर्वाचन कोटे की सीट पर हार गए थे। अखिलेश ने चुनाव की घोषणा के पहले ही एसपी पटेल को प्रतापगढ़ से चुनाव की तैयारी करने को कह दिया था। पटेल के मेहनत काम आई और वह पहली बार में ही संसद पहुंच गए।
जितेंद्र दोहरे : सपा को वापस लौटाया गढ़
कभी सपा के गढ़ रहे इटावा में भाजपा ने 2014 में सेंध लगाई तो एक दशक सपा उसे तोड़ नहीं सकी। अखिलेश ने इस बार जितेंद्र दोहरे पर दांव लगाया। इटावा में बसपा के जिलाध्यक्ष रहे जितेंद्र ने चार साल पहले सपा का दामन थामा। अखिलेश ने उन पर भरोसा जताया और इटावा से चुनाव लड़ने को कह दिया। जितेंद्र दोहरे भाजपा उम्मीदवार व पूर्व केंद्रीय मंत्री रामशंकर कठेरिया पर भारी पड़े और सपा को उसका गढ़ लौटा दिया।
नारायण दास अहिरवार : बसपा से राजनीति सीखी, सपा में परचम लहराया
बुंदेलखंड की जालौन सीट से भाजपा ने केंद्रीय मंत्री भानु प्रताप वर्मा को उम्मीदवार बनाया था। बुंदेलखंड की जमीन पिछले दो चुनावों में सपा के लिए बंजर थी। सपा ने बसपा से आए नारायण दास अहिरवार को उम्मीदवार चुना। अहिरवार बसपा की स्थापना के साथ ही उससे जुडे थे और ढाई दशक तक साथ रहे। 2007 में बसपा सरकार में दर्जा प्राप्त राज्यमंत्री रहे। बाद में मनमुटाव के चलते उन्होंने सपा का दामन थाम लिया। बसपा में सीखा राजनीति का ककहरा सपा के टिकट पर परचम लहराने के काम आया।
अजेंद्र राजपूत : प्रधान से सांसद बन गए
बुंदेलखंड की हमीरपुर लोकसभा से जीत कर पहली बार संसद पहुंचे अजेंद्र राजपूत इससे पहले ग्राम प्रधान रहे चुके हैं। उनके पिता नंद नारायण सिंह राजपूत जरूर दो बार के विधायक रहे हैं। 2022 के विधानसभा चुनाव में भी सपा ने अजेंद्र को टिकट दिया था लेकिन फिर उनका टिकट काटकर दूसरे को दे दिया गया। हालांकि, अजेंद्र सपा के साथ बने रहे और इसका इनाम इस बार उन्हें लोकसभा के टिकट के तौर पर मिला। अजेंद्र ने भाजपा की हैट्रिक रोक अपने लिए लोकसभा का रास्ता साफ कर दिया।
कृष्णा देवी पटेल : पति की सियासी जमीन पर उगाई जीत की फसल
बांदा से सांसद बनी कृष्णा देवी पटेल सपा की प्राथमिक उम्मीदवार नहीं थी। पार्टी ने उनके पति शिवशंकर पटेल को टिकट दिया था। शिवशंकर भाजपा के नेता रहे हैं। कल्याण सरकार में वह मंत्री भी रहे। पिछले जिला पंचायत अध्यक्ष चुनाव में वह पत्नी को उम्मीदवार बनाना चाहते थे। भाजपा से टिकट नहीं मिला तो निर्दल लड़ाकर जीत दिला दी। भाजपा ने उन्हें पार्टी से बाहर किया तो सपा में आ गए। लोकसभा का टिकट भी मिला लेकिन स्वास्थ्य कारणों से उन्होंने पत्नी को उम्मीदवार बनवा दिया। दांव सफल रहा।
नरेश उत्तम पटेल : चुनाव में अध्यक्ष से हटे, माननीय बने
सपा के प्रदेश अध्यक्ष रहे नरेश उत्तम पटेल की कुर्सी बीच चुनाव में चली गई थी। अखिलेश यादव ने उनकी जगह श्याम लाल पाल को अध्यक्ष बना दिया। हालांकि, फतेहपुर से पर्चा भरने के बाद नरेश उत्तम ने खुद ही अध्यक्ष की जिम्मेदारी से मुक्त करने की सिफारिश की थी। मुलायम की पहली सरकार में मंत्री रहे नरेश उत्तम अखिलेश के करीबियों में गिने जाते हैं। 2017 में जब अखिलेश यादव ने शिवपाल यादव को प्रदेश अध्यक्ष पद से हटाया था तब नरेश उत्तम को ही कमान सौंपी थी।
पुष्पेंद्र सरोज : 25 साल की उम्र में संसद का सफर
कौशांबी सीट पर भाजपा की जीत का क्रम तोड़ने वाले पुष्पेंद्र सरोज महज 25 साल के ही हैं। क्वीन मैरी यूनिवर्सिटी ऑफ लंदन से एकाउंटिंग एंड मैनेजमेंट की पढ़ाई करने के बाद उन्होंने राजनीति में कदम रखा। वजह बने पिता इंद्रजीत सरोज। पूर्व मंत्री व विधायक इंद्रजीत सरोज कभी बसपा के दिग्गज नेता थे लेकिन बाद में सपा में चले आए थे। उनके बेटे पुष्पेंद्र ने दो बार के सांसद विनोद सोनकर को हराकर घर बैठा दिया।
अवधेश प्रसाद : कमंडल पर मंडल के चेहरे
9 बार के विधायक रहे अवधेश प्रसाद सपा सरकार में अहम विभागों में मंत्री रहे हैं। अखिलेश यादव ने इस बार नया प्रयोग करते हुए पहली बार फैजाबाद से दलित चेहरे पर दांव लगाया और अवधेश को टिकट दिया। राममंदिर के लोकार्पण के बाद आत्मविश्वास के उफान में बह रही भाजपा फैजाबाद को लेकर आश्वस्त थी। लेकिन, पहली बार में ही अवधेश ने भाजपा की जीत की लहर पर बांध बना दिया और वह कमंडल पर मंडल की विजय के चेहरे बन गए हैं।
अयोध्या के सपा सांसद अवधेश प्रसाद
लालजी वर्मा : संसदीय मंत्री से संसद तक का सफर
बसपा की राजनीति का आधार स्तंभ रहे लालजी वर्मा छह बार विधायक रहे हैं। बसपा सरकार में संसदीय कार्यमंत्री सहित कई अहम जिम्मेदारियां संभाली हैं। 2022 के विधानसभा चुनाव के पहले मायावती लालजी वर्मा से नाराज हो गईं और उन्हें पार्टी से निकाल दिया। लालजी वर्मा सपा में आ गए। इस बार उन्हें अंबेडकरनगर से लोकसभा टिकट मिला और उनकी संसद में एंट्री हो गई
लक्ष्मीकांत ऊर्फ पप्पू निषाद : भाजपा के निषाद पर भारी पप्पू
गोरखपुर से सटी संतकबीर नगर लोकसभा सीट से भाजपा से निषाद पार्टी के मुखिया संजय निषाद के बेटे प्रवीण निषाद को उम्मीदवार बनाया था। इस निषाद व ब्राह्मण बहुल सीट पर अखिलेश ने पप्पू निषाद पर दांव खेला था। पप्पू 2012 में मेंहदावल से विधायक रहे और अखिलेश सरकार में स्वतंत्र प्रभार राज्यमंत्री भी रहे। हालांकि, इसके बाद दो बार उनका टिकट कट गया। इस बार लोकसभा में अखिलेश ने उन पर भरोसा जताया और वह खरे उतरे।
राजीव राय : घोसी से हार का किया हिसाब
सपा के राष्ट्रीय सचिव व प्रवक्ता राजीव राय की गिनती अखिलेश यादव के करीबियों में होती है। 2014 के लोकसभा चुनाव में भी पार्टी ने उन्हें घोसी से उम्मीदवार बनाया था लेकिन जीत से कोसो दूर रह गए। इस बार फिर घोसी से टिकट मिला तो उनके सामने सुभासपा के अध्यक्ष ओम प्रकाश राजभर के बेटे अरविंद राजभर उम्मीदवार थे। लेकिन, राजभर के जातीय तिलिस्म को राजीव तोड़ने में सफल रहे।
सनातन पांडेय : हार का लिया हिसाब
बलिया लोकसभा पूर्व प्रधानमंत्री चंद्रशेखर का गढ़ रही है। यहां से सपा के सनातन पांडेय ने चंद्रशेखर के ही बेटे नीरज शेखर को हराकर संसद में एंट्री ली है। 2019 के लोकसभा चुनाव में सनातन भाजपा के वीरेंद्र सिंह मस्त के हाथों महज 15 हजार वोटो से हार गए थे। तब उन्होंने चुनाव में धांधली का भी आरोप लगाया था। विधायक रहे सनातन पांडेय ने इस बार आखिरी चुनाव का नारा देकर सहानुभूति कार्ड भी खेला था।
बाबू सिंह कुशवाहा : घोटालों के बीच संसद का रास्ता
बसपा में बाबू सिंह कुशवाहा का सिक्का ऐसा चलता था कि वह मायावती के आंख-कान माने जाते थे। बसपा की हर सरकार में न केवल मंत्री रहे बल्कि अहम विभाग भी उनके पास रहे। लेकिन, 2007 में बनी बसपा सरकार में एनआरएचएम घोटाले में नाम आने के बाद से कुशवाहा को मायावती ने उन्हें पहले सरकार व फिर पार्टी से बाहर कर दिया। अलग-अलग घोटालों में जेल काट चुके कुशवाहा राजनीतिक आसरा ढूंढ़ रहे थे। अखिलेश ने जौनपुर में उन पर दांव लगाया। पूर्व सांसद धनंजय सिंह के भाजपा के खुले समर्थन के बाद भी बाबू सिंह कुशवाहा ने जीत दर्ज की। वह पहली बार संसद पहुंचे हैं।
प्रिया सरोज : सुप्रीम कोर्ट की वकील से अब जनता की ‘वकील’
मछलीशहर सीट से सांसद बनी प्रिया सरोज के पिता तूफानी सरोज भी सांसद रहे हैं। सुप्रीम कोर्ट में वकालत कर रही प्रिया की उम्र महज 25 साल है। अखिलेश ने युवा व महिला की भागीदारी बढ़ाने के क्रम में पूजा को टिकट दिया और वह भाजपा के सांसद रहे बीपी सरोज पर भारी पड़ गईं। अब वह संसद में जनता की वकालत करेंगी।
बीरेंद्र सिंह : मोदी के पड़ोस में चला दी साइकल
चंदौली से भाजपा ने केंद्रीय मंत्री और भाजपा के पूर्व प्रदेश अध्यक्ष महेंद्र नाथ पांडेय को फिर चुनाव में उतारा। सपा ने यहां तमाम दावेदारी को दरकिनार करते हुए बीरेंद्र सिंह को टिकट दिया था। पहले कांग्रेस और फिर बसपा से विधायक रहे बीरेंद्र 2003 में बनी मुलायम सरकार में मंत्री भी रहे। इसके बाद कांग्रेस व बसपा होते हुए कुछ साल पहले फिर सपा में आए थे। मोदी की पड़ोस वाली चंदौली में उन्होंने साइकल दौड़ाई और पहली बार संसद पहुंच गए।
नगीना के सांसद चंद्रशेखर आजाद
चंद्रशेखर आजाद : दलित राजनीति के नए चेहरे
2022 के विधानसभा चुनाव में गोरखपुर से जब योगी आदित्यनाथ के खिलाफ चंद्रशेखर ने जब पर्चा भरा था तब 5000 वोट के लाले पड़ गए थे। सपा से गठबंधन की कोशिशें फेल रहीं। यूपी में मायावती के दलित वोटों पर पकड़ के बीच आजाद समाज पार्टी के मुखिया चंद्रशेखर पर सवाल थे। लेकिन, चंद्रशेखर ने नगीना में भाजपा, सपा व बसपा तीनों को पीछे छोड़ जीत हासिल कर राजनीतिक समीकरणों की दिशा मोड दी है। महज पांच सालों में अपनी राजनीतिक पहचान बनाने वाले चंद्रशेखर पहली बार लोकसभा चुनाव में उतरे थे। अब वह यूपी में दलित राजनीति के कद्दावर चेहरे बन चुके हैं।